Sunday 17 December 2017

तंत्र और ब्रह्मज्ञान

ब्रह्म ज्ञान ,सदाशिव और  तन्त्र
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ब्रह्म-ज्ञान और तन्त्र का साथ अनादि काल से रहा है। सही मायने में यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन कलियुग में ब्रह्म-ज्ञान और तन्त्र को अलग-अलग कर दिया गया है। कलयुग में तन्त्र का इतना वीभत्स स्वरूप आम व्यक्ति को दिखाया गया कि वह तन्त्र और तान्त्रिक के नाम मात्र से डरने लगा। तन्त्र का वह काला पन्ना जो की दुश्मनों के लिऐ या दुष्टों के सर्वनाश के लिऐ तान्त्रिक इस्तेमाल करते थे, कलियुग में धन के लोभी उसी काले तन्त्र को आम व्यक्ति पर इस्तेमाल करने लगे। विधि के विधान का निरादर करने वाले इन लोभी तांत्रिकों का इतना भयावह अन्त होता है, कि इनकी मृत्यु के उपरान्त इनका कोई नाम लेवा तक नहीं बचता। किन्तु जो सतपुरूष होते है, वह तन्त्र का सही इस्तेमाल करते हुऐ या उचित प्रयोग करते हुऐ उसके द्वारा ब्रह्म को प्राप्त होते है और ऐसे तांत्रिक ब्रह्म-ज्ञानियों का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। अगर हम ध्यान-पुर्वक इतिहास का अध्ययन करे तो हमें पता चलेगा की अनुचित प्रयोग करने वालों और उचित प्रयोग करने वालों का कैसा अन्त हुआ।
अगर बात करे त्रेता-युग की तो रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाथ तीनो ही तंत्र के ज्ञाता थे एवं तीनों ही उस ब्रह्म को समझने और जानने वाले थे। कोई माने या माने लेकिन सही मायने में ये तीनों महान विद्वान पंडित थे। लेकिन तन्त्र का अनुचित प्रयोग करने के कारण ही ये असमय मृत्यु को प्राप्त हुऐ। लेकिन रावण को मारने के कारण ही जो ब्रह्म-हत्या का दोष भगवान राम पर लगा, उसके प्रायश्चित स्वरूप उन्होने अश्वमेध यज्ञ करवाया।
अब हम द्वापर युग कि बात करते हैं। द्वापर युग में कंस, तन्त्र का सम्राट बना और उसी तन्त्र के बल पर उसने अपनी मृत्यु को टालना चाहा। जब उसे ज्ञात हुआ की, देवकी का 8वाँ पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा तो उस ने तन्त्र का दुरुपयोग प्रारम्भ कर दिया। अपने तन्त्र के प्रयोग से कंस ने भगवान श्रीकृष्ण जी को मारने की भरसक कोशिश की, किन्तु होता वही है जो विधि के विधान में लिखा है। भगवान श्रीकृष्ण जी की ब्रह्म-विद्या के सामने कंस की तन्त्र विद्या हार गई और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। भगवान श्रीकृष्ण जी भी स्वयं एक सिद्ध तांत्रिक थे। अनेकों ही व्यक्ति इस बात को नहीं मानते। हम जो भी समझते हैं, इस सब के पीछे हमारी चेतना हमारी श्रद्धा, हमारा विश्वास और हमारी आत्म-ज्योती काम करती है। आज जितने भी धर्म-ग्रन्थ हमारे पास है। वह सभी दो से तीन हजार वर्ष तक के है। जब भगवान राम या भगवान श्रीकृष्ण जी का जन्म हुआ उस वक्त का प्रमाणिक ग्रन्थ कोई भी नहीं है। समय के अनुसार जिस कि मन बुद्धि ने जो कहा उसने अपने समय के अनुसार फेर बदल कर दिया। ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिऐ हमें मन और श्रद्धा की नहीं, बल्कि विवेक-बुद्धि की आवश्यकता है। जब तक हम ग्रन्थों पर आँखें मूदँ कर विश्वास करते जायेंगे, तब तक हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।
सबसे बड़ा उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा की गई रास लीला थी। इसका मूल रूप भैरवी-साधना या भैरवी-चक्र है जो हजारों वर्ष पूर्व से चला रहा है इसके बेहद गूढ़ अर्थ हैं ,गूढ़ रहस्य हैं । भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा की गई लीला को सिर्फ लीला मात्र मानने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होगी, बल्कि उस लीला के रहस्य को समझने उसका अर्थ जानने ,उसका उद्देश्य जानने से ,उसका अनुसरण करने से ब्रह्म प्राप्त होगा |विवरण तो प्रतीकात्मक दिखाने मात्र के लिए हैं |
