कापालिक और कापालिक सम्प्रदाय
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भारतीय साधना अथवा उपासना जगत में पांच सम्प्रदाय रहे हैं |शैव ,शाक्त ,वैष्णव ,सौर और गाणपत्य |सौर और गाणपत्य सम्प्रदाय को मानने वाले अब कम पाए जाते हैं जबकि वैष्णव सम्प्रदाय अधिकतर वैदिक मार्गी और कर्मकांड की प्रमुखता वाले सांसारिक लोग अथवा सन्यासी मानते हैं |तंत्र जगत में मूल रूप से शैव और शाक्त सम्प्रदाय हैं |इनमे कापालिक सम्प्रदाय के लोग शैव सम्प्रदाय के अंतर्गत आते हैं जिनके मुख्य आराध्य शिव हैं |ये लोग मानव खोपड़ियों को पात्र के रूप में उपयोग करते हैं और उसके माध्यम से ही खाते पीते हैं इसलिए इन्हें कापालिक कहा जाता है |माहेश्वर सम्प्रदाय के चार मूल सम्प्रदायों में कापालिक सम्प्रदाय भी है |इन्हें कापालिक शैव कहा जाता है | कापालिक संप्रदाय को महाव्रत-संप्रदाय भी माना जाता है। इसे तांत्रिकों का संप्रदाय माना गया है। नर कपाल धारण करने के कारण ये लोग कापालिक कहलाए। कुछ विद्वान इसे नहीं मानते हैं। उनके अनुसार कपाल में ध्यान लगाने के चलते उन्हें कापालिक कहा गया। पुराणों अनुसार इस मत को धनद या कुबेर ने शुरू किया था।
बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के संप्रदाय विद्यमान थे। सरबरतंत्र में 12 कापालिक गुरुओं और उनके 12 शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं। गुरुओं के नाम हैं- आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि। शिष्यों के नाम हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि। ये सब शिष्य तंत्र के प्रवर्तक रहे हैं।
कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय है जो अपुराणीय था |इन्होने भैरव तंत्र तथा कॉल तंत्र की रचना की |कापालिक सम्प्रदाय पाशुपत या शैव सम्प्रदाय का वह अंग है जिसमे वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है |कापालिक सम्प्रदाय के अंतर्गत नकुलीश तथा लकुलीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है |यह कहना कठिन है की लकुलीश [जिसके हाथ में लकुट ] हो ऐतिहासिक व्यक्ति था या काल्पनिक |इनकी मूर्तियाँ लकुट के साथ हैं ,इस कारण इन्हें लकुटीश कहते हैं |इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि में तो पाशुपत सम्प्रदाय की उत्पत्ति का समय ई.पू. दूसरी शताब्दी है ,किन्तु जिस तरह तांत्रिक सम्प्रदाय वैदिक युग में भी था उससे अनुमान है की यह इससे पूर्व गुप्त और समाज से दूर क्रियाशील था |
कापालिक सम्प्रदाय के रहन -सहन और साधना पद्धतियों से ज्ञात होता है की इसका मूल उद्गम हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र हैं |चूंकि यह मूलतः कुंडलिनी साधना से सम्बंधित सम्प्रदाय रहा है और यह तंत्र साधना से कुंडलिनी जागरण में विश्वास रखता है अतः इनकी पद्धतियाँ भी उसी अनुरूप हैं |पर्वतीय पर्यावरण के अनुरूप रहने के लिए इन्होने मांस- मदिरा और पंचमकार को अपनाया और काम भाव द्वारा कुंडलिनी जागरण को माध्यम बनाने से इन्होने मैथुन को इसमें स्थान दिया |ओंक पंचमकार उपयोग बहुत हद तक एक विशिष्ट वातावरण के अनुकूल रहने और ऊर्जा प्राप्ति के लिए था ,केवल मैथुन और मुद्रा कुंडलिनी साधना के लिए विशिष्ट आवश्यक तत्व के रूप में लिया गया था |किन्तु चूंकि बाद के अधिकतर वाम मार्गी पंथ और सम्प्रदाय इसी से विकसित हुए अतः सबमे यह आता गया और कुछ के अतिरिक्त अधिकतर में विकृत रूप लेता गया |
