Saturday, 23 December 2017

दूर्वा [ दूब घास ]के चमत्कार

 ::::::::::::::::दूर्वा [ दूब घास ]के चमत्कार ::::::::::::::::
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दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।हिन्दू संस्कारों एवं कर्म काण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर- अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। यह घास औषधिके रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।
"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥
पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पररखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोमटूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब केरूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथमइसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी।
'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्तहै। चाहे विवाहोत्सव हो या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।
हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-ज़मीन पर उगती दूब
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"
अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है।दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुतअधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्णबनी रहती है।उद्यानों की दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि','शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं। दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों- सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब।
महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-अरे घास री रोटी ही,जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
दूब घास की शाखा अर्वाचीन विश्लेषकों ने भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इनसभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है। आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक एवं कफज विकारों के शमन में दूब का निरापद प्रयोग किया जाता है। 
दूब के कुछ औषधीय गुण निम्नलिखित हैं-
1.संथाल जाति के लोग दूब को पीसकर फटी हुई. बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते हैं। 
2.इस पर सुबह के समय नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढती है और अनेक विकार शांत हो जाते है।
3. दूब घास शीतल और पित्त को शांत करने वाली है। 
4.दूब घास के रस को हरा रक्त कहा जाता है, इसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है। 5.नकसीर में इसका रस नाक में डालने से लाभ होता है।
6. इस घास के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिट जाते है 
7.दूब का रस पीने से पित्त जन्य वमन ठीक हो जाता है। 8.इस घास से प्राप्त रस दस्त में लाभकारी है।

9. यह रक्त स्त्राव, गर्भपात को रोकती है और गर्भाशय और गर्भ को शक्ति प्रदान करती है।कुँए वाली दूब पीस कर मिश्री के साथ लेने से पथरी में लाभ होता है।दूब को पीस कर दही में मिलाकर लेने से बवासीर में लाभ होता है।इसके रस को तेल में पका कर लगाने से दाद, खुजली मिट जाती है।दूब के रस में अतीस के चूर्ण को मिलाकर दिन में दो- तीन बार चटाने से मलेरिया में लाभ होता है। इसके रस में बारीक पिसा नाग केशर और छोटी इलायची मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे बच्चों को नस्य दिलाने से वे तंदुरुस्त होते है। बैठा हुआ तालू ऊपर चढ़ जाता है।
दूर्वा से कार्यसिद्धि 
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कथा के अनुसार प्राचीन काल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था। इस दैत्य के कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राही-त्राही मची हुई थी। अनलासुर ऋषि-मुनियों और आम लोगों को जिंदा निगल जाता था। दैत्य से त्रस्त होकर देवराज इंद्र सहित सभी देवी-देवता और प्रमुख ऋषि-मुनि महादेव से प्रार्थना करने पहुंचे। सभी ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे अनलासुर के आतंक का नाश करें।
शिवजी ने सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों की प्रार्थना सुनकर कहा कि अनलासुर का अंत केवल श्रीगणेश ही कर सकते हैं।
जब श्रीगणेश ने अनलासुर को निगला तो उनके पेट में बहुत जलन होने लगी। कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी गणेशजी के पेट की जलन शांत नहीं हो रही थी। तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर श्रीगणेश को खाने को दी। जब गणेशजी ने दूर्वा ग्रहण की तो उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।
दूर्वा अर्थात्‌ दूब एक विशेष प्रकार की घास है। आयुर्वेद, तंत्र और अध्यात्म में इसकी बड़ी महिमा बताई गई है। देव पूजा में भी इसका प्रयोग अनिवार्य रूप से होता है। गणेशजी को यह बहुत प्रिय है। साधक किसी दिन शुभ मुहूर्त में गणेशजी की पूजा प्रारंभ करे और प्रतिदिन चंदन, पुष्प आदि के साथ प्रतिमा पर 108 दूर्वादल (दूब के टुकड़े) अर्पित करे। धूप-दीप के बाद गुड़ और गिरि का नैवेद्य चढ़ाना चाहिए। इस प्रकार प्रतिदिन दूर्वार्पण करने से गणेशजी की कृपा प्राप्त हो सकती है। ऐसा साधक जब कभी द्रव्योपार्जन के कार्य से कहीं जा रहा हो तो उसे चाहिए कि गणेश प्रतिमा पर अर्पित दूर्वादलों में से 5-7 दल प्रसाद स्वरूप लेकर जेब में रख ले। यह दूर्वा धारक की सफलता बढ़ा देती है |
...............................................................हर-हर महादेव



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