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वेदों की रचना
मानव मष्तिष्क की उन्नतता का प्रमाण है |वेद केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं अपितु इनमे
ब्रह्माण्ड का सनातन सूत्र संगृहीत है |ब्रह्मांडीय ऊर्जा विज्ञान का मूल सूत्र और
प्रकृति वेदों में है |वेदों की रचना के पूर्व भी इनकी जानकारी प्राचीन ऋषियों को
इन सूत्रों इन विज्ञानों की जानकारी थी |वेद इनका समग्र संकलन हैं |वैदिक काल और
और उसके पूर्व से भी समान्तर रूप से तंत्र का भी ज्ञान था |वेदों में इनका उल्लेख
इसका प्रमाण है |इसका प्रमाण यह भी है की यही समातन सूत्र तंत्र का भी सूत्र है
|कुछ अति ज्ञानी तंत्र को बाद का और वंचितों -जंगलियों की विद्या भी साबित करने का
प्रयास करते हैं |भ्रम फैलाने और विरोध की भावना के कारण अनेक उदाहरण और
अज्ञानतापूर्ण बातें फैलाते हैं |किन्तु हकीकत यही है की वैदिक और तांत्रिक धारा
एक साथ बहती रही है |
प्राचीन काल से ही दो प्रकार की पद्धतियों का प्रचालन रहा है जैसा की आज
भी है |सामान्य गृहस्थ जिस पद्धति पर चलता है साधू-सन्यासी-विरक्त उस पद्धति पर नहीं चलते |उनकी आवश्यकताएं भी भिन्न होती हैं और
सरोकार भी |शुरू से ऐसा रहा है |पुर्व काल में वर्ण व्यवस्था थी और वानप्रस्थ और
संन्यास आश्रम की अवधारणा थी |जिनमे व्यक्ति की आवश्यकताएं बदल जाती थी |ऐसे में
क्या वाही साधना-आराधना पद्धति उपयोगी रही होगी जो एक गृहस्थ
के लिए होती है |गृहस्थ की आवश्यकताएं भौतिक जगत से जुडी होती हैं जबकि सन्यासी
मुक्ति चाहता है |वेदों का उद्देश्य लौकिक जगत में रहने वालों को सनातन सूत्रों का
ज्ञान कराना रहा होगा ,क्योकि उनके पास जिम्मेदारियां अधिक थी और समय का अभाव ,ऐसे
में उनके लिए सूत्रों -ज्ञानों का संकलन उपयुक्त था जबकि सन्यासी और आश्रम में
रहने वालों को तो स्वयमेव यह ज्ञान गुरुओं से मिल जाता था गुरु परम्परा से |ध्यान
देने योग्य है की वेद भौतिक जगत की बहुत सी विधाओं से जुड़े हुए हैं ,इनमे विज्ञान ,अध्यात्म
,धर्म ,चिकित्सा ,ज्योतिष ,कर्मकांड ,राजनीति ,सामाजिकता सब कुछ हैं और सबके नियम-सूत्र हैं |इनमे से अधिकतर की आवश्यकता विरक्त और सन्यासी को नहीं होती |उसे
तो ऊर्जा और मुक्ति से ही मतलब होता है |ऐसे में उसके लिए जिस पद्धति का प्राचीन
वैदिक ऋषियों ने विकास किया था वह तंत्र था |इसका ज्ञान समाज को बहुत कम था क्योकि
यह शक्ति का मार्ग था जिसका दुरुपयोग भी संभव था और उस समय बहुत मतलब इसका समाज से
नहीं था ,क्योकि यह ऊर्जा को मुक्ति में उपयोग करने का माध्यम था और गृहस्थ को एक
निश्चित समय बाद ही इसकी अनुमति थी |अतः तंत्र बेहद गोपनीय और केवल गुरु परम्परा
से संचालित होता था |इसके यत्र तत्र प्रमाण इसी का संकेत करते हैं |यह अवश्य है की
उस समय तंत्र केवल एक परम शक्ति की साधना और ऊर्जा प्राप्ति से मुक्ति का मार्ग
प्रशस्त करने का माध्यम था |शक्ति स्वरूपों का विकास वेद और उपनिषदों में और उसके
बाद के काल में बढ़ता गया |अगर पहले से न भी माने तो भी तंत्र का मूल स्रोत वेद है |ऋग्वेद के वागाम्भ्रिणी सूक्त [१०/१२५] में जिस शक्ति का प्रतिपादन किया गया है ,तंत्र
