Thursday 26 March 2020

षोडशी यन्त्र धारण से सर्व कष्ट निवारण होता है .

::::धारण करें षोडशी यन्त्र और रहें सुखी- संपन्न ::::
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           षोडशी [त्रिपुरसुन्दरी ]दश महाविद्या में से एक प्रमुख महाविद्या है और श्री कुल की अधिष्ठात्री हैं ,इनकी साधना से धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष चारो पुरुषार्थो की प्राप्ति होती है ,ऐसा कुछ भी नहीं जो ये देने में सक्षम नहीं ,ब्रह्मा-विष्णु-रूद्र और यम चारो इनके अधीन हैं ,ये अन्य साधनाओ में भी पूर्णता देने में समर्थ हैं |दुःख-दैन्य-किसी प्रकार की न्यूनता ,अभाव ,पीड़ा ,बाधा सभी को एक ही बार में समाप्त करने में सक्षम हैं ,इनकी साधना से कायाकल्प भी होता है ,यह सौंदर्य ,पुरुषत्व,हिम्मत, साहस ,बल ,ओज ,भी देती हैं |
           षोडशी यन्त्र भगवती त्रिपुरसुंदरी [श्री विद्या ] का यन्त्र है ,जिसमे उनका अपने परिवार देवताओं के साथ वास होता है ,यह यन्त्र विशिष्ट मुहूर्त में और श्री विद्या साधक द्वारा ही निर्मित होता है ,तत्पश्चात प्राण प्रतिष्ठा ,मंत्र जप और हवन से इसे उर्जिकृत किया जाता है ,,यन्त्र धारण से शारीरिक  उर्जा ,धन-संमृद्धि-संपत्ति ,साधन सम्पन्नता ,हिम्मत, साहस, बल, ओज, पौरुष, प्राप्त होता है , ,आय के नए स्रोत बनते है ,अकस्मात् धन प्राप्ति की सम्भावना बनती है, दुःख-दारिद्र्य .रोग-शोक, समाप्त होते हैं ,सुरक्षा प्राप्त होती हैं ,किसी प्रकार की अशुभता का शमन होता है ,सौभाग्य वृद्धि होती है ,ग्रह बाधा का शमन होता है ,रुकावटें दूर होती हैं ,विजय प्राप्त होती है ,यश-मान सम्मान-प्रतिष्ठा ,पुत्र पौत्रादि की उन्नति प्राप्त होती है ,कलह -कटुता का प्रभाव कम होकर खुशहाली प्राप्त होती है ,मानसिक शांति प्राप्त होती है |
यदि आप पर या घर पर नकारात्मक उर्जाओं का प्रभाव है ,दुःख-दरिद्रता से ग्रस्त हैं ,बनते काम बिगड़ रहे हैं ,रोग-शोक-कलह बढ़ गए हों ,आर्थिक-व्यावसायिक समस्याएं उत्पन्न हों ,अनेकानेक समस्याएं घर-परिवार में उत्पन्न हों तो एक बार अवश्य किसी अच्छे साधक से भोजपत्र पर निर्मित षोडशी यन्त्र चांदी के कवच में धारण करें |आपकी सारी समस्याएं क्रमशः दूर होने लगेंगी |यह अनेक बार हमारे द्वारा अनुभूत और परीक्षित है |हमने अनेकों को विभिन्न समस्याओं में इसे धारण कराया है और अब तक शत-प्रतिशत सफलता मिली है |बिगड़े बच्चों को धारण कराने से उनमे सुधार आया है जो की परिवार के सम्मान को ठेस लगाकर गलत कार्य की और झुके थे ,व्यावसायिक उतार-चढ़ाव से ग्रस्त लोगों को धारण करने पर उनके कार्य-व्यवसाय में स्थिरता प्राप्त हुई है ,पारिवारिक समस्याओं में उत्तम परिणाम प्राप्त हुए हैं |प्रत्येक क्षेत्र में सफलता बढ़ी है |घर के कलह-तनाव को दूर करने में मदद मिली है ,आया के नए स्रोत बनाने अथवा परीक्षा-शिक्षा में सफलता बढ़ी है |अतः यह अनुभूत प्रयोग है |यह अगर श्री विद्या के सिद्ध साधक द्वारा स्वयं बनाया जाता है और षोडशी मंत्र से अभिमंत्रित किया जाता है तो इससे अद्भुत परिणाम मिलते हैं |आश्चर्यजनक रूप से स्थितियां नियंत्रण में आती हैं और लाभ प्राप्त होते हैं जीवन के हर क्षेत्र में |,......................................................हर-हर महादेव 

श्री यन्त्र को आप कितना जानते हैं ?

श्री यन्त्र :: ब्रह्माण्ड का ऊर्जा स्वरुप      
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श्री यंत्र या श्री चक्र एक मूल आकृति या यंत्र है ब्रह्मांडीय मूल ऊर्जा या शक्ति का |इसकी आराधना से ,साधना से मूल आदि शक्ति का साक्षात्कार होता है |यह सभी महान लोगों द्वारा पूजित यंत्र है |यहाँ तक की विज्ञानियों द्वारा भी अनुमोदित मूल आकृति है |श्री चक्र एक यंत्र है जिसका प्रयोग श्री विद्या की प्राप्ति में होता है |इसे श्री चक्र ,श्री यंत्र ,नव चक्र और महामेरु भी कहते हैं |यह सभी यंत्रों में शिरोमणि यन्त्र हैं और इसे यंत्रराज कहा जाता है। वस्तुतः यह एक एक जटिल ज्यामितीय आकृति है। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी भगवती त्रिपुर सुंदरी हैं। श्री यंत्र की स्थापना और पूजा से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। नवरात्रि, धनतेरस के दिन श्रीयंत्र का पूजन करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं।
श्री यन्त्र एक मात्र ऐसा यन्त्र है जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर सर्वत्र पाया जाता है किसी न किसी रूप में |अभी हाल ही में इनकी आकृति स्वयमेव अमेरिका की जमीन पर एक बड़े भूभाग पर उभर आई जिसको हवाई जहाज से देखा गया और वैज्ञानिकों की समझ में नहीं आया की एक दिन में ऐसा यन्त्र आकृति इतने बड़े भूभाग में कैसे चित्रित हो गई जमीन पर |गूगल पर इसके चित्र उपलब्ध हैं |माना जाता है की यह किसी अन्य ग्रह या लोक के किसी शक्ति शक्ति द्वारा चित्रित कर दी गई |श्री यन्त्र ब्रह्माण्ड में सर्वत्र पाया जाता है |आपको जानकार आश्चर्य होगा की ॐ की ध्वनि से जो तरंगीय आकृति उभरती है वह श्री यन्त्र की होती है |जैसे ॐ आदि ध्वनि और मूल ध्वनि है वैसे ही श्री चक्र या श्री यंत्र मूल आकृति है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की |यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा संरचना की आकृति और संकेतक है |श्री स्सोक्त का पाठ वैदिक काल से होता रहा है ,वस्तुतः यह भी श्री चक्र अथवा श्री विद्या की ओर संकेत करता है की यह मूल आदि शक्ति है |साधकों में चक्र साधना ,चक्र निर्माण ,ज्यामितीय यंत्रादी का प्रयोग श्री चक्र से जुड़ा है और सभी देवी -देवताओं का श्री चक्र में स्थान है |
 श्री यंत्र के केन्द्र में एक बिंदु है। इस बिंदु के चारों ओर 9 अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो नवशक्ति के प्रतीक हैं | इन नौ त्रिभुजों के अन्तःग्रथित होने से कुल ४३ लघु त्रिभुज बनते हैं | इस यन्त्र में अद्दृश्ये रूप से २८१६ देवी देवता विद्धमान है |श्री यन्त्र तीनो लोको का प्रतीक है इसलिए इसे त्रिपुर चक्र भी कहा जाता है  | श्री यन्त्र का स्वरुप मनोहर व् विन्यास विचित्र है,  इसके बीचो बीच बिंदु और सबसे बाहर भूपुर है भूपुर के चारो और चार द्वार है बिंदु से भूपुर तक कुल दस अवयव है -बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, बहिदारशर, चतुर्दर्शार, अष्टदल, षोडशदल, तीन वृत, तीन भूपुर  | इस श्री यन्त्र की आराधना साधना आदि शंकराचार्य द्वारा भी की गई और उनके द्वारा स्थापी सभी पीठों की अधिष्ठात्री भगवती त्रिपुर सुंदरी है और श्री यन्त्र उनकी आराधना साधना का मुख्य यंत्र |
 श्री यंत्र की आराध्या देवी श्री त्रिपुर सुन्दरी देवी मानी जाती हैं।इन्ही का नाम श्री विद्या ,ललिता त्रिपुर सुंदरी ,बाला त्रिपुर सुन्दरी ,षोडशी आदि भी है | पौष मास की सक्रांति के दिन और वह भी रविवार को बना हुआ श्रीयंत्र बेहद दुर्लभ और सर्वोच्च फल देने वाला होता है, लेकिन ऐसा ना होने पर आप किसी भी माह की सक्रांति के दिन या शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन इस यंत्र का निर्माण कर सकते हैं। यह यंत्र ताम्रपत्र (तांबे की प्लेट), रजतपत्र या स्वर्ण-पत्र पर ही बना होना चाहिए।
श्री यन्त्र मूलतः श्री विद्या त्रिपुर सुन्दरी का यन्त्र है ,तथापि श्रीयंत्र की पूजा के लिए लक्ष्मी जी के बीज मंत्र "ऊं श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊं महालक्ष्मै नम:" का प्रयोग भी हो सकता है, और अद्भुत लाभ भी मिलता है  |अधिकतर लोग श्री यन्त्र को कमला या लक्ष्मी का ही यन्त्र समझते हैं और उन्हें फल भी प्राप्त होता है |क्यंकि कमला जो लक्ष्मी का रूप है श्री कुल की ही महाविद्या हैं और इनकी पूजा श्री चक्र में होती भी है और की भी जा सकती है |कथानुसार महात्रिपुर सुन्दरी ने प्रसन्न होकर अपना श्री उपाधि लक्ष्मी को प्रदान की थी ,तबसे लक्ष्मी ,श्री लक्ष्मी कहलाने लगी |अतः लक्ष्मी ,कमला ,त्रिपुरा श्री विद्या सभी की आराधना श्री चक्र पर हो सकती है |यहाँ तक की सभी महाविद्याओं की भी |
स्फटिक के श्री यन्त्र को शंख से श्री सूक्त पढ़ते हुए पंचाम्रत अभिषेक करने से अतुल वैभव के प्राप्ति होती है |
इस यंत्र को अपनाने से समस्त सुख व समृद्धि प्राप्त होती है | निर्धन धनवान बनता है और अयोग्य योग्य बनता है. |इसकी उपासना से व्यक्ति कि मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.| इस यंत्र को समस्त यंत्र में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है.
स्फटिक श्री यंत्र ऎश्वर्यदाता और लक्ष्मीप्रदाता है.| यह यंत्र आय में वृद्धि कारक व व्यवसाय में सफलता दिलाने वाला होता है.| आज के समय में स्थाई धन की अभिलाषा सभी के मन में देखी जा सकती है.| अधिकतर व्यक्ति कितना भी कमाएं परंतु धन उनके पास जमा नहीं हो पाता व्यय बने ही रहते हैं |. धन का संचय कर पाना कठिन काम हो जाता है |
श्री यन्त्र की साधना ,उपासना ,अर्चन की विधि बहुत गूढ़ और क्लिष्ट है और कहा जाता है की बिना गुरु दीक्षा के इसका पूजन नहं करना चाहिए ,किन्तु फिर भी सामान्य रूप से भी पूजित श्री यन्त्र अत्यंत प्रभावशाली और प्रभावकारी होता ही है |श्री विद्या के मूल षोडशी मन्त्र की साधना और विशिवत श्री चक्र की साधना ,अर्चन गुरु परम्परा और गुरु दीक्षा के द्वारा ही होती है |कहा जाता है की षोडशी मंत्र बिना योग्य गुरु की दीक्षा के नहीं करना चाहिए |किन्तु केवल श्री यन्त्र की पूजा और श्री सूक्त का पाठ ,श्री यंत्र अभिषेक ,कमला मंत्र जप ,लक्ष्मी मंत्र जप इस पर हो सकते हैं और यह तीब्र लाभकारी भी होते हैं |इसका किसी भी रूप में उपयोग कल्याणकारी होता है |.................................................................हर-हर महादेव 

