Monday 24 June 2019

कापालिक क्या होते हैं ?


कापालिक : भैरवी तंत्र साधक
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           भारतीय साधना अथवा उपासना जगत में पांच सम्प्रदाय रहे हैं |शैव ,शाक्त ,वैष्णव ,सौर और गाणपत्य |सौर और गाणपत्य सम्प्रदाय को मानने वाले अब कम पाए जाते हैं जबकि वैष्णव सम्प्रदाय अधिकतर वैदिक मार्गी और कर्मकांड की प्रमुखता वाले सांसारिक लोग अथवा सन्यासी मानते हैं |तंत्र जगत में मूल रूप से शैव और शाक्त सम्प्रदाय हैं |इनमे कापालिक सम्प्रदाय के लोग शैव सम्प्रदाय के अंतर्गत आते हैं जिनके मुख्य आराध्य शिव हैं |ये लोग मानव खोपड़ियों को पात्र के रूप में उपयोग करते हैं और उसके माध्यम से ही खाते पीते हैं इसलिए इन्हें कापालिक कहा जाता है |माहेश्वर सम्प्रदाय के चार मूल सम्प्रदायों में कापालिक सम्प्रदाय भी है |इन्हें कापालिक शैव कहा जाता है कापालिक संप्रदाय को महाव्रत-संप्रदाय भी माना जाता है। इसे तांत्रिकों का संप्रदाय माना गया है। नर कपाल धारण करने के कारण ये लोग कापालिक कहलाए। कुछ विद्वान इसे नहीं मानते हैं। उनके अनुसार कपाल में ध्यान लगाने के चलते उन्हें कापालिक कहा गया। पुराणों अनुसार इस मत को धनद या कुबेर ने शुरू किया था।
                बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के संप्रदाय विद्यमान थे। सरबरतंत्र में 12 कापालिक गुरुओं और उनके 12 शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं। गुरुओं के नाम हैं- आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि। शिष्यों के नाम हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि। ये सब शिष्य तंत्र के प्रवर्तक रहे हैं। कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय है जो अपुराणीय था |इन्होने भैरव तंत्र तथा कॉल तंत्र की रचना की |कापालिक सम्प्रदाय पाशुपत या शैव सम्प्रदाय का वह अंग है जिसमे वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है |कापालिक सम्प्रदाय के अंतर्गत नकुलीश तथा लकुलीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है |यह कहना कठिन है की लकुलीश [जिसके हाथ में लकुट ] हो ऐतिहासिक व्यक्ति था या काल्पनिक |इनकी मूर्तियाँ लकुट के साथ हैं ,इस कारण इन्हें लकुटीश कहते हैं |इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि में तो पाशुपत सम्प्रदाय की उत्पत्ति का समय .पूदूसरी शताब्दी है ,किन्तु जिस तरह तांत्रिक सम्प्रदाय वैदिक युग में भी था उससे अनुमान है की यह इससे पूर्व गुप्त और समाज से दूर क्रियाशील था |
कापालिक सम्प्रदाय के रहन -सहन और साधना पद्धतियों से ज्ञात होता है की इसका मूल उद्गम हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र हैं |चूंकि यह मूलतः कुंडलिनी साधना से सम्बंधित सम्प्रदाय रहा है और यह तंत्र साधना से कुंडलिनी जागरण में विश्वास रखता है अतः इनकी पद्धतियाँ भी उसी अनुरूप हैं |पर्वतीय पर्यावरण के अनुरूप रहने के लिए इन्होने मांसमदिरा और पंचमकार को अपनाया और काम भाव द्वारा कुंडलिनी जागरण को माध्यम बनाने से इन्होने मैथुन को इसमें स्थान दिया |इनका पंचमकार उपयोग बहुत हद तक एक विशिष्ट वातावरण के अनुकूल रहने और ऊर्जा प्राप्ति के लिए था ,केवल मैथुन और मुद्रा कुंडलिनी साधना के लिए विशिष्ट आवश्यक तत्व के रूप में लिया गया था |मांस ,मदिरा ,मीन विशिष्ट वातावरण की अनुकूलता और एकाग्रता हेतु था जो अलग पर्यावरण में आवशक तत्व नहीं था किन्तु चूंकि बाद के अधिकतर वाम मार्गी पंथ और सम्प्रदाय इसी से विकसित हुए अतः सबमे यह आता गया और कुछ के अतिरिक्त अधिकतर में विकृत रूप लेता गया |
              कापालिक मत में प्रचलित साधनाएं बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं ,अर्थात इनसे यह बौद्धों की वज्रयान सम्प्रदाय में भी गया ,चूंकि वज्रयानों का भी उद्गम हिमालयीय क्षेत्र ही था |इनकी पद्धतिय अन्य शैव सम्प्रदायों और नाथ सम्प्रदाय में भी गयी |यक्ष -देव परम्परा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योकि तीनो में ही प्रायः कई देवता समान गुण -धर्म और स्वभाव के हैं |चर्याचर्यविनिश्चय की टीका में एक श्लोक आया है जिसमे प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत की स्त्रियों को स्त्री -जन -साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गयी |
