Sunday 17 December 2017

मंत्र -यन्त्र और तंत्र

::::::::::::::तंत्र-मंत्र-यंत्र :::::::::::::::
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तंत्र, मंत्र और यंत्र हिन्दू धर्म की प्राचीन विधायें हैं। तंत्र का पदार्थ विज्ञान, रसायन शास्त्र, आयुर्वेद ज्योतिष एवं ध्यानयोग आदि विधाओं से गहरा संबंध है। इन सबों में इसका विशेष और बुनियादी संबन्ध हैं। ये एक दूसरे के पूरक भी हैं। तंत्र की प्रयोगशाला हमारा शरीर है। तंत्र का उद्देश्य है शरीर में विद्यमान शक्ति केंद्रों को जागृत कर विशिष्ट कार्यों को सिद्ध करना । तंत्र में मंत्र -यंत्र और पदार्थ के साथ शरीर का बराबर महत्व है |
तंत्र
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यह हिन्दूओं की एक उपासना पद्धति है। भगवान शिव इसके जन्मदाता हैं। वैसे तो तंत्र की उत्पत्ति सनातन काल से ही है लेकिन धीरे-धीरे यह लुप्त होती चली गई। नवीं सदी में इस पद्धति ने चीन में प्रवेश किया फिर वहाँ से यह जापान पहुँची। इस प्रकार सारे एशिया में इसका प्रचार हुआ। इसके सिद्धांत को गुप्त रखने का प्रावधान है। झाड-फूंक  एवं जादू-टोने से भी इसका गहरा संबन्ध है। इसे कला भी कहा जा सकता है।
संस्कृत के तन’ धातु से तंत्र शब्द की उत्पत्ति हुई है। तन’ का अर्थ- विस्तार एवं र्सवव्यापकता है। त्र’ का मतलब- त्राण यानी मुक्ति करने वाला या लाभ करने वाला। कुल मिलाकर तंत्र का मतलब जिसके द्धारा र्सवकल्याण किया जा सके वही तंत्र है।
प्रत्येक क्रिया में ऊर्जा की आवश्यकता होती है और ऊर्जा से आकर्षा पैदा होता है। इस अस्तित्व में सभी वस्तुओं में आकर्षा है। हिन्दू शास्त्रों में आकर्षा शक्ति प्राप्ति की तीन प्रणाली है- मांत्रिक, यांत्रिक और तांत्रिक -
बिना आकर्षा के प्रकृति निर्जीव, जड एवं शून्य हो जाएगी। प्रकाश आकर्षा है अंधकार विकर्षा है। जब तक मन पर आधिपत्य नही होगा आकर्षा का प्रयोग सफल नही होगा। दि तंत्र’ में फिलिप राँसन लिखते हैं यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके उस पर उत्कीर्ण मंत्र का जब सही उच्चारण के साथ जप किया जाता है तो यंत्र, इष्ट की उपस्थिति से जागृत हो जाता है, और उसे बाहरी शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हंै। मनुष्य के शरीर में सात चक्र हैं, और ब्रम्हाण्ड के विभिन्न भागों में यंत्र अवस्थित हैं। शरीर के चक्रों और ब्रम्हाण्ड के यंत्रों के मध्य गहरा संबन्ध स्थापित होना ही तंत्र साधना है- जो चक्रों और यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके ही प्राप्त किया जा सकता है। अपनी महत्वपूर्ण कृति साइन्स एण्ड तंत्र’ में प्रो. अजीत कुमार कहते हैं शुद्ध सृजनात्मक सिद्धांत यंत्रों के माध्यम से स्वयं को प्रकट करते हैं और यंत्र चक्रों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। चक्र के माध्यम से ही साधक अपनी मानसिक शक्ति को जागृत करता है एवं यंत्र और चक्र के माध्यम से ही शक्ति  स्वयं को प्रक्रट करती है। तंत्र के पश्चिमी लेखकों जैसे जोसे अर्गुयेलिस और मरियम अगुयेलिस ने यंत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है – “यंत्र मस्तिष्क को मात्र एकाग्रता प्रदान करने के लिए मनुष्य द्वारा बनाए गये बाह्य उपकरण नहीं हैं। यह मानवीय चेतना में उपस्थित वास्तविक आकृतियाँ हैं जिन्हें साधक ध्यानावस्था में देख चुके हैं”। प्रत्येक कार्य के लिए सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता पडÞती है और ऐसी ऊर्जा का स्रोत भैरवी को माना गया है। भैरवी श्मशान में निवास करती हंै। इसलिए श्मशान में बड़ी ही आसानी से शांति के साथ ऊर्जा की प्राप्ति हो जाती है। तंत्र के जन्मदाता भगवान शिव भी श्मशान में ही तंत्र साधना करते थे।