श्रीविद्या [ त्रिपुरसुन्दरी ] साधना

श्रीविद्या [ त्रिपुरसुन्दरी ] साधना 
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श्रीविद्या साधना भारतवर्ष की परम रहस्यमयी सर्वोत्कृष्ट साधना प्रणाली मानी जाती है। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म आदि समस्त साधना प्रणालियों का समुच्चय (सम्मिलित रूप) ही श्रीविद्या-साधना है। जिस प्रकार अपौरूषेय वेदों की प्रमाणिकता है उसी प्रकार शिव प्रोक्त होने से आगमशास्त्र (तंत्र) की भी प्रमाणिकता है। सूत्ररूप (सूक्ष्म रूप) में वेदों में, एवं विशद्रूप से तंत्र-शास्त्रों में श्रीविद्या साधना का विवेचन है।
शास्त्रों में श्रीविद्या के बारह उपासक बताये गये है- मनु, चन्द्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य अग्नि, सूर्य, इन्द्र, स्कन्द, शिव और दुर्वासा ये श्रीविद्या के द्वादश उपासक है। श्रीविद्या के उपासक आचार्यो में दत्तात्रय, परशुराम, ऋषि अगस्त, दुर्वासा, आचार्य गौडपाद, आदिशंकराचार्य, पुण्यानंद नाथ, अमृतानन्द नाथ, भास्कराय, उमानन्द नाथ प्रमुख है। इस प्रकार श्रीविद्या का अनुष्ठान चार भगवत् अवतारों दत्तात्रय, श्री परशुराम, भगवान ह्यग्रीव और आद्यशंकराचार्य ने किया है। श्रीविद्या साक्षात् ब्रह्मविद्या है।
समस्त ब्रह्मांड प्रकारान्तर से शक्ति का ही रूपान्तरण है। सारे जीव-निर्जीव, दृश्य-अदृश्य, चल-अचल पदार्थो और उनके समस्त क्रिया कलापों के मूल में शक्ति ही है। शक्ति ही उत्पत्ति, संचालन और संहार का मूलाधार है। जन्म से लेकर मरण तक सभी छोटे-बड़े कार्यो के मूल में शक्ति ही होती है। शक्ति की आवश्यक मात्रा और उचित उपयोग ही मानव जीवन में सफलता का निर्धारण करती है, इसलिए शक्ति का अर्जन और उसकी वृद्धि ही मानव की मूल कामना होती है। धन, सम्पत्ति, समृद्धि, राजसत्ता, बुद्धि बल, शारीरिक बल, अच्छा स्वास्थ्य, बौद्धिक क्षमता, नैतृत्व क्षमता आदि ये सब शक्ति के ही विभिन्न रूप है। इन में असन्तुलन होने पर अथवा किसी एक की अतिशय वृद्धि मनुष्य के विनाश का कारण बनती है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि शक्ति की प्राप्ति पूर्णता का प्रतीक नहीं है, वरन् शक्ति का सन्तुलित मात्रा में होना ही पूर्णता है। शक्ति का सन्तुलन विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। वहीं इसका असंतुलन विनाश का कारण बनता है। समस्त प्रकृति पूर्णता और सन्तुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है। जीवन के विकास और उसे सुन्दर बनाने के लिये धन-ज्ञान और शक्ति के बीच संतुलन आवश्यक है। श्रीविद्या-साधना वही कार्य करती है, श्रीविद्या-साधना मनुष्य को तीनों शक्तियों की संतुलित मात्रा प्रदान करती है और उसके लोक परलोक दोनों सुधारती है।
श्रीविद्या-साधना ही एक मात्र ऐसी साधना है जो मनुष्य के जीवन में संतुलन स्थापित करती है। श्रीविद्या-साधना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अत्यंत सरल, सहज और शीघ्र फलदायी है। सामान्य जन अपने जीवन में बिना भारी फेरबदल के सामान्य जीवन जीते हुवे भी सुगमता पूर्वक साधना कर लाभान्वित हो सकते है। यह साधना व्यक्ति के सर्वांगिण विकास में सहायक है। कलियुग में श्रीविद्या की साधना ही भौतिक, आर्थिक समृद्धि और मोक्ष प्राप्ति का साधन है। देवताओं और ऋषियों द्वारा उपासित श्रीविद्या-साधना वर्तमान समय की आवश्यकता है। यह परमकल्याणकारी उपासना करना मानव के लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। आज के युग में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, अशांति, सामाजिक असंतुलन और मानसिक तनाव ने व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमताओं को कुण्ठित कर दिया है। श्रीविद्या-साधक के जीवन में भी सुख-दुःख का चक्र तो चलता है, लेकिन अंतर यह है कि श्रीविद्या-साधक की आत्मा व मस्तिष्क इतने शक्तिशाली हो जाते है कि वह ऐसे कर्म ही नहीं करता कि उसे दुःख उठाना पड़े किंतु फिर भी यदि पूर्व जन्म के संस्कारों, कर्मो के कारण जीवन में दुःख संघर्ष है तो वह उन सभी विपरीत परिस्थितियों से आसानी से मुक्त हो जाता है। वह अपने दुःखों को नष्ट करने में स्वंय सक्षम होता है |…………………………………………..हर-हर महादेव

श्री यन्त्र में श्री विद्या त्रिपुर सुंदरी

श्री यन्त्र और श्री विद्या त्रिपुर सुंदरी
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श्रीयंत्र को यंत्रराज भी कहा जाता है। मंत्रों में गायत्री मंत्र को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है तो यंत्रों में श्रीयंत्र को सर्वोत्तम माना जाता है। भगवती त्रिपुरसुंदरी की साधना (श्रीयंत्र साधना) सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ साधना है। अनेक साधकों, गृहस्थों, संन्यासियों ने खुले हृदय से स्वीकार किया है कि यह साधना कलियुग में कामधेनु के समान है। यह एक ऐसी साधना है, जो साधन को पूर्ण मान-सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाती है
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भगवती त्रिपुरसुंदरी की उपासना श्रीयंत्र में की जाती है, जिसे श्री चक्र भी कहा जाता है। यह श्रीयंत्र अथवा श्रीचक्र भगवान शिव और मां शिवा दोनों का शरीर है, जिसमें ब्रह्मांड और पिंडांड की ऐक्यता है। एक बार जब भगवान ने सभी मंत्रों को दैत्यों द्वारा दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया था, तब महर्षि दत्तात्रेय ने ज्यामितीय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, चाप अर्धवृत्त, चतुष्कोण आदि को आधार बनाकर बीज मंत्रों से इष्ट शक्तियों की पूजा हेतु यंत्रों का आविष्कार किया। इसलिए महर्षि दत्तात्रेय को श्रीविद्या एवं श्रीयंत्र का जनक कहा जाता है। यह विश्व ही श्री विद्या का गृह है।
त्रिपुरसुंदरी चक्र ब्रह्मांडाकार है। इस यंत्र की रचना दो त्रिकोणों की परस्पर संधि से होती है, जो एक दूसरे से मिले रहते हैं। इससे ब्रह्मांड में पिंड का और पिंडांड में ब्रह्मांड का ज्ञान होता है। यह यंत्र शिव और शक्ति की एकात्मता को भी प्रदर्शित करता है। सही शब्दों में यंत्र-पूजा देव शक्ति को आबद्ध करने का सर्वोत्तम आधार है, जिसमें श्रीयंत्र पूर्णतः सफल है। एक स्थान पर स्वयं भगवान आद्य शंकराचार्य ने कहा है कि ‘मेरे संपूर्ण साधना-जीवन का सारांश यह है कि संसार की समस्त साधनाओं में त्रिपुरसुंदरी साधना स्वयं में पूर्ण है, अलौकिक है, अद्वितीय है और आश्चर्यजनक रूप से सिद्धि प्रदान करने वाली है।’ श्रीयंत्र की साधना किसी भी आयु, वर्ग अथवा जाति का साधक कर सकता है।
श्रीयंत्र के संबंध में आवश्यक सावधानियां -
श्रीयंत्र प्राप्त करते समय एवं पूजन के संबंध में साधकों को निम्नलिखित कुछ विशिष्ट बातों का ध्यान रखना चाहिए। श्रीयंत्र पूर्णतः शुद्ध एवं प्रामाणिक होना चाहिए। यदि श्रीयंत्र किसी धातु-पत्र पर बना हो तो वह उत्कीर्ण अथवा धंसी हुई रेखाओं में नहीं, बल्कि उभरी हुई रेखाओं में हो। यदि वह मणि, अथवा शिला का बना हो और मेरु आकार का हो तो उसके कोण सही प्रकार से बने हों और वे खंडित अथवा संख्या में कम या अधिक न हों। उनकी संख्या 49 होनी चाहिए। यंत्र किसी योग्य व्यक्ति द्वारा प्राण-प्रतिष्ठित होना चाहिए। श्रीयंत्र को सिद्ध करने के पहले योग्य गुरु से दीक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए। यदि साधक जप करने की स्थिति में न हो तो श्रीयंत्र के समक्ष केवल प्रार्थना, आरती अथवा स्तोत्र पाठ करें। साधना समर्पित भाव से करनी चाहिए। यंत्र की स्थापना के बाद प्रतिदिन उसका अभिषेक व पूजन आवश्यक है। अभिषेक यदि न भी कर सकें तो पूजन अवश्य करें। श्री यंत्र के मुख्य तीन रूप होते हैं।
भूपृष्ठ- जो यंत्र समतल होता है, उसे भूपृष्ठ कहते हैं। यह स्वर्ण, रजत अथवा ताम्रपत्र पर बनाया जाता है। इसे भोजपत्र पर भी बनाया जा सकता है, परंतु इसकी निर्माण प्रक्रिया अत्यंत क्लिष्ट होने के कारण सामान्यतः इसे बना- बनाया ही प्राप्त किया जाता है।
कच्छ-पृष्ठ- जो श्रीयंत्र मध्य में कछुए की पीठ के समान उभरा हुआ हो उसे
कच्छप-पृष्ठ कहा जाता है।
मेरु पृष्ठ- जिस श्रीयंत्र की बनावट सुमेरु पर्वत की आकृति में हो, उसे मेरु पृष्ठ कहा जाता है। स्फटिक मणि से बने यंत्र अधिकांशतः मेरु पृष्ठकार होते हैं। स्फटिक से बने श्रीयंत्र की एक विशिष्टता है कि जिस समय साधक आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण होता है उस समय उसके शरीर से बाहर प्रवाहित होने
वाली ऊर्जा को यह स्वयं में समाहित कर लेता है। परंतु इसके लिए यह अत्यंत ही आवश्यक है कि पूजा- स्थल में रखा हुआ श्रीयंत्र पूर्णतः प्राण प्रतिष्ठित और चैतन्य हो। साथ ही उसके कोण आदि निर्धारित संख्या में और समान आकार में हों। श्रीयंत्र वास्तव में श्री अर्थात् लक्ष्मी का निवास स्थान है। जहां श्रीयंत्र की स्थापना नियमानुसार होती है वहां लक्ष्मी का वास होता है।
श्रीयंत्र की स्वामिनी भगवती ललिता की उपासना के लिए दीक्षा एक अनिवार्य शर्त है, परंतु यदि कोई योग्य गुरु न मिलें तो श्रीयंत्र की पूजा श्रद्धा और विश्वासपूर्वक जन सामान्य भी कर सकते हैं। इससे सुख-समृद्धि के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग भी स्वतः ही खुलने लगता है। भगवती ललितांबा शक्ति संपन्न वैष्णवी शक्ति हैं, वे ही विश्व की कारण भूता परामाया हैं, भोग और मोक्ष की दाता हैं और संपूर्ण जगत् को मोहित किए हुए हैं।.................................................................हर-हर महादेव