कापालिक मत में प्रचलित साधनाएं बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं ,अर्थात इनसे यह बौद्धों की वज्रयान सम्प्रदाय में भी गया ,चूंकि वजयाँ का भी उद्गम हिमालयीय क्षेत्र ही था |इनकी पद्धतिय अन्य शैव सम्प्रदायों और नाथ सम्प्रदाय में भी गयी |यक्ष -देव परम्परा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योकि तीनो में ही प्रायः कई देवता समान गुण -धर्म और स्वभाव के हैं |चर्याचर्यविनिश्चय की टीका में एक श्लोक आया है जिसमे प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत की स्त्रियों को स्त्री -जन -साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गयी |
पाशुपत सम्प्रदाय से ही कालमुख और कापालिक शाखाएं उद्भूत हुई |कालमुख मुख्य रूप से राज दरबारों और नगरों में सीमित रहा किन्तु कापालिक मत दक्षिण और उत्तर भारत में गुह्य साधना के रूप में फैला |कापालिकों के देवता माहेश्वर थे |गोरक्ष सिद्धांत संग्रह के अनुसार श्री नाथ के दूतों ने जब विष्णु के चौबीस अवतारों के कपाल काट लिए तब वे कापालिक कहलाये |इससे तथा बहुत सी अन्य कथाओं के द्वारा वैष्णव सम्प्रदाय से कापालिक या शैव सम्प्रदाय का विरोध लक्षित होता है |अधिकतर कहानियों में शिव को राक्षसों और दानवों का उपास्य देव बताया जाता है और उनकर शक्ति से वे देवताओं को भी पराजित करते हैं |यह भी इन्ही सम्प्रदायों की आपसी विरोधात्मक रचनाएँ हैं |आर्य विष्णु ,इंद्र ,रूद्र आदि के आराधक थे जबकि आर्येतर जातियां शिव जैसे देवता की उपासना करती थी |बाद में भक्तिवाद का प्रभाव शैव धर्म पर पड़ा और वैदिक देवता तथा आर्येतर स्रोत के देवता एक हो गए |रूद्र को शिव कहा जाने लगा और अन्य देवताओं को भी आपस में मिला दिया गया |वैदिक कर्मकांड ,तंत्र में घुस गया |भक्तिवादी उपासना में शिव उदार और भक्त वत्सल चित्रित किये गए |गुह्य साधनाओं में शिव का आदिम रूप न्यूनाधिक रूप में विद्यमान रहा जिसके अनुसार वे विलासी और घोर क्रियाकलापों से सम्बद्ध थे |
बौद्ध सम्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्री साहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गयी है और बौद्ध साधक अपने को कपाली कहते थे |[चर्यापद ११ ,चर्या -गीत -कोष ]|यह प्रकट करता है की बौद्ध सम्प्रदाय से पहले से कापालिक सम्प्रदाय था और बौद्ध सम्प्रदाय ने इनके काफी कुछ नियम और पद्धतियाँ अपनी साधनाओं में ली हैं |प्राचीन साहित्य [जैसे मालती माधव ]में कपाल कुंडला और अघोरघंट का उल्लेख आया है |इस ग्रन्थ से कापालिक मत के सम्बन्ध में कुछ स्थूल तथ्य स्थिर किये जा सकते हैं |कापालिक मत ,नाथ संप्रदायियों और हठ योगियों की तरह चक्र और नाड़ियों में विश्वास करता था |उसमे जीव और शिव में अभिन्नता मानी गयी है |