यंत्र
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यंत्र कई प्रकार के होते हैं। इसे र्समर्थ एवं आवश्यकता के अनुसार स्वर्ण-रजत- ताम्र या भोजपत्र पर शुभ मुहूर्त में बनाया जाता है। यंत्रों में विन्दु, त्रिभुज, चर्तुभुज, स्वस्तिक, कमल, पदमदल इत्यादि बने होते हंै।
यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके साधक अपने इष्टदेव या किसी लोक-परलोक की आत्मा या शक्ति से संबन्ध स्थापित कर सकते हैं। महषिर् दत्तात्रेय को यंत्र विद्या का जनक माना जाता है। क्योकि  भगवान शिव ने सारे मंत्र-तंत्र को दानवों के दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया। तो फिर महर्षियों ने ज्यामितीय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, अर्द्धवृत्त, चतुष्कोण को आधार बनाकर बीज मंत्रों की सहायता से इन शक्तियों को रेखांकित करके विशिष्ट पूजा-यंत्रों का आविष्कार किया। गुरु गोरखनाथ एवं शंकराचार्य का समय तंत्र विद्या का स्वणिर्म काल था।
 यंत्रों में ज्यामितीय रेखा काफी होती है। ये कोई साधारण रेखा नहीं होती। सभी चिन्हों के अलग-अलग रहस्य भरे अर्थ और उपयोगिता होती है। कोई भी साधक इस यंत्र पर ध्यान केन्द्रित करके जन्म-मरण के रहस्य को जान सकता है।
बिन्दु -
यंत्र के बीच में बिन्दु होता है, यह पराशक्ति का प्रतीक है। इसकी बाहरी परत पर विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं और अन्त में उसी में समाहित हो जाती हैं। यह उस पर्ूण्ा का सूचक है जो र्सवव्यापक भी है। प्राकृतिक विज्ञान के अनुसार बिन्दु विश्व का बीज है। जिससे सृष्टि की उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सृष्टि का विलय भी हो जाता है।
त्रिकोण -
यह पराशक्ति के प्रथम विकास का सूचक है। चूँकि आकाश को तीन से कम रेखाओं द्वारा घेरा नही जा सकता। यंत्र का नीचे मुख वाला त्रिकोण शक्ति त्रिकोण’ कहलाता और उपरी मुखवाला शिव त्रिकोण’ कहलाता है। इस प्रकार त्रिकोण प्रजननशील योनी का प्रतीक है।
वृत्त -
पराशक्ति की असीम शक्ति का बोध वृत्त से होता है। अपनी परिधि के प्रत्येक बिन्दु से केन्द्र में स्थित बिन्दु की ओर यह सूचित करता है।
चतुष्कोण -
चतुष्कोण का मुख चारों दिशाओ कि ओर रहता है। यह आकाश की समग्रता का प्रतीक है। इसे दशों दिशाओं एवं समस्त सृष्टि का आधार माना गया है।
पद्मदल -
यंत्र में अवस्थित पद्मदल हमेशा परिधि की ओर मुख किए हुए रहता है। इससे ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह विश्व के जन्म एवं विकास की अपूर्व शक्ति का बोध कराता है। जिस प्रकार कमल जल में रहकर भी पानी और कीचड से दूर रहता है उसी प्रकार पद्मदल साधक को र्व्यर्थ की संासारिक रागों से दूर रहने की प्रेरणा देता है।
यंत्रों से संबंधित लाभ -
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श्रीयंत्र- र्सव मनोकामना पूर्ती  हेतु।
गणेश यंत्र- व्यापारिक सफलता हेतु।
श्री लक्ष्मी यंत्र -आर्थिक सफलता हेतु।
श्री बगलामुखी यंत्र- शत्रु पर विजय के लिए।
श्री महामृत्युंञ्जय यंत्र- लंबी उम्र के लिए।
श्री हनुमान यंत्र- बुरे आत्मा से बचाव के लिए।
दुर्गा यंत्र- कार्यो में सफलता के लिए।
काल माया मोहिनी यंत्र- इच्छापर्ूर्ति के लिए
मंत्र