ललिता त्रिपुर सुंदरी

 ललिता त्रिपुर सुंदरी
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ललिता त्रिपुर सुंदरी या त्रिपुर सुंदरी को श्री विद्या भी कहा जाता है ,जो दस महाविद्या में से एक प्रमुख महाविद्या हैं और श्री कुल की अधिष्ठात्री |इन्हें ५१ शक्तिपीठों में भी स्थान प्राप्त है और कामाख्या को भी इनका स्वरुप कहा जाता है [यद्यपि कामाख्या को काली से भी जोड़ा जाता है ]|देवी ललिता आदि शक्ति का वर्णन देवी पुराण में प्राप्त होता है. जिसके अनुसार पिता दक्ष द्वारा अपमान से आहत होकर जब दक्ष पुत्री सती ने अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये तो सती के वियोग में भगवान शिव उनका पार्थिव शव अपने कंधों में उठाए चारों दिशाओं में घूमने लगते हैं. इस महाविपत्ति को यह देख भगवान विष्णु चक्र द्वारा सती के शव के 108 भागों में विभाजित कर देते हैं. इस प्रकार शव के टूकडे़ होने पर सती के शव के अंश जहां गिरे वहीं शक्तिपीठ की स्थापना हुई. उसी में एक माँ ललिता का स्थान भी है. भगवान शंकर को हृदय में धारण करने पर सती नैमिष में लिंगधारिणीनाम से विख्यात हुईं इन्हें ललिता देवी के नाम से पुकारा जाने लगा.
एक अन्य कथा अनुसार ललिता देवी का प्रादुर्भाव तब होता है जब ब्रह्मा जी द्वारा छोडे गये चक्र से पाताल समाप्त होने लगा. इस स्थिति से विचलित होकर ऋषि-मुनि भी घबरा जाते हैं, और संपूर्ण पृथ्वी धीरे-धीरे जलमग्न होने लगती है. तब सभी ऋषि माता ललिता देवी की उपासना करने लगते हैं. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी जी प्रकट होती हैं तथा इस विनाशकारी चक्र को थाम लेती हैं. सृष्टि पुन: नवजीवन को पाती है.
श्री ललिता जयंती पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. पौराणिक मान्यतानुसार इस दिन देवी ललिता भांडा नामक राक्षस को मारने के लिए अवतार लेती हैं. राक्षस भांडा कामदेव के शरीर के राख से उत्पन्न होता है. इस दिन भक्तगण षोडषोपचार विधि से मां ललिता का पूजन करते है. इस दिन मां ललिता के साथ साथ स्कंदमाता और शिव शंकर की भी शास्त्रानुसार पूजा की जाती है.
श्री ललिता पूजा -
देवी ललिता जी का ध्यान रुप बहुत ही उज्जवल व प्रकाश मान है. 
माँ की पूजा तीन स्वरूपों में होती है
1. बाल सुंदरी- 8 वर्षीया कन्या रूप में
2. षोडशी त्रिपुर सुंदरी - 16 वर्षीया सुंदरी
3. ललिता त्रिपुर सुंदरी- युवा स्वरूप
माँ की दीक्षा और साधना भी इसी क्रम में करनी चाहिए। ऐसा देखा गया है की सीधे ललिता स्वरूप की साधना करने पर साधक को शुरू में कई बार आर्थिक संकट भी आते हैं और फिर धीरे धीरे साधना बढ़ने पर लाभ होता है।
बृहन्नील तंत्र के अनुसार काली के दो भेद कहे गए हैं कृष्ण वर्ण और रक्त वर्ण।
कृष्ण वर्ण काली दक्षिणकालिका स्वरुप है और रक्त वर्ण त्रिपुर सुंदरी स्वरुप। अर्थात माँ ललिता त्रिपुर सुंदरी रक्त काली स्वरूपा हैं। महा विद्याओं में कोई स्वरुप भोग देने में प्रधान है तो कोई स्वरूप मोक्ष देने में परंतु त्रिपुरसुंदरी अपने साधक को दोनों ही देती हैं।
शुक्ल पक्ष के समय प्रात:काल माता की पूजा उपासना करनी चाहिए. कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं.
ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है. दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है. इनकी पूजा पद्धति देवी चण्डी के समान ही है।
ये श्री यंत्र की मूल अधिष्ठात्री देवी हैं। आज श्री यंत्र को पंचामृत से स्नान करवा कर यथोचित पूजन और ललिता सहस्त्रनाम, ललिता त्रिशति ललितोपाख्यान और श्री सूक्त का पाठ करें।
ध्यान:-
बालार्क युत तैजसं त्रिनयनां रक्ताम्बरोल्लसिनीं।
नानालंकृतिराजमानवपुषं बालोडुराट शेखराम्।।
हस्तैरिक्षु धनुः सृणि सुमशरं पाशं मुदा विभ्रतीं।
श्री चक्र स्थितःसुन्दरीं त्रिजगतधारभूतां भजे।।
मन्त्र:-
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः।
इस ध्यान मन्त्र से माँ को रक्त पुष्प , वस्त्र आदि चढ़ाकर अधिकाधिक जप करें। आपकी आर्थिक भौतिक समस्याएं समाप्त होंगी।……………………………………………...हर-हर महादेव 

त्रिपुर सुंदरी [ षोडशी ] दीक्षा

षोडशी त्रिपुर सुंदरी दीक्षा
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 त्रिपुर सुंदरी ,श्री विद्या ,षोडशी त्रिपुर सुंदरी ,ललिता त्रिपुरसुन्दरी ,बाला त्रिपुरसुन्दरी ,एक ही महाविद्या के नाम हैं |यह दस महाविद्या के अंतर्गत प्रमुख महाविद्या और सृष्टि की उत्पत्तिकर्ता हैं |त्रिपुरा या श्री विद्या सृष्टि उत्पन्न करती हैं ,काली उसका सम्पूर्ण विनाश करती हैं ,तारा क्रमिक संहार करती हैं ,भुवनेश्वरी पालन करती हैं ,,अर्थात भिन्न महाविद्या का भिन्न स्वरुप और उनके भिन्न गुणों और कर्मों का संकेतक है |त्रिपुर सुंदरी अर्थात श्री विद्या ,सृष्टि संचालिका विद्या का यंत्र त्रिलोक पूजित और पूरे विश्व में सर्वत्र किसी न किसी रूप में पाया जाता है |ओंकार की ध्वनि से जो आकृति उभरती है वह श्री चक्र होती है और उसकी अधिष्ठात्री श्री विद्या या त्रिपुर सुंदरी हैं |यह श्री विद्या कुल की भी अधिष्ठात्री हैं और वैदिक परमाचार्य शंकराचार्य जी द्वारा पूजित और उनके द्वारा स्थापित संकराचार्य पीठों में पूजित मुख्य शक्ति हैं |यह चारो पुरुषार्थ देने में सक्षम ऐसी महाविद्या हैं जिनकी आराधना से कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता |इनकी दीक्षा यदि योग्य गुरु से मिल जाए तो जीवन में फिर और किसी चीज की आवश्यकता नहीं |भोग में रहते हुए मोक्ष यही देवी देने में सक्षम हैं |
षोडशी त्रिपुर सुंदरी महाविद्या की दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारो पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही है ,साथ ह साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती है |कोई भी साधना हो चाहे अप्सरा साधना हो ,देवी साधना हो ,शव साधना हो ,वैशनव साधना हो शैव साधना हो ,यदि उसमे सफलता नहीं मिल रही है तो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ है |यदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है |गृहस्थ सुख ,अनुकूल विवाह एवं पौरुष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है |मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है |इस दीक्षा से साधक को धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष इन चारो पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है |
षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली शक्ति है। इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं।इसे ललिता, राज राजेश्वरी और ‍त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण है इसलिए षोडशी भी कहा जाता है। ‍‍भारतीय राज्य त्रिपुरा में स्थित त्रिपुर सुंदरी का शक्तिपीठ है माना जाता है कि यहां माता के धारण किए हुए वस्त्र गिरे थे। त्रिपुर सुंदरी शक्तिपीठ भारतवर्ष के अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक है। दक्षिणी-त्रिपुरा उदयपुर शहर से तीन किलोमीटर दूर, राधा किशोर ग्राम में राज-राजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी का भव्य मंदिर स्थित है, जो उदयपुर शहर के दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है। यहां सती के दक्षिण 'पाद' का निपात हुआ था। यहां की शक्ति त्रिपुर सुंदरी तथा शिव त्रिपुरेश हैं। इस पीठ स्थान को 'कूर्भपीठ' भी कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। त्रिपुर सुंदरी माता का मंत्र: रूद्राक्ष माला से दस माला 'ऐ ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुन्दर्यै नम:' मंत्र का जाप कर सकते हैं।.......................................................................हर-हर महादेव

श्री विद्या [ षोडशी ]

षोडशी (श्रीविद्या) :  
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                    श्रीविद्या के ही नाम है षोडशी ,त्रिपुर सुंदरी , त्रिपुरा, ललिता, आदि । इनके भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनंत नाम और अनंत रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के मतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंता रूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है। उनके उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुहय विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं। – यथा, मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दुर्वासा)। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था।
                           श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है।कामराज विद्या (कादी) और पंचदश वर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपुर उपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदश वर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंक स्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता है| लोपामुद्रा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्ति संपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पद सेवा का अधिकार उन्हें दिया था| त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त किया। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।
दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धिहै कि -
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो; यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां, भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।,
अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।
त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम ललिता है। ऐसी किवदंती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किया | जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तर विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण करें ऐसा कहा। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।
श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंतगुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। संमोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महा विद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेद प्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना । दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।
श्री विद्या विषयक कुछ ग्रंथ ये हैं-
1. तंत्रराज- इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगा नंदनाथ कृत मनोरमा मुख्य है।इस पर प्रेम निधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी है। भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं।
2. तंत्रराजोत्तर
3. परानंद या परमानंद तंत्र – किसी किसी के अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासना ग्रंथ है। इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ।कल्पसूत्र वृत्ति से मालूम होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी।
4. सौभाग्य कल्पद्रुम -परमानंद के अनुसार यह श्रेक्ष्ठ ग्रंथ है।
5. सौभाग्य कल्पलतिका -क्षेमानंद कृत।
6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) -इसपर भास्कर की सेतुबंध टीका प्रसिद्ध है। जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है।
7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है।
8-9. श्री क्रम संहिता तथा वृहद श्री क्रम संहिता।
10. दक्षिणामूर्त्ति संहिता – यह 66 पटल में है।
11. स्वच्छंद तंत्र अथवा स्वच्छंद संग्रह।
12. कालात्तर वासना सौभाग्य कल्पद्रुप में इसकी चर्चा आई है।
13. त्रिपुरार्णव। 14. श्रीपराक्रम: इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका में है।
15. ललितार्चन चंद्रिका – यह 17 अध्याय में है।
16. सौभाग्य तंत्रोत्तर। 17. मातृकार्णव
18. सौभाग्य रत्नाकर: (विद्यानंदनाथ कृत)
19. सौभाग्य सुभगोदय – (अमृतानंदनाथ कृत)
20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड)
21. त्रिपुरा रहस्य – (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड)
22. श्रीक्रमात्तम – (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत)
23. अज्ञात अवतार – इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं।
24-25. सुभगार्चापारिजात, सुभगार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका उल्लेख है।
26. चंद्रपीठ
27. संकेतपादुका
28. सुंदरीमहोदय – शंकरानंदनाथा कृत
29. हृदयामृत- (उमानंदनाथ कृत)
30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपुरा माहात्म्य है।
31. ललितोपाख्यान – यह ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में है।
32. त्रिपुरासार समुच्चय (लालूभट्ट कृत) 33. श्री तत्वचिंतामणि (पूर्णानंदकृत)
34. विरूपाक्ष पंचाशिका 35. कामकला विलास 36. श्री विद्यार्णव
37. शाक्त क्रम (पूर्णानंदकृत)
38. ललिता स्वच्छंद
39. ललिताविलास
40. प्रपंचसार (शंकराचार्य कृत)
41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत)
42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत)
43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत)
44. त्रिपुरासार
45. सौभाग्य सुभगोदय: विद्यानंद नाथ कृत
46. संकेत पद्धति
47. परापूजाक्रम
48. चिदंबर नट।...................................................................हर-हर महादेव