             पाशुपत सम्प्रदाय से ही कालमुख और कापालिक शाखाएं उद्भूत हुई |कालमुख मुख्य रूप से राज दरबारों और नगरों में सीमित रहा किन्तु कापालिक मत दक्षिण और उत्तर भारत में गुह्य साधना के रूप में फैला |कापालिकों के देवता माहेश्वर थे |गोरक्ष सिद्धांत संग्रह के अनुसार श्री नाथ के दूतों ने जब विष्णु के चौबीस अवतारों के कपाल काट लिए तब वे कापालिक कहलाये |इससे तथा बहुत सी अन्य कथाओं के द्वारा वैष्णव सम्प्रदाय से कापालिक या शैव सम्प्रदाय का विरोध लक्षित होता है |अधिकतर कहानियों में शिव को राक्षसों और दानवों का उपास्य देव बताया जाता है और उनकी शक्ति से वे देवताओं को भी पराजित करते हैं |यह भी इन्ही सम्प्रदायों की आपसी विरोधात्मक रचनाएँ हैं |आर्य लोग विष्णु ,इंद्र ,रूद्र आदि के आराधक थे जबकि आर्येतर जातियां शिव जैसे देवता की उपासना करती थी |बाद में भक्तिवाद का प्रभाव शैव धर्म पर पड़ा और वैदिक देवता तथा आर्येतर स्रोत के देवता एक हो गए |रूद्र को शिव कहा जाने लगा और अन्य देवताओं को भी आपस में मिला दिया गया |वैदिक कर्मकांड ,तंत्र में घुस गया |भक्तिवादी उपासना में शिव उदार और भक्त वत्सल चित्रित किये गए |गुह्य साधनाओं में शिव का आदिम रूप न्यूनाधिक रूप में विद्यमान रहा जिसके अनुसार वे विलासी और घोर क्रियाकलापों से सम्बद्ध थे |
           बौद्ध सम्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्री साहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गयी है और बौद्ध साधक अपने को कपाली कहते थे |[चर्यापद ११ ,चर्या -गीत -कोष ]|यह प्रकट करता है की बौद्ध सम्प्रदाय से पहले से कापालिक सम्प्रदाय था और बौद्ध सम्प्रदाय ने इनके काफी कुछ नियम और पद्धतियाँ अपनी साधनाओं में ली हैं |प्राचीन साहित्य [जैसे मालती माधव ]में कपाल कुंडला और अघोरघंट का उल्लेख आया है |इस ग्रन्थ से कापालिक मत के सम्बन्ध में कुछ स्थूल तथ्य स्थिर किये जा सकते हैं |कापालिक मत ,नाथ संप्रदायियों और हठ योगियों की तरह चक्र और नाड़ियों में विश्वास करता था |उसमे जीव और शिव में अभिन्नता मानी गयी है |
            योग से ही शिव का साक्षात्कार संभव है |शिव का शक्ति संयुक्त रूप ही समर्थ और प्रभावकारी है |शिव और शक्ति के इस मिलनसुख को ही कापालिक अपनी कपालिनी के माध्यम से अनुभव करता है जिसे वह महासुख की संज्ञा देता है |सोम को कापालिक [ उमा ]शक्ति सहित शिव का भी प्रतीक मानता है और उसके पान से उल्लसित हो योगिनी के साथ विहार करते हुए अपने को कैलास स्थित शिव उमा जैसा अनुभव करता है |मद्य ,मांस ,मत्स्य ,मुद्रा और मिथुन -इस पंचमकारों के साथ कापालिकों ,शाक्तों और वज्रयानी सिद्धों का समानतः सम्बन्ध था और पूर्व मध्यकाल की साधनाओं में इनका महत्वपूर्ण स्थान था |
              कापालिक साधना एक वाम मार्गीय तीव्र प्रभावी साधना पद्धति रही है जिससे इसके साधकों को अतुलनीय शक्तियां और सिद्धियाँ प्राप्त होती थी ,चूंकि यह कुंडलिनी से सम्बंधित साधना भी रही है और इसमें नारी को भी सहयोगिनी बनाया जाता रहा है ,इसलिए कापालिक साधना को विलास और वैभव का परिरूप मानकर आकर्षणबद्ध कई साधक इसमें शामिल हुए और उद्देश्य पवित्र होने से उचित स्थान नहीं प्प्राप्त कर सके ,किन्तु उन्होंने इसे भोग का मार्ग बना दिया और इसके मूल स्वरुप को विकृत जरुर कर दिया |मूल कापालिक ,समाज से दूर रहा और धीरे -धीरे इन तथाकथित कापालिकों को देखकर निर्लिप्त होता गया और मूल साधना लगभग विलुप्त हो गई |मूल अर्थों में कापालिकों की चक्र साधना एक उत्तमोत्तम साधना थी किन्तु इसे भोग विलास तथा काम पिपासा शांत करने का साधन बना दिया गया |इसमें आई विकृतियों और भ्रष्ट साधकों के कारण धीरे -धीरे इस मार्ग को घृणा भाव से देखा जाने लगा |जो सही अर्थों में कापालिक थे ,उन्होंने पृथक -पृथक होकर व्यक्तिगत साधनाएं शुरू कर दी |आदि शंकराचार्य तक आते आते इसका मूल स्वरुप विलुप्त होकर विकृत रूप ही दिख रहा था |आदि शंकराचार्य ने कापालिक सम्प्रदाय में अनैतिक आचरण का विरोध किया ,जिससे इस सम्प्रदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा नेपाल के सीमावर्ती इलाके में तथा तिब्बत में चला गया |यह सम्प्रदाय तिब्बत में लगातार गतिशील रहा ,जिससे की बौद्ध कापालिक साधना के रूप में यह सम्प्रदाय जीवित रह सका |
असंख्य इतिहारकार मानते हैं की इसी सम्प्रदाय से शैव -शाक्त -कौल मार्ग का प्रचलन हुआ |इस सम्प्रदाय से सम्बंधित साधनाएं अत्यधिक महत्वपूर्ण रही हैं |कापालिक चक्र में मुख्य साधक भैरव तथा साधिका को त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है ,तथा काम शक्ति के विभिन्न साधन से इनमे असीम शक्तियां जाती हैं |फल की इच्छा मात्र से अपने शारीरिक अवयवों पर नियंत्रण रखना या किसी भी प्रकार के निर्माण तथा विनाश करने की बेजोड़ शक्ति इस मार्ग से प्राप्त की जा सकती थी |इस मार्ग में कापालिक अपनी भैरवी साधिका को पत्नी के रूप में भी स्वीकार कर सकता था |इनके मठ जीर्ण शीर्ण अवस्था में उत्तरी पूर्व राज्यों में आज भी देखे जाते हैं |