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मंत्र शब्द मन एवं त्र के संयोग से बना है। यहाँ मन का अर्थ- विचार है और त्र का अर्थ-मुक्ति है। यानी गलत विचारों से मुक्ति। वैसे मंत्रों का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता है। मंत्र विशिष्ट शब्दों का एक जोडÞ है। जिसका उच्चारण विशिष्ट ध्वनि, तरंग, कंपन एवं अदृश्य आकृतियों को जन्म देता है। इस प्रकार मंत्र द्वारा निराकार शक्तियाँ साकार होने लगती हैं। मंत्र के लगातार जाप से उत्पन्न संवेग वायुमंडल में छिपी शक्तियों को नियंत्रित करता है और उस पर साधक का प्रभाव एवं अधिकार हो जाता है।
मंत्रों की उत्पति वेदों और पुराणों से हुई है। वेदों का हर श्लोक एक मंत्र है। वेद के अनुसार मंत्र दो प्रकार के होते हैं।
. ध्वन्यात्मक . कार्यात्मक
ध्वन्यात्मक मंत्रों का कोई विशेष अर्थ नहीं होता है। इसकी ध्वनि ही बहुत प्रभावकारी होती है। क्योंकि यह सीधे वातावरण और शरीर में प्रवेश कर एक अलौकिक शक्ति से परिचय कराती है। इस प्रकार के मंत्र को बीज मंत्र कहते हंै।
जैसे- ओं, ऐं, ह्रीं, क्लीं, श्रीं, अं, कं, चं आदि।
कार्यात्मक मंत्रों का उपयोग पूजा पाठ में किया जाता है। जैसे नमः शिवाय या श्री गणेशायः नमः इत्यादि।
प्रत्येक मंत्र का अलग-अलग उपयोग एवं प्रभाव है। यहाँ मैं केवल ओम’ की व्याख्या करता हँू। इस मंत्र का संबन्ध नाभि से है। नाभि से जो श्वास के साथ उच्चारण होता है वह सीधे हमारी कुंडलिनी तक पहुंचता है। वैसे मंत्रों का उच्चारण मानसिक रुप से ही लाभकारी होता है लेकिन बीज मंत्रों का उच्चारण ध्वनि के साथ करना लाभकारी होता है। दोनों आँखों के मध्य के भाग को तीसरा नेत्र कहा जाता है। यहाँ पर छठा चक्र अवस्थित है। इस बीज मंत्र के प्रभाव से नाभि से लेकर मस्तिष्क के भीतर बने सहस्त्र दल कमल तक एक स्वरूप अपने आप बनता है। इसकेे लगातार उच्चारण से सिद्धि प्राप्त होती है।
मंत्र में अद्भुत और असीमित शक्तियाँ निहित हैं। कोई भी मंत्र अपने आप में पूर्ण और भव्य है। साधक विभिन्न मंत्रों का प्रयोग विभिन्न शक्तियों को प्राप्त करने के लिए करते हैं। यह एक विराट विज्ञान है। केवल तंत्र शास्त्र पढÞकर कोई तांत्रिक नहीं हो सकता। बिना गहन साधना के कुछ भी संभव नही है। इसमें सिद्ध गुरु की भी आवश्यकता होती है। यदि गुरु मिले तो शुद्ध हो कर शुभ मर्ुर्हूत में मंत्र पाठ करें। यंत्र पूजन करें। शिव या हनुमान चालिसा और आरती का जाप करें। फिर साधना प्रारम्भ करें।
मंत्र साधना में पाँच शुद्धियाँ अनिवार्य है। भाव शुद्धि, मंत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, देह शुद्धि और स्थान शुद्धि। इसके अलावे पर्ूव दिशा में बैठकर जाप करना लाभकारी होता है। अपनी बार्ँइ तरफ दीपक रखें और दार्ँइ तरफ धूप। शुभ मुहर्ूत में निश्चित संख्या में संकल्प करके जाप प्रारम्भ करें। इसके लिए अधिक उपयोगी समय होली, दीपावली, महानवमी, चंद्र या र्सर्ूय ग्रहण, अमावस्या, सोमवती अमावस्या, इत्यादि हैं। सभी इष्ट के लिए अलग-अलग प्रकार की मालाओं का विधान है। मालाओं में १०८ दाने भगवान शिव के शिवसूत्र’ में वणिर्त १०८ ध्यान पद्धतियों का सूचक है।
शिव के लिए रुदाक्ष की माला, हनुमान के लिए रक्त चन्दन या मंूगे की माला, विष्णु के लिए तुलसी या चन्दन, लक्ष्मी के लिए कमल गट्टे एवं अधिकांश कार्यों के लिए स्फटिक की माला उपयोगी होती है। अलग-अलग कार्यो के लिए माला के दानों की संख्या का विशेष महत्व होता है। जैसे -मोक्ष प्राप्ति के लिए २५ दानों की माला, धन और लक्ष्मी के लिए ३० दानों की माला, निजी स्वार्थ के लिए २७ दानों की माला, प्रिया प्राप्ति के लिए ५४ दानों की माला, और समस्त कार्याें एवं सिद्धियों के लिए १०८ दानों की माला का विधान है।..........................................हर -हर महादेव 

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