उसी शक्ति की एकमात्र साधना है |भारत में अत्यंत प्राचीन काल से साधना की दो
धाराएं प्रवाहित होती चली आ रही हैं |पहलों है वैदिक धारा और दूसरी है तांत्रिक
धारा |
वैदिक
धारा सर्वसाधारण के लिए साधना के सिद्धांतों का प्रतिपादन करती है ,जबकि तांत्रिक
धारा चुने हुए अधिकारियों के लिए गुप्त साधना का उपदेश देती है |एक वाह्य है दूसरी
आभ्यंतरिक |परन्तु दोनों धाराएँ प्रत्येक काल में और प्रत्येक अवस्था में साथ साथ
विद्यमान रही हैं |इसीलिए जिस काल में वैदिक यज्ञ याग अपनी चरम सीमा पर थे उस समय
भी तांत्रिक साधना उपासना का वर्चास्वा कम नहीं था |इसी प्रकार कालान्तर में जब
तंत्र का प्रचार-प्रसार प्रबल हुआ
उस समय भी वैदिक कर्मकांड विस्मृति के गर्भ में विलीन नहीं हुआ |वैदिक और तांत्रिक
साधना उपासना की समकालीनता का पूर्ण परिचय हमें उपनिषदों में प्राप्त होता है
,यद्यपि तंत्र के विवरण वेदों में भी मिलते हैं |शक्ति साधना -उपासना के अनेक
प्रमाण प्रागैतिहासिक सिंधुघाटी सभ्यता काल में प्राप्त होते हैं |इनके प्रमाण
मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से
प्राप्त सामग्री में भी मिलते हैं |सर्व प्राचीन वेद ऋग्वेद है और ऋग्वेद में
शक्ति का सर्वप्रथम वर्णन वेदवाणी सरस्वती के रूप में किया गया है |तदनंतर नदी और
देवता के रूप में |सरस्वती के बाद बहुवर्णीत शक्ति उषा और अदिति हैं |अदिति का
माता के रूप में वर्णन है |वह सम्पूर्ण भूतों की जननी हैं |इसके प्रकाशवान पुत्र
आदित्य यानी सूर्य हैं |वैदिक वांग्मय की गरिमामयी और साथ ही महिमामयी शक्ति
रात्री है ,जो तंत्र भूमि की पराशक्ति अथवा प्रभुशक्ति काली है |वेदों के बाद
ब्राह्मण ,आरण्यक और उपनिषदों का क्रम आता है जिनमे शक्ति को गायत्री ,सावित्री
,दुर्गा ,राधा ,सुभगा ,सुंदरी ,अम्बा ,अम्बिका आदि रूपों में चित्रित किया गया है
|
इस
प्रकार तंत्र का प्रादुर्भाव वैदिक काल में ही हो गया था किन्तु इसका उपयोग करने
वाले विरक्त-सन्यासी-बैरागी-साधक आदि थे जो समाज से निर्लिप्त रहते थे अतः समाज को इसकी जानकारी नहीं
थी या बहुत कम थी |क्योकि यह ऊर्जा प्राप्ति का शशक्त माध्यम था और इसके बहुयायामी
उपयोग हो सकते थे अतः इसमें गंभीर गोपनीयता का भी समावेश था |जो जानते भी थे वह
इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहते थे इसके अपने कारण थे और आवश्यक भी थे |समाज को तो
लौकिक महत्व की वस्तुओं से मतलब था ,जबकि उस समय तंत्र मुक्ति का मार्ग था |आज भी
मूलतः तंत्र मुक्ति का ही मार्ग है ,किन्तु इसके शक्तियों को आज समाज और व्यक्ति
हेतु भी उपयोग किया जाने लगा है ,जो की इसका मूल उद्देश्य है ही नहीं |यह सब बाद
में समाज में विकृति और राजाओं के अत्याचार अथवा असरदार के अत्याचार -वंचना के
कारण तंत्र की शरण में जाने और उसका भौतिक जरूरतों हेतु उपयोग का परिणाम है |यह सब
पौराणिक काल में अधिक हुआ और इसीकारण बहुत सारी शक्तियों की परिकल्पना और जोड़-तोड़ हुए |विभिन्न पद्धतियों का विकास हुआ
|.............................................................................हर-हर महादेव
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