योग से ही शिव का साक्षात्कार संभव है |शिव का शक्ति संयुक्त रूप ही समर्थ और प्रभावकारी है |शिव और शक्ति के इस मिलनसुख को ही कापालिक अपपनी कपालिनी के माध्यम से अनुभव करता है जिसे वह महासुख की संज्ञा देता है |सोम को कापालिक [स अ उमा ]शक्ति सहित शिव का भी प्रतीक मानता है और उसके पान से उल्लसित हो योगिनी के साथ विहार करते हुए अपने को कैलास स्थित शिव उमा जैसा अनुभव करता है |मद्य ,मांस ,मत्स्य ,मुद्रा और मिथुन -इस पंचमकारों के साथ कापालिकों ,शाक्तों और वज्रयानी सिद्धों का समानतः सम्बन्ध था और पूर्व मध्यकाल की साधनाओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान था |
कापालिक साधना एक वाम मार्गीय तीव्र राभावी साधना पद्धति रही है जिससे इसके साधकों को अतुलनीय शक्तियां और सिद्धियाँ प्राप्त होती थी ,चूंकि यह कुंडलिनी से सम्बंधित साधना भी रही है और इसमें नारी को भी सहयोगिनी बनाया जाता रहा है ,इसलिए काआलिक साधना को विलास और वैभव का परिरूप मानकर आकर्षणबद्ध कई साधक इसमें शामिल हुए और उद्देश्य पवित्र न होने से उचित स्थान नहीं प्प्राप्त कर सके ,किन्तु उन्होंने इसे भोग का मार्ग बना दिया और इसके मूल स्वरुप को विकृत जरुर कर दिया |मूल कापालिक ,समाज से दूर रहा और धीरे -धीरे इन तथाकथित कापालिकों को देखकर निर्लिप्त होता गया और मूल साधना लगभग विलुप्त हो गई |मूल अर्थों में कापालिकों की चक्र साधना एक उत्तमोत्तम साधना थी किन्तु इसे भोग विलास तथा काम पिपासा शांत करने का साधन बना दिया गया |इसमें आई विकृतियों और भ्रष्ट साधकों के कारण धीरे -धीरे इस मार्ग को घृणा भाव से देखा जाने लगा |जो सही अर्थों में कापालिक थे ,उन्होंने पृथक -पृथक होकर व्यक्तिगत साधनाएं शुरू कर दी |आदि शंकराचार्य तक आते आते इसका मूल स्वरुप विलुप्त होकर विकृत रूप ही दिख रहा था |आदि शंकराचार्य ने कापालिक सम्प्रदाय में अनितिक आचरण का विरोध किया ,जिससे इस सम्प्रदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा नेपाल के सीमावर्ती इलाके में तथा तिब्बत में चला गया |यह सम्प्रदाय तिब्बत में लगातार गतिशील रहा ,जिससे की बौद्ध कापालिक साधना के रूप में यह सम्प्रदाय जीवित रह सका |
असंख्य इतिहारकार मानते हैं की इसी सम्प्रदाय से शैव -शाक्त -कौल मार्ग का प्रचालन हुआ |इस सम्प्रदाय से सम्बंधित साधनाएं अत्यधिक महत्वपूर्ण रही हैं |कापालिक चक्र में मुख्य साधक भैरव तथा साधिका को त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है ,तथा काम शक्ति के विभिन्न साधन से इनमे असीम शक्तियां आ जाती हैं |फल की इच्छा मात्र से अपने शारीरिक अवयवों पर नियंत्रण रखना या किसी भी प्रकार के निर्माण तथा विनाश करने की बेजोड़ शक्ति इस मार्ग से प्राप्त की जा सकती थी |इस मार्ग में कापालिक अपनी भैरवी साधिका को पत्नी के रूप में भी स्वीकार कर सकता था |इनके मठ जीर्ण शीर्ण अवस्था में उत्तरी पूर्व राज्यों में आज भी देखे जाते हैं |
