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साधारनतया यह विश्वास किया जाता है की मंत्र ,यन्त्र, पंचमकार ,जादू ,टोना आदि जिस पद्धति में हो वही तंत्र है |कुछ इस मत के हैं की पंचमकार ही सभी तंत्रों का आवश्यक
अंग है |पंचमकार का अर्थ है जिसमे पांच मकार अर्थात पांच म शब्द से शुरू होने वाले अवयव आये यथा मांस-मदिरा-मत्स्य-मुद्रा और मैथुन |कौलावली निर्णय में यह मत दिया है की मैथुन से बढ़कर कोई तत्व् नहीं है| इससे साधक सिद्ध हो जाता है ,जबकि केवल मद्य से भैरव ही रह जाता है ,मांस से ब्रह्म ,मत्स्य से महाभैरव और मुद्रा
से साधकों
में श्रेष्ठ हो जाता है |केवल मैथुन से ही सिद्ध हो सकता है |
इस सम्बन्ध में कुछ बातें ध्यान देने की हैं |प्रथम: पंचामकारों का सेवन बौद्धों की बज्रयान शाखा में विकसित हुआ |इस परंपरा
के अनेक सिद्ध, बौद्ध एवं ब्राह्मण परंपरा में सामान रूप से गिने जाते हैं |बज्रयानी चिंतन ,व्यवहार और साधना का रूपांतर ब्राह्मण परंपरा
में हुआ ,जिसे वामाचार या वाम मार्ग कहते हैं |अतः पंचमकार केवल वज्रयानी साधना और वाम मार्ग में मान्य है |वैष्णव, शौर्य, शैव ,व् गाणपत्य तंत्रों में पंचमकार को कोई स्थान नहीं मिला |काश्मीरी तंत्र शास्त्र में भी वामाचार को कोई स्थान नहीं है |वैष्णवों को छोड़कर शैव व् शाक्त में कहीं कहीं मद्य, मांस व् बलि को स्वीकार कर लिया है ,लेकिन मैथुन को स्थान नहीं देते |
वाममार्ग की साधना में भी १७-१८ वि सदी में वामाचार के प्रति भयंकर प्रतिक्रिया हुई थी |विशेषकर महानिर्वाण तंत्र ,कुलार्णव तंत्र ,योगिनी तंत्र ,शक्ति-संगम तंत्र आदि तंत्रों में पंचाम्कारों के विकल्प
या रहस्यवादी अर्थ कर दिए हैं |जैसे मांस के लिए लवण ,मत्स्य
के लिए अदरक ,मुद्रा के लिए चर्वनिय द्रव्य , मद्य के स्थान पर दूध ,शहद ,नारियल
का पानी ,मैथुन के स्थान पर साधक का समर्पण
या कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रार में विराजित शिव से मिलन |यद्यपि इन विकल्पों में वस्तु भेद है ,लेकिन महत्वपूर्ण यह है की वामाचार के स्थूल पंचतत्व शक्ति की आराधना के लिए आवश्यक नहीं हैं |लेकिन यह भी सही है की अभी भी अनेक वामाचारी पंचमकरो का स्थूल रूप में ही सेवन करते हैं |अतः शक्ति आराधना
के लिए स्थूल रूप में पंचमकार न तो आवश्यक है न ही उनसे कोई सिद्धि प्राप्त होने की संभावना है | सारे पृष्ठभूमि पर दृष्टि
डालने पर ज्ञात होता है की मूलतः पंचमकारों के उपयोग की शुरुआत संभवतः
आवश्यक तत्व के रूप में नहीं हुई होगी ,अपितु यह तात्कालिक सहजता के अनुसार साधना को परिवर्तित करने के लिए हुई होगी |जब यह शुरू हुआ उस परिवेश
के अनुसार
मांस-मदिरा-मत्स्य का उपयोग करने वालों के लिए एक साधना पद्धति का विकास हुआ होगा जिसमे यह पदार्थ
अनुमान्य किये गए ,सामान्य वैदिक साधनों
में मैथुन की वर्जना रहती है जिससे भी असुविधा महसूस हुई होगी और इसे अनुमन्य कर इसके साथ विशेष विधि और नियमो का विकास किया गया ,साधनाओं में पहले से मुद्रादी का उपयोग होता था इसे सम्मिलित कर लिया गया |कुल मिलाकर
एक ऐसी पद्धति विकसित की गयी जिसमे सामान्य जन भी भागीदारी कर सकें |चूंकि यह जन सामान्य के पारिवारिक और दैनिक जीवन के अनुकूल
था अतः इसका बहुत तेजी से विकास और विस्तार हुआ ,साथ ही सुधार भी आये और कुछ दोष भी कुछ जगहों पर जुड़ते गए |किन्तु
मूल रूप से यही आवश्यक
तत्व नहीं थे ,इनके वैकल्पिक स्वरुप
भी समानांतर थे और ग्राह्य भी हुए |शक्ति साधना के क्रम में शारीरिक ऊर्जा और उग्रता बढ़ाने के साथ ही दैनिक असुविधा के दृष्टिगत इनका विकास हुआ किन्तु विकल्पों के साथ भी साधना संभव थे और होते भी थे |अतः यह कहना की यह आवश्यक तत्व हैं निरर्थक है |...................................................................हर-हर महादेव
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