त्रिपुरसुन्दरी :: श्री विद्या

श्री विद्या, महा त्रिपुरसुन्दरी
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                  महाविद्याओं में तीसरी श्री विद्या महा त्रिपुर सुन्दरी, तीनो लोको में सर्व गुण सम्पन्न या सर्व प्रकार से पूर्ण।आद्या शक्ति माँ, अपने तीसरे महाविद्या के रूप में श्री विद्या, महा त्रिपुरसुन्दरी के नाम से जानी जाती हैं, देवी अत्यंत सुन्दर रूप वाली सोलह वर्षीय कन्या रूप में विद्यमान हैं। तीनो लोको ( स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी ) में देवी सर्वाधिक सुन्दर, मनोहर रूप वाली तथा चिर यौवन हैं। देवी आज भी यौवनावस्था धारण की हुई है तथा सोलह कला सम्पन्न है। सोलह अंक जो की पूर्णतः का प्रतिक है (सोलह की संख्या में प्रत्येक तत्व पूर्ण मानी जाती हैं, जैसे १६ आना एक रूपया होता हैं), सोलह प्रकार के कलाओं तथा गुणों से परिपूर्ण, देवी का एक अन्य नाम षोडशी विख्यात हैं। देवी प्रत्येक प्रकार कि मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, मुख्यतः सुंदरता तथा यौवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के परिणामस्वरूप, मोहित कार्य और यौवन स्थाई रखने हेतु, इनकी साधना उत्तम मनी जाती हैं। ये ही धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्री शक्ति के नाम से भी जानी जाती है, इन्हीं देवी की आराधना कर कमला नाम से विख्यात दसवी महाविद्या, धन, सुख तथा समृद्धि की देवी महा लक्ष्मी हुई।
                        देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध पारलौकिक शक्तियों से हैं, समस्त प्रकार की दिव्य, अलौकिक तंत्र तथा मंत्र शक्तिओ की ये अधिष्ठात्री हैं। तंत्रो में उल्लेखित मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्थम्भन इत्यादि (जादुई शक्ति) या इंद्रजाल विद्या, देवी कि कृपा के बिना पूर्ण नहीं होते हैं। योनि पीठ 'कामाख्या', देवी श्री विद्या महा त्रिपुरसुंदरी, षोडशी से सम्बंधित सर्वश्रेष्ठ तंत्र पीठ या तीर्थ।काम देव द्वारा सर्वप्रथम तथा समस्त देवताओं द्वारा पूजित देवी की योनि पीठ, कामाख्या नाम से विख्यात हैं। यहाँ शिव पत्नी सती कि योनि गिरी थी, यह आदि काल से ही सिद्धि दायक शक्ति पीठ रहा हैं। यह पीठ नीलाचल पर्वत श्रेणी के ऊपर विद्यमान हैं तथा इस प्रान्त को आदि काल मैं प्रागज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था। आज यहाँ देवी का एक भव्य मंदिर विद्यमान है, जिसे कूचबिहार के राज वंश ने बनवाया था तथा ये भारत वर्ष के असम राज्य में अवस्थित हैं। आदि काल से ही यह पीठ समस्त प्रकार के आगमोक्त तांत्रिक, पारा विद्या तथा गुप्त साधनाओ हेतु श्रेष्ठ माना जाता हैं तथा आदि कल से ही प्रयोग किया जाता हैं। त्रेता तथा द्वापर युग में इस पीठ पर देवी की आराधना नरकासुर करते थे, इस प्रान्त के विभिन्न स्थानों का उल्लेख महाभारत ग्रन्थ से प्राप्त होता हैं। वाराणसी में विद्यमान राज राजेश्वरी मंदिर में देवी राज राजेश्वरी ( तीनो लोको की रानी ) के रूप में पूजिता हैं। कामाक्षी स्वरूप में देवी तमिलनाडु के कांचीपुरम में पूजी जाती हैं। मीनाक्षी स्वरुप में देवी का विशाल तथा भव्य मंदिर तमिलनाडु के मदुरै में हैं। बंगाल के हुगली जिले में बाँसबेरिआ नमक स्थान में देवी हंशेश्वरी नाम से पूजित हैं।
देवी श्री विद्या त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का वर्णन।
महाविद्याओं में तीसरे स्थान पर विद्यमान महा शक्ति त्रिपुर सुंदरी, तीनो लोकों में, सोलह वर्षीय कन्या स्वरूप में सर्वाधिक मनोहर तथा सुन्दर रूप से सुशोभित हैं। देवी का शारीरक वर्ण हजारों उदयमान सूर्य के कांति कि भाति है, देवी की चार भुजाये तथा तीन नेत्र ( त्रि-नेत्रा ) हैं। अचेत पड़े हुए सदाशिव के ऊपर कमल जो सदाशिव के नाभि से निकली है, के आसन पर देवी विराजमान हैं। देवी अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, धनुष तथा बाण से सुशोभित है। देवी षोडशी पंचवक्त्र है अर्थार्त देवी के पांच मस्तक या मुख है, चारो दिशाओं में चार तथा ऊपर की ओर एक मुख हैं। देवी के पांचो मस्तक या मुख तत्पुरुष, सद्ध्योजात, वामदेव, अघोर तथा ईशान नमक पांच शिव स्वरूपों के प्रतिक हैं क्रमशः हरा, लाल, धूम्र, नील तथा पीत वर्ण वाली हैं। देवी दस भुजाओ वाली हैं तथा अभय, वज्र, शूल, पाश, खड़ग, अंकुश, टंक, नाग तथा अग्नि धारण की हुई हैं। देवी अनेक प्रकार के अमूल्य रत्नो से युक्त आभूषणो से सुशोभित हैं तथा देवी ने अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण कर रखा हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा यम देवी के आसन को अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
श्री विद्या, महा त्रिपुर सुंदरी की प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी त्रिपुरसुंदरी के उत्पत्ति का रहस्य; सती वियोग के पश्चात् भगवान शिव सर्वदा ध्यान मग्न रहते थे। उन्होंने अपने संपूर्ण कर्म का परित्याग कर दिया था, परिणामस्वरूप तीनो लोको के सञ्चालन में व्याधि उत्पन्न हो रही थी। उधर तारकासुर ब्रह्मा जी से वार प्राप्त कर, कि उसकी मृत्यु शिव के पुत्र द्वारा ही होगी। एक प्रकार से अमर हो, तारकासुर ने तीनो लोको पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया, समस्त देवताओं को प्रताड़ित कर स्वर्ग से निकल दिया तथा समस्त भोगो को वो स्वयं ही भोगने लगा। समस्त देवताओ ने भगवान शिव को ध्यान से जगाने हेतु, कामदेव तथा उन की पत्नी रति देवी को कैलाश भेजा। (सती हिमालय राज के यहाँ पुनर्जन्म ली चुकी थी तथा भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिया वो नित्य शिव के सन्मुख जा उन की साधना करती थी।) काम देव ने कुसुम सर नमक वाण से भगवान शिव पर प्रहार किया, परिणामस्वरूप शिव जी का ध्यान भंग हो गया। देखते ही देखते काम देव, भगवान शिव के तीसरे नेत्र से उत्पन्न क्रोध अग्नि में जल कर भस्म हो गया। तदनंतर भगवान शिव के एक गण द्वारा काम देव के भस्म से मूर्ति निर्मित की गई तथा उस निर्मित मूर्ति से एक परुष का प्राकट्य हुआ। उस प्राकट्य पुरुष ने भगवान शिव कि, अति उत्तम स्तुति की तथा स्तुति से प्रसन्न हो भगवान शिव ने भांड (अच्छा)! भांड! कहा। तदनंतर भगवान शिव द्वारा उस पुरुष का नाम भांड रखा गया तथा तथा उसे ६० हजार वर्षों कर राज दे दिया गया। शिव के क्रोध से उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप वो तमो गुण सम्पन्न था तथा वो धीरे धीरे तीनो लोको पर भयंकर उत्पात मचाने लगा।देवराज इंद्र के राज्य के समान ही, भाण्डासुर ने स्वर्ग जैसे राज्य का निर्माण किया तथा राज करने लगा। तदनंतर, भाण्डासुर ने स्वर्ग लोक पर अपना अधिकार आक्रमण कर देवराज इन्द्र तथा स्वर्ग राज्य को चारो ओर से घेर लिया। भयभीत इंद्र, नारद मुनि के शरण में गए तथा इस समस्या के निवारण हेतु उपाए पूछा। देवर्षि नारद ने, आद्या शक्ति की यथा विधि अपने रक्त तथा मांस से आराधना करने का परामर्श दिया। देवराज इंद्र ने देवर्षि नारद द्वारा बताये हुए साधना पथ का अनुसरण कर, देवी की आराधना की तथा देवी ने त्रिपुरसुंदरी स्वरूप से प्रकट हो भाण्डासुर का वध कर देवराज पर कृपा की तथा समस्त देवताओं को भय मुक्त किया।
कहा जाता हैं, भण्डासुर तथा देवी त्रिपुर सुंदरी ने अपने चार-चार अवतारी स्वरूपों को युद्ध लड़ने हेतु अवतरित किया। भाण्डासुर ने हिरण्यकश्यप दैत्य का अवतार धारण किया तथा देवी ललित प्रह्लाद स्वरूप में प्रकट हो, हिरण्यकश्यप का वध किया। भाण्डासुर ने महिषासुर का अवतार धारण किया तथा देवी त्रिपुरा, दुर्गा अवतार धारण कर महिषासुर का वध किया। भाण्डासुर, रावण अवतार धारण कर, देवी के नखो द्वारा अवतार धारण करने वाले राम के हाथों मारा गया। अंततः देवी त्रिपुरा ने, भाण्डासुर का वध किया।
देवी श्री विद्या त्रिपुरसुंदरी से सम्बंधित अन्य तथ्य।
समस्त तंत्र और मंत्र देवी कि आराधना करते है तथा वेद भी इनकी महिमा करने में असमर्थ हैं। अपने भक्तों के सभी प्रार्थना स्वीकार कर, देवी भक्त के प्रति समर्पित रहती है। भक्त पर प्रसन्न हो देवी सर्वस्व प्रदान करती हैं। देवी की साधना, आराधना योनि रूप में भी की जाती है, देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध काम उत्तेजना से हैं, इस स्वरूप में देवी कामेश्वरी नाम से पूजित हैं।
देवी काली की समान ही देवी त्रिपुर सुंदरी चेतना से सम्बंधित हैं। देवी त्रिपुरा ब्रह्मा, शिव, रुद्र तथा विष्णु के शव पर आरूढ़ हैं, तात्पर्य, चेतना रहित देवताओं के देह पर देवी चेतना रूप से विराजमान हैं तथा ब्रह्मा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती द्वारा पूजिता हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, देवी कमल के आसन पर भी विराजमान हैं, जो अचेत शिव के नाभि से निकलती हैं तथा शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा यम, चेतना रहित शिव को अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं।
श्री यन्त्र और श्री विद्या - यंत्रो में श्रेष्ठ श्री यन्त्र या श्री चक्र, साक्षात् देवी त्रिपुरा का ही स्वरूप हैं तथा श्री विद्या या श्री संप्रदाय, पंथ या कुल का निर्माण करती हैं। देवी त्रिपुरा आदि शक्ति हैं, कश्मीर, दक्षिण भारत तथा बंगाल में आदि काल से ही, श्री संप्रदाय विद्यमान हैं तथा देवी अराधना की जाती हैं, विशेषकर दक्षिण भारत में देवी, श्री विद्या नाम से विख्यात हैं। मदुरै में विद्यमान मीनाक्षी मंदिर, कांचीपुरम में विद्यमान कामाक्षी मंदिर, दक्षिण भारत में हैं तथा यहाँ देवी श्री विद्या के रूप में पूजिता हैं। वाराणसी मैं विद्यमान राजराजेश्वरी मंदिर, देवी श्री विद्या से ही सम्बंधित हैं तथा आकर्षण सम्बंधित विद्याओ की प्राप्ति हेतु प्रसिद्ध हैं।
देवी की उपासना श्री चक्र में होती है, श्री चक्र से सम्बंधित मुख्य शक्ति देवी त्रिपुर सुंदरी ही हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं, तन्त्रो की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। समस्त प्रकार के तांत्रिक कर्म देवी की कृपा के बिना सफल नहीं होते हैं। तंत्र में वर्णित मरण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन इत्यादि प्रयोगों की देवी अधिष्ठात्री है। आदि काल से ही देवी के पीठ कामाख्या में, समस्त तंत्र साधनाओ का विशेष विधान हैं। देवी आज भी वर्ष में एक बार ऋतु वत्सला होती है जो ३ दिन का होता है, इस काल में असंख्य भक्त तथा साधु, सन्यासी देवी कृपा प्राप्त करने हेतु कामाख्या आते हैं। देवी कि रक्त वस्त्र जो ऋतुस्रव के पश्चात् प्राप्त होता है, प्रसाद के रूप में प्राप्त कर उसे अपनी सुरक्षा हेतु अपने पास रखते हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं, तन्त्रो की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। समस्त प्रकार के तांत्रिक कर्म देवी की कृपा के बिना सफल नहीं होते हैं।
देवी त्रिपुरा या त्रिपुर सुंदरी, श्री यंत्र तथा श्री मंत्र के स्वरूप से समरसता रखती हैं, जो यंत्रो-मंत्रो में सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन हैं, यन्त्र शिरोमणि हैं, देवी साक्षात् श्री चक्र के रूप में यन्त्र के केंद्र में विद्यमान हैं। श्री विद्या के नाम से देवी, एक अलग संप्रदाय का भी निर्माण करती हैं, जो श्री कुल के नाम से विख्यात हैं तथा देवी श्री कुल की अधिष्ठात्री हैं। देवी श्री विद्या, स्थूल, सूक्ष्म तथा परा, तीनो रूपों में 'श्री चक्र' में विद्यमान हैं, चक्र स्वरूपी देवी त्रिपुरा, श्री यन्त्र के केंद्र में निवास करती हैं तथा चक्र ही देवी का अराधना स्थल हैं, चक्र के रूप में देवी श्री विद्या की पूजा आराधना होती हैं। श्री यन्त्र, सर्व प्रकार के कामनाओ को पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं, इसे त्रैलोक्य मोहन यन्त्र भी कहाँ जाता हैं। श्री यन्त्र को महा मेरु, नव चक्र के नाम से भी जाना जाता हैं।
यह यन्त्र देवी लक्ष्मी से भी समरसता रखती हैं,| देवी श्री लक्ष्मी जो धन, सौभाग्य, संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन की आराधना श्री यन्त्र के मध्य में होती हैं| सामान्यतः धन तथा सौभाग्य की दात्री होने के परिणामस्वरूप, श्री चक्र में देवी की आराधना, पूजा होती हैं, |सामान्य लोगो के पूजा घरों से कुछ विशेष मंदिरों में देवी इसी श्री चक्र के रूप में ही पूजिता हैं || कामाक्षी मंदिर, कांचीपुरम, तमिलनाडु, अम्बाजी मंदिर, गब्बर पर्वत, गुजरात (सती पीठो), देवी की पूजा श्री चक्र के रूप में ही होती हैं| शास्त्रों में यंत्रो को देवताओं का स्थूल देह माना गया हैं,| श्री यन्त्र की मान्यता सर्वप्रथम यन्त्र के से भी हैं,| यह सर्वरक्षा कारक, सौभाग्य प्रदायक, सर्व सिद्धि प्रदायक तथा सर्वविघ्न नाशक हैं | निर्धनता तथा ऋण से मुक्ति हेतु, श्री यन्त्र की स्थापना तथा पूजा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं,| श्री यन्त्र के स्थापना मात्र से लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती हैं |
श्री यंत्र के मध्य या केन्द्र या में एक बिंदु है, इस बिंदु के चारों ओर ९ अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो ९ शक्तिओ का प्रतिनिधित्व करती हैं। १. बिंदु, २. त्रिकोण, ३. अष्टकोण, ४. दशकोण, ५. बहिर्दर्शरा, ६. चतुर्दर्शारा, ७. अष्ट दल, ८. षोडश दल, ९. वृत्तत्रय, १०. भूपुर से श्री यन्त्र का निर्माण हुआ हैं, ९ त्रिभुजों के अन्तःग्रथित होने से कुल ४३ लघु त्रिभुज बनते हैं तथा अपने अंदर समस्त प्रकार के अलौकिक तथा दिव्या शक्ति समाये हुए हैं। ९८ शक्तिओ की अराधना श्री चक्र में की जाती हैं तथा समस्त शक्तियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियंत्रण तथा सञ्चालन करती हैं।
कामेश्वरी की स्वारसिक समरसता को प्राप्त परातत्व ही महा त्रिपुर सुंदरी के रूप में विराजमान हैं तथा यही सर्वानन्दमयी, सकलाधिष्ठान ( सर्व स्थान में व्याप्त ) देवी ललिताम्बिका हैं। देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं। देवी में न शिव के प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति, दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘तात्वातीत’ कहा जाता हैं, देवी जगत के प्रत्येक तत्व में व्याप्त भी हैं और पृथक् भी, परिणामस्वरूप इन्हें ‘विश्वोत्तीर्ण’ भी कहा जाता हैं। ये ही परा ( जिसे हम देख नहीं सकते ) विद्या भी कही गए हैं, ये दृश्यमान प्रपंच इनका केवल उन्मेष मात्र हैं , देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं। ऐसे ही परा शक्ति, नाम रहित होते हुए भी अपने साधको पर कृपा कर, सगुण रूप धारण करती हैं, देवी विविध रूपों में अपने रूपों का अवतरण कर विश्व का कल्याण करती हैं, तथा श्री विद्या के नाम से विख्यात हैं। देवी ब्रह्माण्ड की नायिका हैं तथा विभिन्न प्रकार के असंख्य देवताओं, गन्धर्वो, राक्षसों इत्यादि द्वारा सेवित तथा वन्दित हैं। देवी त्रिपुरा, चैतान्यरुपा चिद शक्ति तथा चैतन्य ब्रह्म हैं। भंडासुर की संहारिका, त्रिपुर सुंदरी, सागर के मध्य में स्थित मणिद्वीप का निर्माण कर चित्कला के रूप में विद्यमान हैं। तदनंतर, तत्वानुसार अपने त्रिविध रूप को व्यक्त करती हैं, १. अत्मतत्व, २. विद्यातत्व, ३. शिवतत्व, इन्हीं तत्वत्रय के कारण ही देवी १. शाम्भवी २. श्यामा तथा ३. विद्या के रूप में त्रिविधता प्राप्त करती हैं। इन तीनो शक्तिओ के पति या भैरव क्रमशः परमशिव, सदाशिव तथा रूद्र हैं।
देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ हैं तथा श्री विद्या परिवार का निर्माण करती हैं। भक्तों को अनुग्रहीत करने की इच्छा से, भंडासुर का वध करने के निमित्त एक होना महाशक्ति का वैविध्य हैं।
संक्षेप में देवी श्री विद्या त्रिपुर सुंदरी से सम्बंधित मुख्य तथ्य।
मुख्य नाम : महा त्रिपुर सुंदरी।
अन्य नाम : श्री विद्या, त्रिपुरा, श्री सुंदरी, राजराजेश्वरी, ललित, षोडशी, कामेश्वरी, मीनाक्षी।
भैरव : कामेश्वर।
तिथि : मार्गशीर्ष पूर्णिमा।
भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान परशुराम।
कुल : श्री कुल ( इन्हीं के नाम से उत्पन्न तथा संबंधित )।
दिशा : उत्तर पूर्व।
स्वभाव : सौम्य।
सम्बंधित तीर्थ स्थान या मंदिर : कामाख्या मंदिर, ५१ शक्ति पीठो में सर्वश्रेष्ठ, योनि पीठ गुवहाटी, आसाम।
कार्य : सम्पूर्ण या सभी प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने वाली।
शारीरिक वर्ण : उगते हुए सूर्य के समान।…………………………………………………..हर-हर महादेव