             कापालिक साधनाओं में महाकाली ,भैरव ,चाण्डाली ,चामुंडा ,शिव तथा त्रिपुरा जैसे देवी -देवताओं की साधना होती है |वहीं बौद्ध कापालिक साधना में वज्र भैरव ,महाकाल ,हेवज्रा जैसे तिब्बती देवी -देवताओं की साधना होती है |पहले के समय में मन्त्र मात्र से मुख्य कापालिक ,साथी कापालिकों की काम शक्ति को न्यूनता या उद्वेग देते थे ,जिससे योग्य मापदंड में यह साधना पूरी होती थी |इस प्रकार यह अद्भुत मार्ग लुप्त होते हुए भी गुप्त रूप से सुरक्षित तो है पर सामान्य के लिए अप्राप्य है |विभिन्न तांत्रिक मठों में आज भी गुप्त रूप से कापालिक अपनी तंत्र साधनाओं को करते हैं |
जो समाज में भैरवी साधना करने या करवाने के दावे कर रहे अथवा जो हिमालय क्षेत्र के विभिन्न मठों ,आश्रमों के नाम पर खुद को महागुरु प्रचारित कर रहे वास्तव में वह तो भैरवी साधक हैं , कापालिक , कौल |यह केवल इन आश्रमों ,मठों के नाम पर समाज में व्यवसाय कर रहे हैं और लोगों को लूट रहे हैं |जो भोग लिप्सा ,कापालिक सम्प्रदाय को विकृत कर गई आज उससे बढ़कर बचे -खुचे तंत्र को भी यह महागुरु -घंटाल समाप्त करने पर अमादा हैं |भोली भाली जनता और लोग अपनी समस्याओं से निजात पाने अथवा शक्ति ,समृद्धि पाने के लालच में इनके हाथों मूर्ख बन रहे |वास्तव में जो साधक हैं वह खुद को प्रचारित करते हैं , खुद को व्यक्त करते हैं |उनका तो बस एक ही लक्ष्य होता है अपनी मुक्ति |चूंकि उनके पास शक्ति और सिद्धि होती है अतः इस तरह प्रचार करने और दीक्षाएं बांटने की उन्हें जरुरत ही नहीं होती |वह तो समाज और लोगों से दूर खुद में रमा रहता है |समाज में रहने वाला कुंडलिनी साधक तक खुद को कभी व्यक्त नहीं करता |.......................................................हरहर महादेव 

Thursday 20 June 2019

शिव महिम्न स्तोत्रं [ Shiva Mahinma Stotram ]

शिव महिम्न स्तोत्रं :: कथा और अर्थ 
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शिव महिम्न: स्तोत्रम शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है| ४३ क्षन्दो के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है| स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव को प्रसन्न कर के उनसे क्षमा प्राप्ति की गई थी |
कथा कुछ इस प्रकार के है …
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था| वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर बागा का निर्माण करवाया| जिसमे विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे| प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे | फिर एक दिन … पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया| अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए | पर ये तो आरम्भ मात्र था … बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे| पुष्पदंत अपने दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहा | और फिर … राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला| उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया| रजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पेरो से कुचल दिया| फिर क्या था| इससे पुष्पा दंत की दिव्या शक्तिओं का क्षय हो गया| तब… पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था | अपनी गलती का बोध होने परा उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा करा पुष्पदंत के दिव्या स्वरूप को पुनः प्रदान किया |
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः .
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः .. १..
हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं| मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूँ जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो| पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं| जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भे अपने यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ|
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः .. २..