कापालिक साधनाओं में महाकाली ,भैरव ,चाण्डाली ,चामुंडा ,शिव तथा त्रिपुरा जैसे देवी -देवताओं की साधना होती है |वहीं बौद्ध कापालिक साधना में वज्र भैरव ,महाकाल ,हेवज्रा जैसे तिब्बती देवी -देवताओं की साधना होती है |पहले के समय में मन्त्र मात्र से मुख्य कापालिक ,साथी कापालिकों की काम शक्ति को न्यूनता या उद्वेग देते थे ,जिससे योग्य मापदंड में यह साधना पूरी होती थी |इस प्रकार यह अद्भुत मार्ग लुप्त होते हुए भी गुप्त रूप से सुरक्षित तो है पर सामान्य के लिए अप्राप्य है |विभिन्न तांत्रिक मठों में आज भी गुप्त रूप से कापालिक अपनी तंत्र साधनाओं को करते हैं |
जो समाज में भैरवी साधना करने या करवाने के दावे कर रहे अथवा जो हिमालय क्षेत्र के विभिन्न मठों ,आश्रमों के नाम पर खुद को महागुरु रचारित कर रहे वास्तव में वह तो न भैरवी साधक हैं ,न कापालिक ,न कौल |यह केवल इन आश्रमों ,मठों के नाम पर समाज में व्यवसाय कर रहे हैं और लोगों को लूट रहे हैं |जो भोग लिप्सा ,कापालिक सम्प्रदाय को विकृत कर गई आज उससे बढ़कर बचे -खुचे तंत्र को भी यह महागुरु -घंटाल समाप्त करने पर अमादा हैं |भोली भाली जनता और लोग अपनी समस्याओं से निजात पाने अथवा शक्ति ,समृद्धि पाने के लालच में इनके हाथों मूर्ख बन रहे |वास्तव में जो साधक हैं वह खुद को न प्रचारित करते हैं ,न खुद को व्यक्त करते हैं |उनका तो बस एक ही लक्ष्य होता है अपनी मुक्ति |चूंकि उनके पास शक्ति और सिद्धि होती है अतः इस तरह प्रचार करने और दीक्षाएं बांटने की उन्हें जरुरत ही नहीं होती |वह तो समाज और लोगों से दूर खुद में रमा रहता है |समाज में रहने वाला कुंडलिनी साधक तक खुद को कभी व्यक्त नहीं करता |.......................................................हर- हर महादेव
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भारतीय साधना अथवा उपासना जगत में पांच सम्प्रदाय रहे हैं |शैव ,शाक्त ,वैष्णव ,सौर और गाणपत्य |सौर और गाणपत्य सम्प्रदाय को मानने वाले अब कम पाए जाते हैं जबकि वैष्णव सम्प्रदाय अधिकतर वैदिक मार्गी और कर्मकांड की प्रमुखता वाले सांसारिक लोग अथवा सन्यासी मानते हैं |तंत्र जगत में मूल रूप से शैव और शाक्त सम्प्रदाय हैं |इनमे कापालिक सम्प्रदाय के लोग शैव सम्प्रदाय के अंतर्गत आते हैं जिनके मुख्य आराध्य शिव हैं |ये लोग मानव खोपड़ियों को पात्र के रूप में उपयोग करते हैं और उसके माध्यम से ही खाते पीते हैं इसलिए इन्हें कापालिक कहा जाता है |माहेश्वर सम्प्रदाय के चार मूल सम्प्रदायों में कापालिक सम्प्रदाय भी है |इन्हें कापालिक शैव कहा जाता है | कापालिक संप्रदाय को महाव्रत-संप्रदाय भी माना जाता है। इसे तांत्रिकों का संप्रदाय माना गया है। नर कपाल धारण करने के कारण ये लोग कापालिक कहलाए। कुछ विद्वान इसे नहीं मानते हैं। उनके अनुसार कपाल में ध्यान लगाने के चलते उन्हें कापालिक कहा गया। पुराणों अनुसार इस मत को धनद या कुबेर ने शुरू किया था।
बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के संप्रदाय विद्यमान थे। सरबरतंत्र में 12 कापालिक गुरुओं और उनके 12 शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं। गुरुओं के नाम हैं- आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि। शिष्यों के नाम हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि। ये सब शिष्य तंत्र के प्रवर्तक रहे हैं।
कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय है जो अपुराणीय था |इन्होने भैरव तंत्र तथा कॉल तंत्र की रचना की |कापालिक सम्प्रदाय पाशुपत या शैव सम्प्रदाय का वह अंग है जिसमे वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है |कापालिक सम्प्रदाय के अंतर्गत नकुलीश तथा लकुलीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है |यह कहना कठिन है की लकुलीश [जिसके हाथ में लकुट ] हो ऐतिहासिक व्यक्ति था या काल्पनिक |इनकी मूर्तियाँ लकुट के साथ हैं ,इस कारण इन्हें लकुटीश कहते हैं |इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि में तो पाशुपत सम्प्रदाय की उत्पत्ति का समय ई.पू. दूसरी शताब्दी है ,किन्तु जिस तरह तांत्रिक सम्प्रदाय वैदिक युग में भी था उससे अनुमान है की यह इससे पूर्व गुप्त और समाज से दूर क्रियाशील था |
कापालिक सम्प्रदाय के रहन -सहन और साधना पद्धतियों से ज्ञात होता है की इसका मूल उद्गम हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र हैं |चूंकि यह मूलतः कुंडलिनी साधना से सम्बंधित सम्प्रदाय रहा है और यह तंत्र साधना से कुंडलिनी जागरण में विश्वास रखता है अतः इनकी पद्धतियाँ भी उसी अनुरूप हैं |पर्वतीय पर्यावरण के अनुरूप रहने के लिए इन्होने मांस- मदिरा और पंचमकार को अपनाया और काम भाव द्वारा कुंडलिनी जागरण को माध्यम बनाने से इन्होने मैथुन को इसमें स्थान दिया |ओंक पंचमकार उपयोग बहुत हद तक एक विशिष्ट वातावरण के अनुकूल रहने और ऊर्जा प्राप्ति के लिए था ,केवल मैथुन और मुद्रा कुंडलिनी साधना के लिए विशिष्ट आवश्यक तत्व के रूप में लिया गया था |किन्तु चूंकि बाद के अधिकतर वाम मार्गी पंथ और सम्प्रदाय इसी से विकसित हुए अतः सबमे यह आता गया और कुछ के अतिरिक्त अधिकतर में विकृत रूप लेता गया |
कापालिक मत में प्रचलित साधनाएं बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं ,अर्थात इनसे यह बौद्धों की वज्रयान सम्प्रदाय में भी गया ,चूंकि वजयाँ का भी उद्गम हिमालयीय क्षेत्र ही था |इनकी पद्धतिय अन्य शैव सम्प्रदायों और नाथ सम्प्रदाय में भी गयी |यक्ष -देव परम्परा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योकि तीनो में ही प्रायः कई देवता समान गुण -धर्म और स्वभाव के हैं |चर्याचर्यविनिश्चय की टीका में एक श्लोक आया है जिसमे प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत की स्त्रियों को स्त्री -जन -साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गयी |
पाशुपत सम्प्रदाय से ही कालमुख और कापालिक शाखाएं उद्भूत हुई |कालमुख मुख्य रूप से राज दरबारों और नगरों में सीमित रहा किन्तु कापालिक मत दक्षिण और उत्तर भारत में गुह्य साधना के रूप में फैला |कापालिकों के देवता माहेश्वर थे |गोरक्ष सिद्धांत संग्रह के अनुसार श्री नाथ के दूतों ने जब विष्णु के चौबीस अवतारों के कपाल काट लिए तब वे कापालिक कहलाये |इससे तथा बहुत सी अन्य कथाओं के द्वारा वैष्णव सम्प्रदाय से कापालिक या शैव सम्प्रदाय का विरोध लक्षित होता है |अधिकतर कहानियों में शिव को राक्षसों और दानवों का उपास्य