ॐ की साधना से क्या क्या लाभ होते हैं ?

:::::::::::ॐ अथवा ओंकार साधना ::::::::::::
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"ॐ" (ओ३म्) सबसे बड़ा बीज मन्त्र है, अन्य सब मन्त्रों की उत्पत्ति इसी मन्त्र से हुई है, सृष्टि की उत्पत्ति भी इसी मंत्र से हुई है |"ॐ" (ओ३म् ) और तारक मन्त्र "राम" दोनों एक ही हैं| दोनों का फल भी एक ही है| वैसे तो ओंकार की चेतना में निरंतर रहें पर विधिवत् साधना में कुछ बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है ---
(1) ओंकार का ध्यान करते समय कमर सीधी रहे यानि मेरु दंड उन्नत रहे|
(2) दृष्टी भ्रूमध्य में रहे| जो उन्नत साधक है उनकी दृष्टी भ्रूमध्य और सहस्त्रार पर एक साथ रहे|
(3) आसन ऊनी हो जिस पर एक रेशम का वस्त्र विछा हो|
(4) मुँह पूर्व या उत्तर दिशा में हो|
(5) जो दायें हाथ से लिखते हैं उनको दायें कान में व जो बाएँ हाथ से लिखते हैं उनको बाँयें कान में ओंकार की ध्वनी सुनेगी| कुछ समय पश्चात ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पीछे के भाग, शिखास्थान से नीचे, मेरुशीर्ष (medulla) जहां मस्तिष्क से मेरुदंड की नाड़ियाँ मिलती हैं, वहाँ सुननी आरम्भ हो जायेगी और उसका विस्तार सारे ब्रह्माण्ड में होने लगेगा| एक विराट ज्योति का प्रादुर्भाव भी यहीं से होगा जो भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होगी| यह मेरुशीर्ष यानि मस्तक ग्रंथि ही वास्तविक आज्ञाचक्र है| भ्रूमध्य तो दर्पण की तरह है जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं|
(6) आरम्भ में लकड़ी के "T" के आकार के लकड़ी के एक हत्थे को सामने रखकर उस पर अपनी कोहनियाँ टिका दें, अंगूठों से कान बंद कर लें और ओंकार की ध्वनी को सुनें| साथ साथ मानसिक रूप से ओ३म् ओ३म् ओ३म् का जाप करते रहें| "ॐ" यह लिखने में प्रतीकात्मक है, और "ओ३म्" यह ध्वन्यात्मक है| इस की लिखावट पर कोई विवाद ना करें| महत्व उस का है जो सुनाई देता है, न कि कैसे लिखा गया है|
आरम्भ में जब कान बंद करेंगे तो कई प्रकार की ध्वनियाँ सुनेंगी| जो सबसे तीब्र है उसी पर ध्यान दें|
(7) कुछ धर्मगुरुओं के अनुसार ॐ के जाप का अधिकार मात्र सन्यासियों को है, गृहस्थों को नहीं| गृहस्थ ॐ के साथ भगवान के अन्य किसी नाम का सम्पुट लगाएँ| पर मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि यह वेदविरुद्ध है| सारे उपनिषद् और भगवद्गीता "ओंकार' की महिमा से भरे पड़े हैं| जो उपनिषदों में यानि वेदों में है वही प्रमाण है, वही मान्य है| जो वेदविरुद्ध है वह अमान्य है|
(8) भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन, और कानों से ओंकार की ध्वनी यानि नादब्रह्म को सुनते रहें व मन में ओंकार का जप करते रहें| किसी भी तरह के वाद-विवाद में ना पड़ें| आपका लक्ष्य परमात्मा है, ना कि कोई सिद्धांत या बौद्धिकता|
(9) उपरोक्त साधना की सफलता एक ही तथ्य पर निर्भर है की आपके ह्रदय में कितनी भक्ति है| बिना भक्ति के कोई लाभ नहीं होगा और आप कुछ कर भी नहीं पाएँगे| जितनी गहरी भक्ति होगी उतनी ही अच्छी साधना होगी, उतना ही गहरा समर्पण होगा| कर्ताभाव ना आने दें| सब कुछ प्रभु के चरणों में समर्पित कर दें| कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे हैं| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं|
अपना सब कुछ, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर दें| इसकी इतनी महिमा है कि उसे बताने की सामर्थ्य मेरी क्षमता से परे है|
(10) ज्योतिर्मय नाद ब्रह्म की सर्वव्यापक चेतना और उस में विलय होकर उससे एकाकार होना ही 'कूटस्थ चैतन्य' है और यह कूटस्थ ही आत्मगुरु है और यही गुरुतत्व है|
 ॐ के उच्चारण के शारीरिक लाभ 
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ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है । अ उ म् । "अ" का अर्थ है उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ का उच्चारण शारीरिक लाभ प्रदान करता है।
 [1] अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है|
 [2] अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।
 [3] यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
 [4] यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।
 [5] ॐ के उच्चारण से पाचन शक्ति तेज़ होती है।
 [6] इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
 [7] थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।
 [8] नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी।
 [9]  कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।
 [10] ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है।
 [11] ॐ के दूसरे अक्षर का उच्चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो कि थायरायड ग्रंथी पर प्रभाव डालता है।
अब हम आपको अपने व्यक्तिगत अनुभव की भी कुछ बातें बता देते हैं |ॐ केवल शरीर पर ही प्रभाव नहीं डालता और शरीर की ही समस्याएं नहीं दूर करता ,यह आपमें अलौकिकता भर देता है ,आपको अलौकिक शक्तियाँ भी प्रदान करता है आप अगर गंभीरता से प्रयास करें तो |ॐ के जप से ,ॐ के चिंतन से ,ॐ के मनन से ,ॐ को खुद में सुनने से ,ॐ का ध्यान करने से आप भूत -भविष्य -वर्त्तमान देखने की क्षमता प्राप्त कर त्रिकालज्ञ बन सकते हैं |आपमें वह शक्तियाँ आ जाती हैं की आप किसी को भी प्रभावित कर सकते हैं ,आप दुसरे के मन की बात भी जान सकते हैं और दुसरे के मन में अपनी बात भी पहुंचा सकते हैं |आपके लिए असंभव शब्द समाप्त हो जाते हैं अगर अप साधना करते हैं तो |आपका व्यक्तित्व अलौकिक और दिव्य हो जाता है जिससे आपको सांसारिक जीवन में तो सभी सुख प्राप्त होते ही हैं ,आपकी मुक्ति भी सुनिश्चित हो जाती है |
हम आपको बताना चाहेंगे की ॐ एक सर्वोच्च प्रणव है अर्थात ऐसा शब्द जो अपने आप में पूर्ण है |संसार में कुछ और शब्द प्रणव है और जिनके आगे ॐ लगाना आवश्यक नहीं होता ,जैसे ह्रीं ,श्रीं ,ऐं ,क्रीं और क्लीं |इनकी अपनी शक्ति होती है और यह खुद में प्रणव हैं जिनसे शुरू होने वाले मन्त्रों के आगे ॐ लगाना आवश्यक नहीं होता किन्तु इनके आगे भी ॐ लगाया जा सकता है और ॐ के लगते ही इनके मंत्र की ऊर्जा प्रकृति बदल जाती है |यह मंत्र एक विशेष प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न करते हैं जो विशिष्ट कार्य करते हैं और एक विशिष्ट शक्ति उत्पन्न करते हैं ,ॐ लगते ही इनमे एक ऐसी सम्पूर्णता आ जाती है की इनकी विशेषता तो बनी रहती है किन्तु इनकी शक्ति का विस्तार पूर्णता लिए हो जाता है जिससे व्ही मंत्र सभी क्षेत्रों में लाभदायक हो जाता है |
चूंकि हम स्वयं साधक हैं अतः हमारा यह मानना है की ॐ ,क्रीं ,क्लीं ,ह्रीं ,श्रीं और ऐं जैसे शब्द जो प्रणव हैं वह ब्रह्माण्ड में स्वतंत्र शक्ति रूप में प्रसारित हो रहे हैं जिससे इनका अपना स्वतंत्र प्रभाव है |अन्य शब्द तो एक विशेष शक्ति हैं किन्तु ॐ एक सम्पूर्ण ऊर्जा है जो परम सौम्य भी है इसके जुड़ते ही किसी भी अन्य प्रणव की उर्जा बदल जाती है और उसको पूर्णता प्राप्त हो जाती है |ऐं को सरस्वती का बीज ,श्रीं को महालक्ष्मी का बीज क्रीं और क्लीं को महाकाली या महागौरी का बीज कहा जाता है |एक और प्रणव ह्रीं को माया बीज कहा जाता है जो भुवनेश्वरी का भी बीज है |क्रीं ,क्लीं ,श्रीं और ऐं तो एक विशिष्ट शक्ति के प्रणव हैं किन्तु ह्रीं माया का बीज होने से यह सभी बीजों ,प्रणव ,मन्त्रों और सभी देवी देवताओं के साथ संयुक्त होता है ,साथ ही इसकी अपनी स्वतंत्र शक्ति भी होती है जिसमे सभी शक्तियाँ भी मिलती हैं भावानुसार |ह्रीं अधिकतर शक्तियों के साथ संयुक्त तो हो जाता हैं पर फिर भी ह्रीं में एक विशिष्टता बनी रहती है |ॐ ही ऐसा प्रणव है जिसमे पूर्ण सम्पूर्णता होती है इसलिए यह सभी के साथ संयुक्त भी हो जाता है और स्वतंत्र रहने पर भी वह सभी लक्ष्य देता है जिसकी भी अभिलाषा हो |इस प्रकार ॐ वह शक्ति है जिससे सब कुछ पाया जा सकता है ,भुक्ति भी और मुक्ति भी | .................................................................हर-हर महादेव

ॐ को आप कितना जानते हैं ?

