Sunday 17 December 2017

नकारात्मक-सकारात्मक ,ऋणात्मक और धनात्मक ऊर्जा

::::::::::::::नकारात्मक-सकारात्मक ,ऋणात्मक और धनात्मक ऊर्जा या शक्ति:::::::::::::::
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हमारा ब्रह्माण्ड ऊर्जा या शक्ति से संचालित है अथवा कह सकते हैं सब कुछ ऊर्जा रूप है |यह उर्जायें तीन तरह की होती है |ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त दो तरह की उर्जायें है ,ऋणात्मक और धनात्मक |इन्ही से समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित है और इन्ही के बीच होने वाली क्रियाएं ब्रह्माण्ड की क्रियाशीलता का कारण हैं |अनंत ब्रह्माण्ड में सभी और इनकी आपसी क्रिया के फलस्वरूप निर्माण और विनाश होता रहता है |धनात्मक और ऋणात्मक ऊर्जा सर्वत्र व्याप्त है |इनके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की ऊर्जा भी ग्रहों पर सृष्टि के आसपास व्याप्त होती हैं जिसे हम नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जा कहते हैं |धनात्मक-ऋणात्मक के संयोग से सृष्टि का निर्माण होता है |पर उसका नियमन निचले स्तर पर सकारात्मक ऊर्जा द्वारा होता है और इसमें व्यतिक्रम नकारात्मक ऊर्जा द्वारा उत्पन्न होता है |इन नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जा में जब कभी असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तो उपद्रव और विक्षोभ होने लगता है और सृष्टि अव्यवस्थित हो जाती है |कभी कभी इनके नियंत्रण हेतु धनात्मक अथवा ऋणात्मक सृष्टिकारी ऊर्जा को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है ,जिसे हम ईश्वरीय अवतार के रूप में जानते हैं |किसी विस्तृत क्षेत्र में अथवा बड़े पैमाने पर जब असंतुलन उत्पन्न होता है तब मूल उर्जाओं अर्थात देवी-देवताओं को अवतरित होना पड़ता है उन्हें नियंत्रित अथवा नियमित करने के लिए |कभी कभी यह उर्जाये किसी मानव अथवा जीव को अपना प्रतिनिधि भी बनाती हैं और उसे अपनी ऊर्जा प्रदान कर प्रकृति के नियमन में सहयोग प्रदान करती हैं |नकारात्मक ऊर्जा पृथ्वी अथवा ग्रहों की उपरी सतह से उत्पन्न होती हैं और सतह के आसपास ही इनका प्रभाव क्षेत्र होता है ,|ग्रहों पर उपस्थित जीवन पर भी अन्य ग्रहों से उत्पन्न उर्जायें प्रभावित करती हैं किन्तु यह केवल नकारात्मक ही नहीं होती अपितु प्रकृति के अनुसार किसी जीवन के लिए सकारात्मक तो किसी के लिए नकारात्मक होती है |किन्तु जिस गृह पर सृष्टि है उसके सतह के आसपास सकारात्मकता के अभव में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है वह नकारात्मक ही होती है |यद्यपि ग्रह के अंदरूनी हिस्से अर्थात अन्दर के भाग में इनकी उपस्थिति कम होती है और सौरमंडल के परिप्रेक्ष्य में यह ऊर्जा ऋणात्मक होती है |जीवन के लिए यह धनात्मक ही रहती है |ग्रहों की अपनी ऊर्जा सौरमंडल के परिप्रेक्ष्य में तो ऋणात्मक होती है किन्तु वहां उपस्थित जीवन के लिए धनात्मक होती है |सौरमंडल में धनात्मक ऊर्जा का मुख्य स्रोत उस सौरमंडल का सूर्य और तारे होते हैं जो प्रकाश और ऊर्जा उत्पन्न कर सकें ,आकाशगंगा के परिप्रेक्ष्य में यह सूर्य और तारे ऋणात्मक होते हैं और इन्हें ऊर्जा प्रदान करने का स्रोत अन्य होता है ,आकाशगंगा भी ब्रह्माण्ड के परिप्रेक्ष्य में ऋणात्मक है और उसका धनात्मक कहीं और होता है ,अंतिम धनात्मक ऊर्जा का स्रोत जिससे सभी को उर्जायें प्राप्त होती हैं वह परम शिव है , है जो अनंत ब्रह्माण्ड में भी फैला है और सभी को उर्जिकृत भी करता है |इसी की क्रिया हेतु इनके विपरीत इसी से एक ऊर्जा उत्पन्न होती है जिसे हम ऋणात्मक के रूप में जानते हैं ,जिसे हम शक्ति के रूप में जानते हैं ,यह समस्त क्रियायो की संचालक होती है ,किन्तु यह दोनों एक दुसरे के पूरक होते हैं और साथ रहकर ही क्रिया करते हैं |अलग होने पर निष्क्रिय स्वरुप में निराकार परमब्रह्म हो जाते हैं और निर्लिप्त हो जाते हैं |...................................................................हर-हर महादेव 

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