देव बताया जाता है और उनकर शक्ति से वे देवताओं को भी पराजित करते हैं |यह भी इन्ही सम्प्रदायों की आपसी विरोधात्मक रचनाएँ हैं |आर्य विष्णु ,इंद्र ,रूद्र आदि के आराधक थे जबकि आर्येतर जातियां शिव जैसे देवता की उपासना करती थी |बाद में भक्तिवाद का प्रभाव शैव धर्म पर पड़ा और वैदिक देवता तथा आर्येतर स्रोत के देवता एक हो गए |रूद्र को शिव कहा जाने लगा और अन्य देवताओं को भी आपस में मिला दिया गया |वैदिक कर्मकांड ,तंत्र में घुस गया |भक्तिवादी उपासना में शिव उदार और भक्त वत्सल चित्रित किये गए |गुह्य साधनाओं में शिव का आदिम रूप न्यूनाधिक रूप में विद्यमान रहा जिसके अनुसार वे विलासी और घोर क्रियाकलापों से सम्बद्ध थे |
बौद्ध सम्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्री साहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गयी है और बौद्ध साधक अपने को कपाली कहते थे |[चर्यापद ११ ,चर्या -गीत -कोष ]|यह प्रकट करता है की बौद्ध सम्प्रदाय से पहले से कापालिक सम्प्रदाय था और बौद्ध सम्प्रदाय ने इनके काफी कुछ नियम और पद्धतियाँ अपनी साधनाओं में ली हैं |प्राचीन साहित्य [जैसे मालती माधव ]में कपाल कुंडला और अघोरघंट का उल्लेख आया है |इस ग्रन्थ से कापालिक मत के सम्बन्ध में कुछ स्थूल तथ्य स्थिर किये जा सकते हैं |कापालिक मत ,नाथ संप्रदायियों और हठ योगियों की तरह चक्र और नाड़ियों में विश्वास करता था |उसमे जीव और शिव में अभिन्नता मानी गयी है |
योग से ही शिव का साक्षात्कार संभव है |शिव का शक्ति संयुक्त रूप ही समर्थ और प्रभावकारी है |शिव और शक्ति के इस मिलनसुख को ही कापालिक अपपनी कपालिनी के माध्यम से अनुभव करता है जिसे वह महासुख की संज्ञा देता है |सोम को कापालिक [स अ उमा ]शक्ति सहित शिव का भी प्रतीक मानता है और उसके पान से उल्लसित हो योगिनी के साथ विहार करते हुए अपने को कैलास स्थित शिव उमा जैसा अनुभव करता है |मद्य ,मांस ,मत्स्य ,मुद्रा और मिथुन -इस पंचमकारों के साथ कापालिकों ,शाक्तों और वज्रयानी सिद्धों का समानतः सम्बन्ध था और पूर्व मध्यकाल की साधनाओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान था |
कापालिक साधना एक वाम मार्गीय तीव्र राभावी साधना पद्धति रही है जिससे इसके साधकों को अतुलनीय शक्तियां और सिद्धियाँ प्राप्त होती थी ,चूंकि यह कुंडलिनी से सम्बंधित साधना भी रही है और इसमें नारी को भी सहयोगिनी बनाया जाता रहा है ,इसलिए काआलिक साधना को विलास और वैभव का परिरूप मानकर आकर्षणबद्ध कई साधक इसमें शामिल हुए और उद्देश्य पवित्र न होने से उचित स्थान नहीं प्प्राप्त कर सके ,किन्तु उन्होंने इसे भोग का मार्ग बना दिया और इसके मूल स्वरुप को विकृत जरुर कर दिया |मूल कापालिक ,समाज से दूर रहा और धीरे -धीरे इन तथाकथित कापालिकों को देखकर निर्लिप्त होता गया और मूल साधना लगभग विलुप्त हो गई |मूल अर्थों में कापालिकों की चक्र साधना एक उत्तमोत्तम साधना थी किन्तु इसे भोग विलास तथा काम पिपासा शांत करने का साधन बना दिया गया |इसमें आई विकृतियों और भ्रष्ट साधकों के कारण धीरे -धीरे इस मार्ग को घृणा भाव से देखा जाने लगा |जो सही