::ॐ:: एक सार्वभौम शक्ति
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          ब्रह्माण्ड में ग्रह-नक्षत्रो-सौर मंडलों-आकाशगंगाओं की गतिशीलता के बीच एक दिव्य ध्वनि और तरंग की गूँज है जिसे ॐ कहते हैं ,किन्तु सभी इसे सदैव नहीं सुन सकते ,इस ध्वनि को हमारे तपस्वी और ऋषि - महर्षियों ने अपनी ध्यानावस्था में सुना। जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है | उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ब्रह्मनाद अथवा ॐ कहा । यानी अंतरिक्ष में होने वाला मधुर गीत ‘ओ३म्‌’ ही अनादिकाल से अनन्त काल तक ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। ओ३म्‌ की ध्वनि या नाद ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक ऊर्जा के रूप में फैला हुआ है| यह ईश्वरीय ऊर्जा है ,सर्वत्र फैला ,कण कण में व्याप्त सार्वभौम ऊर्जा ,जो तरंगो के रूप में सर्वत्र विकरित है |इसीलिए इसे प्रणव भी कहा जाता है ,यह सब जगह सम्पूर्णता देने में सक्षम है |अकेले हो या किसी शक्ति के साथ सर्वत्र ऊर्जा स्वरुप है |
खगोल वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया है कि हमारे अंतरिक्ष में पृथ्वी मण्डल, सौर मण्डल , सभी ग्रह मण्डल तथा अनेक आकाशगंगाएं, लगातार ब्रह्माण्ड का चक्कर लगा रही हैं। ये सभी आकाशीय  पिण्ड कई हज़ार मील प्रति सेकेण्ड की गति से अनंत की ओर भागे जा रहे हैं, जिससे लगातार एक कम्पन, एक ध्वनि अथवा शोर उत्पन्न हो रहा है |इसी ध्वनि को हमारे तपस्वी और ऋषि - महर्षियों ने अपनी ध्यानावस्था में सुना। जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ब्रह्मनाद अथवा ॐ कहा । यानी अंतरिक्ष में होने वाला मधुर गीत ‘ओ३म्‌’ ही अनादिकाल से अनन्त काल तक ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। ओ३म्‌ की ध्वनि या नाद ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक ऊर्जा के रूप में फैला हुआ है जब हम अपने मुख से एक ही सांस में ओ३म्‌ का उच्चारण मस्तिष्क ध्वनि अनुनाद तकनीक से करते हैं तों मानव शरीर को अनेक लाभ होते हैं और वह असीम सुख, शांति व आनन्द की अनुभूति करता है।
          इस ध्वनि के उच्चारण से  मानव शरीर को अनेक लाभ होते हैं और वह असीम सुख, शांति व आनन्द की अनुभूति करता है क्योकि उसका संपर्क ब्रह्मांडीय उर्जा तरंगों से होता है | वैज्ञानिक प्रयोग इस सार्वभौम ध्वनि की शक्ति को प्रमाणित करते हैं ,रोगियों के रोग बहुत कम  होते पाया गया यद्यपि इनके प्रतिशत भिन्न रहे पर लाभ लगभग सबको होता है |
 ओ३म्‌ के संबंध में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ओ३म्‌ शब्द की महिमा का कोई वैज्ञानिक आधार हैं?  क्या इसके उच्चारण से इस असार संसार में भी कुछ लाभ है?  इस संबंध में ब्रिटेन के एक साईटिस्ट जर्नल ने शोध परिणाम बताये हैं जो यहां प्रस्तुत हैं। रिसर्च एंड इंस्टीट्‌यूट ऑफ न्यूरो साइंस के प्रमुख प्रोफ़ेसर जे. मार्गन और उनके सहयोगियों ने सात वर्ष तक ‘ओ३म्‌’ के प्रभावों का अध्ययन किया।इस दौरान उन्होंने मस्तिष्क और हृदय की विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 2500 पुरुषो और 200 महिलाओं का परीक्षण किया। इनमें उन लोगों को भी शामिल किया गया जो अपनी बीमारी के अन्तिम चरण में पहुँच चुके थे।इन सारे मरीज़ों को केवल वे ही दवाईयां दी गई जो उनका जीवन बचाने के लिए आवश्यक थीं। शेष सब बंद कर दी गई। सुबह 6 -7 बजे तक यानी कि एक घंटा इन लोगों को साफ, स्वच्छ, खुले वातावरण में योग्य शिक्षकों द्वारा ‘ॐ’ का जप करायागया। इन दिनों उन्हें विभिन्न ध्वनियों और आवृतियो में 'ॐ’ का जप कराया गया। हर तीन माह में हृदय, मस्तिष्क के अलावा पूरे शरीर का ‘स्कैन’ कराया गया।चार साल तक ऐसा करने के बाद जो रिपोर्ट सामने आई वह आश्चर्यजनक थी। 70 प्रतिशत पुरुष और 85 प्रतिशत महिलाओं से ‘ॐ’ का जप शुरू करने के पहले बीमारियों की जो स्थिति थी उसमें 90 प्रतिशत कमी दर्ज की गई। कुछ लोगों पर मात्र 20 प्रतिशत ही असर हुआ। इसका कारण प्रोफ़ेसर मार्गन ने बताया कि उनकी बीमारी अंतिम अवस्था में पहुंच चुकी थी। इस प्रयास से यह परिणाम भी प्राप्त हुआ कि नशे से मुक्ति भी ‘ॐ’ के जप से प्राप्त की जा सकती है। इसका लाभ उठाकर जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है। ॐ को लेकर प्रोफ़ेसर मार्गन कहते हैं कि शोध में यह तथ्य पाया कि ॐ का जाप अलग अलग आवृत्तियों और ध्वनियों में दिल और दिमाग के रोगियों के लिए बेहद असर कारक है यहाँ एक बात बेहद गौर करने लायक़ यह है जब कोई मनुष्य ॐ का जाप करता है तो यह ध्वनि जुबां से न निकलकर पेट से निकलती है यही नहीं ॐ का उच्चारण पेट, सीने और मस्तिष्क में कम्पन पैदा करता है विभिन्न आवृतियो (तरंगों) और ‘ॐ’ ध्वनि के उतार चढ़ाव से पैदा होने वाली कम्पन क्रिया से मृत कोशिकाओं को पुनर्जीवित कर देता है तथा नई कोशिकाओं का निर्माण करता है रक्त विकार होने ही नहीं पाता। मस्तिष्क से लेकर नाक, गला, हृदय, पेट और पैर तक तीव्र तरंगों का संचार होता है। रक्त विकार दूर होता है और स्फुर्ती बनी रहती है। यही नहीं आयुर्वेद में भी ॐ के जाप के चमत्कारिक प्रभावों का वर्णन है।
अभी हाल ही में हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हारबर्ट बेन्सन ने अपने लबे समय के शोध कार्य के बाद ‘ॐ’ के वैज्ञानिक आधार पर प्रकाश डाला है। थोड़ी प्रार्थना और ॐ शब्द के उच्चारण से जानलेवा बीमारी एड्‌स के लक्षणों से राहत मिलती है तथा बांझपन के उपचार में दवा का काम करता है। इसके अलावा आप स्वयं ‘ॐ’ जप करके ॐ ध्वनि के परिणाम देख सकते हैं। इसके जप से सभी रोगों में लाभ व दुष्कर्मों के संस्कारों को शमन होता है। अतः ॐ की चमत्कारिक ध्वनि का उच्चारण यदि मनुष्य अटूट श्रद्धा व पूर्ण विश्वास के साथ करे तो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर जीवन को सार्थक कर सकता है। 
          जब कोई मनुष्य ॐ का जाप करता है तो यह ध्वनि जुबां से न निकलकर ह्रदय से निकलती है |यही नहीं ॐ का उच्चारण पेट, सीने और मस्तिष्क में कम्पन पैदा करता है विभिन्न आवृतियो (तरंगों) और ‘ॐ’ ध्वनि के उतार चढ़ाव से पैदा होने वाली कम्पन क्रिया  मृत कोशिकाओं तक को पुनर्जीवित कर देता है तथा नई कोशिकाओं का निर्माण करता है| कोशिका क्षय में कमी आती है ,चिरायुता में वृद्धि होती है |जीवनी शक्ति ,आत्मबल, आत्मविश्वास की वृद्धि होती है|  रक्त विकार होने ही नहीं पाता। मस्तिष्क से लेकर नाक, गला, हृदय, पेट और पैर तक तीव्र तरंगों का संचार होता है। रक्त विकार दूर होता है और स्फुर्ती बनी रहती है।इसका लाभ उठाकर जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है।
.        थोड़ी प्रार्थना और ॐ शब्द के उच्चारण से जानलेवा बीमारी एड्‌स के लक्षणों से राहत मिलती है तथा बांझपन के उपचार में दवा का काम करता है। इसके जप से सभी रोगों में लाभ होता है। अतः ॐ की चमत्कारिक ध्वनि का उच्चारण यदि मनुष्य अटूट श्रद्धा व पूर्ण विश्वास के साथ करे तो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर जीवन को सार्थक कर सकता है।इसके जप से दुस्कर्मो और पापों के परिणाम से भी मुक्ति संभव है बशर्ते प्रायश्चित की भावना के साथ शरणागति अपने ईष्ट में आये |नशे से मुक्ति भी ‘ॐ’ के जप से प्राप्त की जा सकती है| ऊँ की ध्वनि मानव शरीर के लिये प्रतिकुल सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।विभिन्न ग्रहों से आने वाली अत्यंत घातक अल्ट्रावायलेट किरणों का प्रभाव ओम की ध्वनि की गुंज से समाप्त हो जाता है।मतलब बिना किसी विशेष उपाय के भी सिर्फ ओम् के जप से भी अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
       ऊँ का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है।  नींद गहरी आने लगती है। साथ ही अनिद्रा की बीमारी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।मन शांत होने के साथ ही दिमाग तनाव मुक्त हो जाता है.अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।.अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं। यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है। यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है। इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है। .इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है। .थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।.नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी। .कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है। ॐ  का उच्चारण करने से से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है। ॐ  का उच्चारण करने से विभिन्न अन्तःश्रावी ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उनसे स्रावित होने वाले हारमोंस ,पाचक अथवा नियामक पदार्थों का स्राव नियमित होता है |यह सभी लाभ ॐ की ऊर्जा का ०.००१ % भी नहीं है ,यह वह शक्ति है जो भुक्ति-मुक्ति सब कुछ प्रदान कर सकती है ,इसकी शक्ति-क्षमता की कोई सीमा नहीं ,मनुष्य की कल्पनाओं से भी परे है |
पूर्ण एकाग्रता के साथ ॐ का जप त्रिकाल दर्शिता प्रदान करता है |यह आज्ञाचक्र की शक्ति को इतना बढ़ा देता है की व्यक्ति भूत-भविष्य-वर्त्तमान में झाँक सकता है |यह निर्विकार अथवा साकार ईष्ट का साक्षात्कार कराता है |बिना किसी अन्य मंत्र के केवल ॐ का जप और किसी भी ईष्ट का भाव उस ईष्ट को साधक की और आकर्षित कर साक्षात्कार करा सकता है |यह वह सार्वभौम ऊर्जा है जो सबकुछ करने में सक्षम है |...................................................................................हर-हर महादेव 

नंदी का मुख शिवलिंग की ओर ही क्यों ?

::::::::::::::शिव मंदिर के बाहर नंदी की विशेष मुद्रा :::::::::::::::
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सभी शिव मंदिरों में नंदी की स्थापना मंदिर के गर्भगृह के बाहर की जाती है |यह मंदिर के गर्भगृह की और मुह किये खुली आँखों की समाधिस्थ अवस्था में बैठा होता है |नंदी शिव का वाहन है ,शिव परिवार का अभिन्न सदस्य है और अदम्य शक्तियों का स्वामी है ,शिव गणों का नायक है अतः पूज्य है |किन्तु शिवालयों में इसकी स्थापना गर्भगृह के बाहर क्यों होती है ,इसका गूढ़ अर्थ है |खुली आँखों वाली समाधि से ही आत्मज्ञान और आत्मज्ञान से जीवन्मुक्ति प्राप्त कर पाना संभव हो पाता है |यह इस सन्देश का प्रचार करता है की मनुष्य रुपी जीवात्मा की पशुवत प्रवृत्तियां उसे ईश्वर से दूर ले जाने का प्रयास करती हैं जबकि उसकी सद्प्रवृत्तियां उसे शिव की और खींचती हैं |अतः गर्भगृह के बाहर रहते हुए भी नंदी की दृष्टि शिव पर ही टिकी रहती है और वह अनवरत रूप से अपने आराध्य में ही तल्लीन रहता है |नंदी की गर्भगृह के बाहर स्थापना इस बात का सूचक है की पाशविक वृत्तियों ,दंभ ,ईर्ष्या ,छल आदि का परित्याग करने के पश्चात ही भक्त को भगवान के दर्शन होते हैं |इन्हें साथ लेकर ईष्ट के सम्मुख आने वाले भक्तों का मंदिर आना सार्थक नहीं होता |हमारे समझ के अनुसार नंदी का गर्भगृह के बाहर एक निश्चित मुद्रा में शिव की और उन्मुख बैठना यह संकेत है की यदि पशुवत प्रवृत्तियां रहते हुए भी हम शिव [ईष्ट] में तल्लीन और एकाग्र हो जाएँ तो हम उसे पा सकते हैं और मुक्त हो सकते हैं |उसके सामने बैठ जाए [झुक जाएँ ],अपने को भूल उसमे लीं हो जाएँ तो कोई भी उसे पा सकता है |
नंदी पुरुष का प्रतीक है |इसलिए शिवालय में प्रवेश से पूर्व उसे प्रणाम किया जाना शास्त्रसम्मत है |नंदी के सींग विवेक और वैराग्य के प्रतीक हैं |दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे से नंदी के सींगों को स्पर्श करते हुए शिव के दर्शन किये जाते हैं |ऐसा करने से भक्त के घमंड का नाश होता है |.....................................................................हर-हर महादेव  