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है| आपके सन्दर्भ में वेदा भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं| आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठीण है मैं आपका वंदना करता हूँ|
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् .
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता .. ३..
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपने सिमित क्षमता का बोध होते हुए भे मैं इस विशवास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूँ के इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धी का विकास होगा |
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः .. ४..
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं| तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे हे प्रकाशित हैं| आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है| इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है |
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च .
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः .. ५..
हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिस करते हैं| वो कहते हैं की अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इसा श्रिष्टी को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं| वेद ने भी स्पष्ट किया है की तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता |
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति .
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे .. ६..
हे परमपिता !!! इस श्रृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)| इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य हे की आप पर संसय का कोइ तर्क भी नहीं हो सकता |
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च .
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव .. ७..
विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं | पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हरा मार्ग आप तक ही पहुंचता है |
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति .. ८..
हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं| पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भष्म मात्र है| अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम एश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है| आप इच्छा रहित हीं तथा स्वयं में ही स्थित रहते हैं |
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये .
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता .. ९..
हे त्रिपुरहंता !!! इस संसारा के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न माता हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है| अन्य इसे नित्यानित्य बताते हीं. इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ होती जा रही है |
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः .
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति .. १०..
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: उपर एवं नीचे की दिशा में गए| पर उनके सारे प्रयास विफल हुए| जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए| क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् .
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् .. ११..
हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका ? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे | हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था|
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः .
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः .. १२..
हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की| हे महादेव आपने अपने सहज पाँव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया| फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा| वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा| अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका|
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः .
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः .. १३..
हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक अश्वर्यशाली बन सका ताता तीनो लोकों पर राज्य किया| हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः .
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः .. १४..
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया| समुद्र से आने मूल्यवान वस्तुएँ परात्प हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बाट लिया| परा जब समुन्द्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही सृष्टी समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए| हे हर तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया| वह विष आपके कंठ में निस्किर्य हो कर पड़ा है| विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया| हे नीलकंठ आश्चर्य ही है की ये विकृति भी आपकी शोभा ही बदती है| कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है|
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः .
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः .. १५..
हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही | पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तक्षण ही भष्म करा दिया| श्रेष्ठ जानो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता|
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् .
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता .. १६..
हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हितु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती है, आपके हाथो के परिधि से टकरा कार ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं| विष्णु लोक भी हिल जाता है| आपके जाता के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है| आशार्य ही है हे महादेव कि अनेको बार कल्याणकरी कार्य भे भय उतपन्न करते हैं |
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते .
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः .. १७..
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बिच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती है| पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टीगोचर होती है| ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है|
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति .
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः .. १८..
ही शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया| हे शम्भू इसा वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है| आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् .
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् .. १९..
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमाल कम पाया| तब भक्ति भाव से हरी ने अपने एक आँख को कमाल के स्थान पर अर्पित कर दिया| उनकी यही अदाम्ह्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं.
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते .
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः .. २०..
हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया| आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं|
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः .
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः .. २१..
हे प्रभु !!! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसा परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है| दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि समलित हुए| फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ| आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्ष्द्म्बेश में क्यों न हो |
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा .
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः .. २२..
एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पे ही मोहित हो गया| जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरु धारण करा भागने की कोशिस की तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे| हे शंकर तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की और कूच किया| आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भगा निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं|
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि .
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः .. २३..
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुई| ये शंका निर्मुर्ल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिस की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया|
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः .
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि .. २४..
हे भोलेनाथ!!! आप स्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं| ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं| तबभी हे स्मशान निवासी आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदाई हे प्रतीत होता है क्योकि हे शंकर आप मनोवान्चिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते|
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः .
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् .. २५..
हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पदाति को अपनाते हैं जैसे की स्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि| इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वो वास्तव में आपही हैं हे महादेव!!!
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च .
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि .. २६..
हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नी, जल एवं वायु हैं | आप ही आत्मा भी हैं| हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों |
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति .
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् .. २७..
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों, तथा त्रिदेवों को इंगित करता है| हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, औरो त्रिवेद के समागम हैं|
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् .
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते .. २८..
हे शिव विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान| हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामो से स्तुति करता हूँ |
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः .
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः .. २९..
हे त्रिलोचन आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी| आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से परे भी |
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः .
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः .. ३०..
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ | हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ| हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सबो का पालन करने वाले हैं| आपको नमस्कार है| आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं| हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ |
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः .
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् .. ३१..
हे शिव आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है| अपनी सिमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूँ? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूँ |
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी .
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति .. ३२..
यदि कोइ गिरी (पर्वत) को स्याही, सिंधु तो दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है|
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य .
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार .. ३३..
इस स्तोत्र की रचना पुश्प्दंता गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है तो गुनातीत हैं |
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः .
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च .. ३४..
जो भी इसा स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है|
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः .
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् .. ३५..
महेश से श्रेष्ठ कोइ देवा नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से उपर कोई सत्य नहीं.
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः .
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् .. ३६..
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इसा स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते |
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः .
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः .. ३७..
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था| अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्या स्वरूप से वंचित हो गया| तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया |
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः .
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् .. ३८..
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है |
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् .
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् .. ३९..
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख की प्राप्ति होती है |
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः .
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः .. ४०..
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है | प्रभु हमसे प्रसन्न हों|
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर .
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः .. ४१..
हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता| हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है |
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः .
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते .. ४२..
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है |
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण .
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः .. ४३..
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है | इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है |..इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् …………………………………………………………..हर- हर महादेव 

महाशंख  

                      महाशंख के विषय में समस्त प्रभावशाली तथ्य केवल कुछ शाक्त ही जानते हैं |इसके अलावा सभी लोग tantra में शंख का प्रयोग इसी...