अर्थों में कापालिक थे ,उन्होंने पृथक -पृथक होकर व्यक्तिगत साधनाएं शुरू कर दी |आदि शंकराचार्य तक आते आते इसका मूल स्वरुप विलुप्त होकर विकृत रूप ही दिख रहा था |आदि शंकराचार्य ने कापालिक सम्प्रदाय में अनितिक आचरण का विरोध किया ,जिससे इस सम्प्रदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा नेपाल के सीमावर्ती इलाके में तथा तिब्बत में चला गया |यह सम्प्रदाय तिब्बत में लगातार गतिशील रहा ,जिससे की बौद्ध कापालिक साधना के रूप में यह सम्प्रदाय जीवित रह सका |
असंख्य इतिहारकार मानते हैं की इसी सम्प्रदाय से शैव -शाक्त -कौल मार्ग का प्रचालन हुआ |इस सम्प्रदाय से सम्बंधित साधनाएं अत्यधिक महत्वपूर्ण रही हैं |कापालिक चक्र में मुख्य साधक भैरव तथा साधिका को त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है ,तथा काम शक्ति के विभिन्न साधन से इनमे असीम शक्तियां आ जाती हैं |फल की इच्छा मात्र से अपने शारीरिक अवयवों पर नियंत्रण रखना या किसी भी प्रकार के निर्माण तथा विनाश करने की बेजोड़ शक्ति इस मार्ग से प्राप्त की जा सकती थी |इस मार्ग में कापालिक अपनी भैरवी साधिका को पत्नी के रूप में भी स्वीकार कर सकता था |इनके मठ जीर्ण शीर्ण अवस्था में उत्तरी पूर्व राज्यों में आज भी देखे जाते हैं |
कापालिक साधनाओं में महाकाली ,भैरव ,चाण्डाली ,चामुंडा ,शिव तथा त्रिपुरा जैसे देवी -देवताओं की साधना होती है |वहीं बौद्ध कापालिक साधना में वज्र भैरव ,महाकाल ,हेवज्रा जैसे तिब्बती देवी -देवताओं की साधना होती है |पहले के समय में मन्त्र मात्र से मुख्य कापालिक ,साथी कापालिकों की काम शक्ति को न्यूनता या उद्वेग देते थे ,जिससे योग्य मापदंड में यह साधना पूरी होती थी |इस प्रकार यह अद्भुत मार्ग लुप्त होते हुए भी गुप्त रूप से सुरक्षित तो है पर सामान्य के लिए अप्राप्य है |विभिन्न तांत्रिक मठों में आज भी गुप्त रूप से कापालिक अपनी तंत्र साधनाओं को करते हैं |
जो समाज में भैरवी साधना करने या करवाने के दावे कर रहे अथवा जो हिमालय क्षेत्र के विभिन्न मठों ,आश्रमों के नाम पर खुद को महागुरु रचारित कर रहे वास्तव में वह तो न भैरवी साधक हैं ,न कापालिक ,न कौल |यह केवल इन आश्रमों ,मठों के नाम पर समाज में व्यवसाय कर रहे हैं और लोगों को लूट रहे हैं |जो भोग लिप्सा ,कापालिक सम्प्रदाय को विकृत कर गई आज उससे बढ़कर बचे -खुचे तंत्र को भी यह महागुरु -घंटाल समाप्त करने पर अमादा हैं |भोली भाली जनता और लोग अपनी समस्याओं से निजात पाने अथवा शक्ति ,समृद्धि पाने के लालच में इनके हाथों मूर्ख बन रहे |वास्तव में जो साधक हैं वह खुद को न प्रचारित करते हैं ,न खुद को व्यक्त करते हैं |उनका तो बस एक ही लक्ष्य होता है अपनी मुक्ति |चूंकि उनके पास शक्ति और सिद्धि होती है अतः इस तरह प्रचार करने और दीक्षाएं बांटने की उन्हें जरुरत ही नहीं होती |वह तो समाज और लोगों से दूर खुद में रमा रहता है |समाज में रहने वाला कुंडलिनी साधक तक खुद को कभी व्यक्त नहीं करता |.......................................................हर- हर महादेव
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