पारद शिवलिंग -समस्त दुखों से मुक्ति का विग्रह

:::::::::::::::::पारद शिवलिंग ::::::::::::::::::::
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            आज हम आपको एक ऐसे शिवलिंग के बारे में बताने जा रहे हैं जो बहुत विशेष  होता है और जिसके पूजन से संसार के सभी शिवलिंगों के पूजन से अधिक फल प्राप्त होता है ,यहाँ तक की इसकी महिमा में कहा जाता है की इसके पूजन से हजारों ज्योतिर्लिंगों के पूजन से भी अधिक फल प्राप्त होता है | ज्योतिर्लिंग तो आप जानते ही हैं जो बारह हैं जैसे सोमनाथ , ओम्कारेश्वर ,बाबा विश्वनाथ ,रामेश्वरम आदि |अर्थात in ज्योतिर्लिंगों के पूजन से भी अधिक महिमा इस शिवलिंग की तंत्र में बताई गयी है |यह शिवलिंग है पारद शिवलिंग ,जिसकी पूजा करके ,जिसके सामने साधना करके रावण ने अपार शक्तियाँ प्राप्त की और भगवान् महादेव का इतना बड़ा कृपापात्र बना की उसके विनाश के लिए प्रभु को स्वयं धरती पर आना पड़ा और वहां भी उन्हें भगवान् महादेव का पूजन करना पड़ा तथा रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग की स्थापना करनी पड़ी |आप समझ सकते हैं इस पारद शिवलिंग की महिमा को |पारद शिवलिंग कोई सामान्य शिवलिंग नहीं है अपितु यदि इसे पूर्ण शास्त्रोक्त पद्धति से निर्मित करके पूर्ण तंत्रोक्त पद्धति से प्राण प्रतिष्ठित कर लिया जाय और प्रतिदिन पूजन दर्शन होता रहे तो ऐसा कुछ भी नहीं जो नहीं पाया जा सकता |
            सामान्य सन्दर्भ में ,शिव तथा शक्ति दोनों के संयोग से ही सृष्टि का निर्माण होता है |इसी का प्रतीक शिवलिंग है |शिवलिंग की पूजा सिद्धिदायक होती है |भारतवर्ष में द्वादश ज्योतिर्लिंगों का विशेष महत्व है |हमारे प्राचीन ग्रंथों ,शास्त्रों तथा पुराणों में पारद शिवलिंग की पूजा को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है |इस समस्त ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ दिव्य वस्तु के रूप में पूजित रससिद्ध पारद शिवलिंग के प्रभाव से समस्त दैहिक ,दैविक और भौतिक प्रगति स्वयं सिद्ध हो जाती है |
                      पारा अमूल्य वस्तु मन जाता है ,कहा जाता है की यह भगवान भोलेनाथ के शरीर से उत्पन्न श्रेष्ठतम वीर्य रस है |कहा जाता है की इसकी तुलना ब्रह्माण्ड के किसी पदार्थ से नहीं की जा सकती |रससिद्ध पारद अष्टदोषादी से मुक्त ,सप्त कंचुकी रहित ,निर्मल ,स्निग्ध तथा कानिवान होता है |भगवान् शंकर को पारा अत्यंत प्रिय है तथा रसराज पारद भोले बाबा का शक्ति रुपी विग्रह होने के कारण समस्त सुरासुर तथा देवी-देवताओं के लिए अनुकरणीय एवं वन्दनीय है |इस अद्भुत तथा अलौकिक शक्ति संपन्न पारदेश्वर विग्रह को इसके चमत्कारिक तथा अद्भुत गुणों के कारण ही मृत्युंजय तथा अमृतेश्वर भी कहा जाता है |
                      पारद शिवलिंग के दर्शन एवं पूजन करने से मनुष्य को अति आनंद की अनुभूति होती है एवं समस्त सांसारिक बाधाओं से भी मुक्ति मिल जाती है ,अर्थात यह काया [दैहिक], वाणी तथा मानसिक पापों को हरने वाला है |दैहिक-दैविक-भौतिक बाधाओं से रक्षा करता है |यह सुख-शान्ति ,समृद्धि ,धन-संपत्ति ,ऐश्वर्य ,यश ,कीर्ति ,सफलता ,विद्या ,ज्ञान ,और बुद्धि प्रदान करने वाला है |इससे जीवन आनंदमय ,निरोगी ,धन-धान्य से परिपूर्ण रहता है ,समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं |इससे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष नामक चारो पुरुषार्थों के साथ ही आरोग्यता सहज ही प्राप्त हो जाती है |कहा जाता है की करोड़ों शिवलिंगों के पूजन का फल ज्योतिर्लिंग के एक बार पूजन से प्राप्त हो जात है और ज्योतिर्लिंगों से हजारों गुना अधिक फल पारद शिवलिंग के पूजन से प्राप्त हो जाता है |हजारों ब्रह्म हत्याओं और सैकड़ों गौ हत्याओं के पाप तो पारद शिवलिंग के दर्शन मात्र से ही दूर हो जाते हैं |पारद शिवलिंग के स्पर्श मात्र से मोक्ष प्राप्ति होती है |शिवलिंगों को सामान्यतया घर में रखने से मना किया जाता है ,इसके अपने कारण हैं ,किन्तु पारद शिवलिंग घर में रखा और पूजित किया जा सकता है |कहा गया है जिसके घर में पारद शिवलिंग है ,वह अगली कई पीढ़ियों तक के लिए ऋद्धि-सिद्धि एवं स्थायी लक्ष्मी को स्थापित कर लेता है |जो घर में रखकर पूजन -दर्शन करता है वह सभी पापों से मुक्त होकर अनेक सिद्धियाँ और धन-धान्य को प्राप्त करता हुआ पूर्ण सुख प्राप्त करता है |संसार में जितने भी शिवलिंग हैं उन सबकी पूजा का फल केवल मात्र पारद शिवलिंग के पूजन से ही प्राप्त हो जाता है |
                          शास्त्रों के अनुसार रावण रससिद्ध योगी था |उसने पारद शिवलिंग की पूजा कर शिव को प्रसन्न कर अपनी नगरी स्वर्णमयी बना ली थी |बाणासुर ने पारद शिवलिंग की पूजा कर उनसे मनोवांछित वर प्राप्त किया था |बाणभट्ट के अनुसार जो मनुष्य पारदेश्वर विग्रह की भक्ति पूर्वक पूजा अभिषेक तथा नित्य दर्शन करता है ,उसे तीनो लोकों में स्थित समस्त ज्योतिर्लिंगों एवं शिवलिंगों के पूजन का फल मिलता है |पारदेश्वर विग्रह के दर्शन से सौ अश्वमेघ यज्ञ करने ,करोड़ों गायों का दान करने तथा सहस्त्रों मन स्वर्ण दान से भी अधिक फल मिलता है |स्त्रियाँ भी पारद शिवलिंग की पूजा-उपासना करके मनोवांछित लाभ प्राप्त कर सकती हैं |उन्हें कोई दोष नहीं लगता है पारद शिवलिंग उपासना से |प्रदोष व्रतकाल और श्रावण मॉस में प्रत्येक सोमवार को प्रातः इस दिव्या पारद शिवलिंग की विशेष पूजा तथा लिंगाभिशेक करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं |जहा पारद शिवलिंग स्थापित होता है वहां ऋद्धि-सिद्धि ,शुभ-लाभ ,सुख-शान्ति ,धन-संपत्ति ,ऐश्वर्य ,कीर्ति और स्वयं भू महालक्ष्मी का स्थायी निवास होता है |वहां समस्त देवी देवता और सिद्धियों का वास होता है ,क्योकि सभी की उत्पत्ति इसी से है |उस स्थान से अनिष्ट-आपदाएं ,रोग-शोक, द्वेष -क्लेश ,दरिद्रता ,भूत-प्रेतादि पलायन कर जाते हैं |ग्रह दोष ,वास्तु दोष ,पित्र दोष , ,कुल देवी देवता दोष का शमन होता है |किसी भी प्रकार के तांत्रिक प्रयोगों का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है |किन्तु इसके लिए शुद्ध संस्कारित पारे से ही शिवलिंग निर्मित होना चाहिए और विधिवत तंत्रोक्त प्राण प्रतिष्ठित होना चाहिए |ऐसा नहीं भी है तो सामान्य लाभ तो मिलते ही हैं |
                     पारद शिवलिंग की विशिष्ट पूजा पद्धति भी होती है और इस पर विशिष्ट तांत्रिक प्रयोग भी होते हैं जैसे विवाह बाधा निवारण प्रयोग ,तांत्रिक दोष निवारण प्रयोग ,मृत्यु भय निवारक प्रयोग ,रोग मुक्ति प्रयोग ,वास्तु दोष निवारक प्रयोग ,धन-संपत्ति-सुख-समृद्धि ,ऐश्वर्या प्राप्ति प्रयोग ,आदि आदि |घर में स्थापी पारद शिवलिंग सामान्यतया अंगुष्ठ प्रमाण में होता है जिसे पूजा घर में स्थापित किया जाता है |प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग स्थापना के बाद यह अवश्य सुनिश्चित होना चाहिए की पूजा रोज हो ,क्योकि ईश्वर को घर बुलाकर स्थान देकर पूजा न देना अनुचित है |.......................................................................हर-हर महादेव 

शिवलिंग अभिषेक से मनोकामना पूर्ति होती है

शिवलिंग पूजा और शिवलिंग के अभिषेक से मनोकामना पूर्ती 
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शिवलिंग भगवान् शिव का स्वरुप माना जाता है |शिव अर्थात समस्त ब्रह्माण्ड जिसमे समाया है |अर्थात शिवलिंग समस्त ब्रह्माण्ड की स्थूल प्रतिकृति यानी शिव की प्रतिकृति |शिव के इस स्वरुप को शिवलिंग के रूप में परिभाषित किया गया है |इसके गंभीर और गूढ़ निहितार्थ भी हैं और मिथकीय कहानियां भी |यह आस्था का केंद्रबिंदु भी है और मनोकामना पूर्ती का सर्वोच्च साधन भी क्योकि यह उस सर्वोच्च सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है ,जो समस्त का नियंता है |इस शिवलिंग की पूजा की विशिष्ट पद्धति है और इस पर विशिष्ट वस्तुओं के लेप अथवा अभिषेक का भिन्न प्रभाव भी होता है |
- जब किसी का मन विचलित हो, अवसाद से भरा हो, परिवार में कलह हो रहा हो, अनचाहे दु:ख और कष्ट मिल रहे हो तब शिव लिंग पर दूध की धारा चढ़ाना सबसे अच्छा उपाय है। इसमें भी शिव मंत्रों का उच्चारण करते रहना चाहिए।
- कुल की वृद्धि के लिए शिवलिंग पर शिव सहस्त्रनाम बोलकर घी की धारा अर्पित करें।
- शिव पर जलधारा से अभिषेक मन की शांति के लिए श्रेष्ठ मानी गई है।
- भौतिक सुखों को पाने के लिए इत्र की धारा से शिवलिंग का अभिषेक करें।
- रोग मुक्ति के लिए शहद की धारा से शिव पूजा करें।
- गन्ने के रस की धारा से अभिषेक करने पर हर सुख और आनंद मिलता है।
- सभी धाराओं से श्रेष्ठ है गंगाजल की धारा। शिव को गंगाधर कहा जाता है। शिव को गंगा की धार बहुत प्रिय है। गंगा जल से शिव अभिषेक करने पर चारों पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। इससे अभिषेक करते समय महामृत्युंजय मन्त्र जरुर बोलना चाहिए। सावन माह में शिव का ऐसी धाराओं से अभिषेक व पूजा से भगवान शिव के साथ शक्ति, श्री गणेश और धनलक्ष्मी का आशीर्वाद भी मिलता हैI
शिवलिंग पूजा मन से कलह को मिटाकर जीवन में हर सुख और खुशियाँ देने वाली मानी गई है। हर देव पूजा के समान शिवलिंग पूजा में भी श्रद्धा और आस्था महत्व रखती है। किंतु इसके साथ शास्त्रोंक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक है शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है।
- जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये। क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती।
- शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे। क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरुपा देवी उमा का स्थान है।
- पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देती।
- इस प्रकार एक दिशा बचती है - वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणामुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है।
शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठक के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड़् लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुण्ड्र लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।...........................................................हर-हर महादेव

शिवलिंग शास्त्र की दृष्टि में


 क्यों है शिवलिंग के पूजन का विधान   
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ॐ माता शक्ति ने १०८ बार जनम ग्रहण किया है| शिव की प्राप्ति हेतु माता शक्ति के पास स्थूल शरीर को अमर करने का ज्ञान न होने के कारण हि उनकी मृत्यु होती गई और प्रत्येक जनम में वो शिव स्वरूप शंकर जी कि अर्धांगिनी बनती गई | जिस का प्रमाण उनके गले में माता के १०८ नर मुंडों से प्रतीत होता है | स्थूल शरीर को अमर करने का ज्ञान माता शक्ति को परमात्मा शिव ने १०८ वे जन्म में परमात्मा शिव ने दिया जब को परवत राज हिमालय की पुत्री पार्वती के नाम से व्यख्यात हुई | माता अपने १०७वें जन्म में राजा दक्ष की पुत्री बनी और उनका नाम सती कहलाया | माता सती के पिता राजा दक्षजी ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन रखा और पूर्ण पृथ्वी के राजा, महाराजाओं इत्यादि को उस यज्ञ में बुलवाया | शंकरजी उनके दामाद होते हुए भी उन को आमंत्रण नहीं दिया गया | भूतनाथ होने के कारण ही राजादक्ष उनसे घृणा करते थे | माता सती ने जब महादेवजी से यज्ञ में पधारने को कहा तो उन्होंने आमंत्रण न दिए जाने की वजह से यज्ञ में जाने से इनकार कर दिया | बिन आमंत्रण के जाने से उचित सम्मान की प्राप्ति नहीं होती | पिता मोह के कारण माता सती से नहीं रूका गया और वो यज्ञ के लिए अकेले ही चल पड़ी | माता जब यज्ञस्थल पर पहुंची तो उन्होंने देखा की पूर्ण यज्ञ में कहीं भी उनके पति महादेवजी का आसन मात्र भी नहीं है | यह देखकर माता को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने पिता राजा दक्षजी से इस बात पर तर्क किया | उस समय राजा दक्षजी ने बड़े ही हीन वचन शंकरजी के बारे में कहें जिन को माता न सुन पाई और यज्ञ के अग्नि कुंड में कूदकर स्वयं को उन्होंने भस्म कर लिया | इस बात की सूचना जब महादेवजी को मिली तो वे अत्यंत क्रोधित हुए और उनके गणों ने पूर्ण यज्ञ का विध्वंस कर दिया | महादेवजी ने राजा दक्ष का सिर काट दिया और उसके शरीर पर बकरे का सिर जोड़ दिया | माता सती के पार्थिव शरीर को उठकर शंकरजी वहां से चल दिए | माता का शरीर अग्नि में जलकर कोयला हो चुका था | शक्ति के बिना शिव फिर से अधूरे हो गए | इस समय काल में ही उनकी लिंग का पतन बारह टुकड़ों में हुआ और उसी समय ब्रह्माण्ड से यह बाराह ज्योतिलिंगों की स्थापना पृथ्वी पर हुई |
इनकी स्थापना के समय पूर्ण पृथ्वी में कंपन मच गई | जिस प्रकार से पृथ्वी का विराट है उसी प्रकार शिव बाबा का भी विराट रूप मौजूद है ब्रह्माण में जिस के दर्शनों तक पहुंचने हेतु मानव के पास कोई यंत्र नहीं है | परमात्मा शिव विराट रूप में भी हैं और ज्योर्तिबिंदू रूप में भी है | ज्योर्तिबिंदू रूप में वो परकाया प्रवेश कर पाते हैं | उनके इस विराट रूपी ज्योर्तिलिंगों ने पूर्ण सृष्टी में कोहराम मचा दिया | सृष्टि को विनाश से बचाने हेतु ब्राह्मणों ने ब्रह्माजी का आव्हान किया और इस समस्या का समाधान उनसे पूछा | उस समय ब्रह्माजी नेे स्पष्ट रूप से बताया कि शिवलिंग पूजन नारी के लिए वर्जित है |शिवलिंग पूजन के समय नारी अपने पति के बाएं हाथ पर स्थानग्रहण करेगी और शिवलिंग पूजन का फल पति- पत्नी दोनों ग्रहण कर पाएंगे | यज्ञ आदि के अनुष्ठान में पत्नी नर के दाहिने हाथ पर आसन ग्रहण करती है क्योंकि उस समय वो लक्ष्मी का रूप मानी जाती हैं | नारी अगर शिवलिंग की पूजा आराधना अकेले संपन्न करती है तो वो पाप कर्म की अभागी होती है | शिवलिंग अभिषेक पति- पत्नी दोनों द्वारा ही संपन्न होने चाहिए | ब्रह्माजी ने चारों वर्णों के लिए अलग- अलग शिवलिंग की व्याखा भी बताई है |
1. ब्राह्मण वर्ग- परशिव (मिट्टी के) बामी मिट्टी जिसमें सर्प का वास होता है |
2. छत्रिय वर्ग- सफेद मिट्टी
3. वैश्य वर्ग- पिली मिट्टी
4. शूद्र वर्ग- काली मिट्टी
मानव अपने जीवन में अनेकों प्रकार के कष्टों से घिरा रहता है | इन कष्टों के निर्वाण हेतु ही भिन्न- भिन्न तत्वों से रूद्रा अभिषेक के विधान बताऐं गए | जिस प्रकार गाय के दूध से शिवलिंग अभिषेक से स्वास्थ अच्छा रहता है उसी प्रकार से गन्ने के रस से लक्ष्मी की प्राप्ति इत्यादि- इत्यादि | जैसा कष्ट वैसा समाधान ....................................................................................हर-हर महादेव

शिवलिंग का अर्थ क्या है ?

शिवलिंग का अर्थ
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 अन्य धर्म के लोग अथवा नास्तिक अथवा नासमझ लोग शिवलिंग की पूजा की आलोचना करते है.. छोटे छोटे बच्चो को बताते है कि हिन्दू लोग लिंग और योनी की पूजा करते है..इन नासमझों को संस्कृत का ज्ञान नहीं होता है..हिन्दुओ के प्रति नफ़रत पैदा करने अथवा हिन्दुओं में ही अविश्वास और संदेह उत्पन्न करने के लिए इस तरह की बातें उड़ाई जाती हैं |हमारे तथाकथित विद्वान् भी उनकी सोच का खंडन अधिकतर नहीं कर पाते क्योकि उनमे से सब को इसके सही अर्थ का खुद ज्ञान नहीं होता | इसका अर्थ इस प्रकार है..
पहले भाषा का ज्ञान ले......
लिंग>>> लिंग का संस्कृत भाषा में चिन्ह ,प्रतीक अर्थ होता है… जबकी जनर्नेद्रीय (मानव अंग ) को संस्कृत भाषा मे (शिशिन) कहा जाता है..
शिवलिंग >>> शिवलिंग का अर्थ शिव का प्रतीक….
" शिवलिंग " शब्द में ' लिंग ' शब्द दो शब्दों से बना है, " लीन + गा (गति) " अर्थात, शिव में लीन होकर ही मनुष्य को गति प्राप्त होता है;  यानी, शिव के निराकार स्वरूप में ध्यान-मग्न आत्मा सद्गति को प्राप्त होती है, उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है।
तात्पर्य यह है कि हमारी आत्मा का मिलन परमात्मा के साथ कराने का माध्यम-स्वरूप है, शिवलिंग! 
शिवलिंग साकार एवं निराकार ईश्वर का 'प्रतीक' मात्र है, जो परमात्मा - आत्म-लिंग का द्योतक है। 
शिवलिंग शाश्वत-आत्मा का स्वरूप है, जो न जल से प्रभावित होता है, न अग्नि से, न पृथ्वी से, न किसी अस्त्र-शस्त्र से... जो अजित है, अजेय है! शिव और शक्ति का पूर्ण स्वरूप है, शिवलिंग।
>>पुरुषलिंग का अर्थ पुरुष का प्रतीक  इसी प्रकार स्त्रीलिंग का अर्थ स्त्री का प्रतीक और  नपुंसकलिंग का अर्थ है ..नपुंसक का प्रतीक —-
अब यदि जो लोग पुरुष लिंग को मनुष्य के जनेन्द्रिय समझ कर आलोचना करते है..तो वे बताये ”स्त्री लिंग ”’के अर्थ के अनुसार स्त्री का लिंग होना चाहिए… और खुद अपनी औरतो के लिंग को बताये फिर आलोचना करे—-
”शिवलिंग”’क्या है >>>>>
शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। 
स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है। शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है नाही शुरुवात | जो शाश्वत है |
ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ |  हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है|
इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते है | ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है. वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है. (The universe is a sign of Shiva Lingam.) शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतिक भी अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान है
अब बात करते है योनि शब्द पर —- मनुष्ययोनि ”पशुयोनी”पेड़-पौधों की योनि”’पत्थरयोनि”’ >>>> योनि का संस्कृत में प्रादुर्भाव ,प्रकटीकरण अर्थ होता है.. जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है.. कुछ धर्म में पुर्जन्म की मान्यता नहीं है ..इसीलिए योनि शब्द के संस्कृत अर्थ को नहीं जानते है जबकी हिंदू धर्म मे ८४ लाख योनी यानी ८४ लाख प्रकार के जन्म है अब तो वैज्ञानिको ने भी मान लिया है कि धरती मे ८४ लाख प्रकार के जीव (पेड, कीट,जानवर,मनुष्य आदि) है…. मनुष्य योनी >>>>पुरुष और स्त्री दोनों को मिलाकर मनुष्य योनि होता है..अकेले स्त्री या अकेले पुरुष के लिए मनुष्य योनि शब्द का प्रयोग संस्कृत में नहीं होता है।
शिव लिंग ऊर्जा ब्रह्मांडीय ऊर्जा प्राप्ति का माध्यम
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भारत का रेडियोएक्टिविटी मैप उठा लो तो हैरान हो जाओगे। क्योंकि भारत सरकार के नुक्लिएर रिएक्टर के अलावा सभी ज्योतिर्लिंगो के स्थानों पर सबसे ज्यादा रेडिएशन पाया जाता है |यहाँ रेडियेशन नहीं होता किन्तु रेडियेशन चित्र में रेडियेशन दिखता है अर्थात यहाँ ऊर्जा उत्पन्न होती है | शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि एक प्रकार के न्यूक्लिअर रिएक्टर्स ही हैं एक उर्जा स्रोत है ,जिनका सम्बन्ध ब्रह्मांडीय ऊर्जा धाराओं से होता है ,iइन ज्योतिर्लिंगों से ऊर्जा निकलती है जो अभिषेक करने वालों और आसपास आने वालों को प्रभावित करती है ,ज्योर्लिंगों पर अनवरत जल धारा डाली जाती है ,उनपर जल चढ़ाया जाता है ताकि वो शांत रहे।
महादेव के सभी प्रिय पदार्थ जैसे कि बिल्व पत्र, आक, आकमद, धतूरा, गुड़हल, आदि सभी न्यूक्लिअर एनर्जी सोखने वाले हैं | क्यूंकि शिवलिंग पर चढ़ा पानी भी रिएक्टिव हो जाता है तभी जल निकासी नलिका को लांघा नहीं जाता |
भाभा एटॉमिक रिएक्टर का डिज़ाइन भी शिव लिंग की तरह है |शिव लिंग से सम्बन्धित हम जिस रेडियो एक्टिविटी या रिएक्टिव जल की बात कर रहे वह वास्तव में युरेनियम ,थोरियम ,प्लुटोनियम रेडियेशन या एटामिक रिएक्टर्स जैसा रेडियेशन नहीं अपितु प्रबल उर्जा का प्रवाह है जो बिलकुल भिन्न होता है और चढ़ाया जल भी ऊर्जा संतृप्त होता है |शिवलिंग जिस वस्तु का बना होगा ऊर्जा की प्रकृति भिन्न होगी तभी कहा जाता है की कुछ विशेष प्रकार के शिवलिंग पर चढ़ाया प्रसाद ही खाया जा सकता है सभी शिवलिंग पर चढ़ा प्रसाद और जल नहीं ग्रहण किया जा सकता |यहाँ तक की शिवलिंग पर चढ़ी वस्तुएं भी तीव्र प्रभावकारी हो जाती है जैसे फल फूल पत्र आदि |इनसे अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के प्रयोग तांत्रिक कर डालते हैं |
                    शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल नदी के बहते हुए जल के साथ मिल कर औषधि का रूप ले लेता है | तभी हमारे बुजुर्ग हम लोगों से कहते कि महादेव शिव शंकर अगर नराज हो जाएंगे तो प्रलय आ जाएगी |
ज़रा गौर करो, हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ है  | आज इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारी परम्पराओं को समझने के लिए ,जिस विज्ञान की आवश्यकता है वो हमें पढ़ाया नहीं जाता और विज्ञान के नाम पर जो हमें पढ़ाया जा रहा है उस से हम अपनी परम्पराओं को समझ नहीं सकते | जिस संस्कृति की कोख से हमने जन्म लिया है वो सनातन है,, विज्ञान को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें |हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों द्वारा हजारों लाखों वर्ष पूर्व जिस वैज्ञानिक संस्कृति ,पंरम्परा को नियम बनाकर मानवजीवन का एक अभिन्न अंग बना दिया है |उसे देख कर ही आज के वैज्ञानिक दाँतो तले अंगुली दबा लेते है।.सोचिये शिव की पूजा तो आप करते हैं किन्तु शिवलिंग पूरे विश्व में पाए जाते हैं ,क्यों ,दुसरे धर्मों ,सम्प्रदायों में यह कहाँ से आया ,किसी न किसी रूप में अन्य स्थानों पर क्यों इनकी प्रतिष्ठा है |इससे आपको समझ आ जाएगा की शिवलिंग इतना महान क्यों हैं |....................................................................हर-हर महादेव 

महाशंख  

                      महाशंख के विषय में समस्त प्रभावशाली तथ्य केवल कुछ शाक्त ही जानते हैं |इसके अलावा सभी लोग tantra में शंख का प्रयोग इसी...