इसलिऐ भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में कहा है, कि जो मुझ परमात्मा अर्थात परम तत्व को ( मुझ कृष्ण को नहीं) पूजेगा, उसे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी। हमें तन्त्र और ब्रह्म में भेद समझना होगा। गीता के अन्दर जो उद्-घोष है या यूँ कहे की सम्पूर्ण गीता ब्रह्म-ज्ञान है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तंत्र ब्रह्म प्राप्ति का माध्यम है |tantra में इसे सदाशिव कहा जाता है जिसे वैदिक ब्रह्म कहते हैं | दोनों एक ही हैं ,प्राप्ति माध्यम मात्र अलग है | अनेको ब्रह्म ज्ञानियों ने इसकी प्राप्ति तंत्र मार्ग से ही की या यूँ कहें की अधिकतर ब्रह्म ज्ञानिओं ने ब्रह्म की प्राप्ति किसी न किसी रूप में तन्त्र के माध्यम से ही की | द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण जी के अलावा अनेकों ही और भी तान्त्रिक हुऐ, जिनमें बर्बरीक का नाम भी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा है। बर्बरीक- माँ कामाख्या देवी का परम उपासक एवं सिद्ध तान्त्रिक था। उसके पास ऐसे बाण थे, की वह चाहता तो एक बाण चला कर ही सम्पूर्ण कौरव सेना को समाप्त कर सकता था, किन्तु विधि के विधान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण जी ने उसे ऐसा करने से मना किया और कलियुग में वही बर्बरीक’- ‘खाटू श्याम बाबा’ के नाम से जाना जाता है।
 कलियुग में भी अनेकों ही सिद्ध तान्त्रिक पैदा हुऐ जो कि ब्रह्म को मानने वाले थे, जैसे की 9 नाथ 84 सिद्ध। लगभग 2,500 वर्ष पूर्व माहात्मा बुद्ध हुऐ, जो की एक सिद्ध तान्त्रिक के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञानी भी थे। बौद्ध धर्म की दो शाखाऐं बनी, एक महायान और दूसरी हीनयान। बौद्ध धर्म में नील-तारा तन्त्र की देवी है। अनेकों ही बौद्ध भिक्षु आज भी माहात्मा बुद्ध के साथ-साथ तन्त्र की देवी नील-तारा की उपासना करते है। माहात्मा बुद्ध के समय में ही जैन धर्म प्रकाश में आया। आज भी हजारों जैनी, जैन धर्म में स्थित तन्त्र की देवी पद्मावती, चक्रेश्वरी एवं क्षेत्रपाल देवता की पूजा करते है। जैन धर्म में स्वप्न सिद्धि के लिऐ या भूत, भविष्य, वर्तमान जानने के लिऐ, जैन धर्म में स्थित तन्त्र की देवी चक्रेश्वरी देवी की साधना होती है।
हिन्दु धर्म में भी तन्त्र और ब्रह्म की एकता कलियुग में अनेकों जगह देखने को मिलती है, उदाहरण स्वरूप 9 नाथ और 84 सिद्ध। अनेकों ही हिन्दू आज भी अपनें घरों में नौ नाथों में से बाबा गोरख नाथ जी को पूजते है। बाबा गोरख नाथ जी की कथा सबसे अलग है। आज तक जितने भी सिद्ध हुऐ है, उन सभी में गोरख नाथ जी अजुणी है। बाबा गोरक्ष नाथ जी एक सिद्ध तान्त्रिक होते हुऐ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी एवं 36 मंडलों के रहस्यों के जानकार थे। आज भी बाबा गोरक्ष नाथ जी जीवित है। क्योंकि उन्होने अपनी देह का त्याग नहीं किया। आज तक संसार में 6 चिरंजीवी हुऐ है, किन्तु यह 6 चिरंजीवियों की जो गणना है। यह द्वापर युग तक की है, किन्तु कलयुग में बाबा गोरख नाथ जी भी चिरंजीवी है। लगभग 500 साल पूर्व सिखों के 10 वें गुरु गुरु गोविन्द सिहं जी ने चण्डी साधना की और तान्त्रिक सिद्धि प्राप्त की और एक बार फ़िर से ब्रह्म और तन्त्र की एकता स्थापित हुई। इसी प्रकार रामकृष्ण-परमहंस भी सिद्ध तान्त्रिक होने के साथ-साथ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी थे। रामकृष्ण-परमहंस जी ने माता काली की सिद्धि के साथ ब्रह्म की उपासना की एवं उसे प्राप्त किया। इसी प्रकार वामाखेपा जी ने भी तारा सिद्धि के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया। लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदि-शंकराचार्य जी का जन्म हुआ और उन्होंने ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया, किन्तु एक समय ऐसा भी आया की जब उन्होंने आदि शक्ति के श्रीविद्या रुप की सिद्धि की एवं गरीब ब्राहमण के झोपड़े में कनक-धारा स्तोत्र के द्वारा सोने के आंवलों कि बारिश हुई। आज भी यह कनक धारा स्तोत्र और श्रीविद्या का श्रीयन्त्र सम्पूर्ण जगत में विख्यात है। इस प्रकार त्रैता युग से लेकर कलियुग तक का अध्ययन करने पर हमें पता चलता है, कि तन्त्र और ब्रह्म एक दूसरे के पूरक है। ध्यान-पूर्वक समझने से हमें यह पता चलेगा कि तन्त्र की उपासना सही मायने में प्रकृति की उपासना है और ब्रह्म की उपासना या यों कहें की ॐ’ या सोऽहम्’ साधना उस निराकार परमात्मा की उपासना है, तो कुछ भी गलत नहीं होगा।ब्रह्म ज्ञान उद्देश्य है ,tantra उसे पाने का मार्ग है |वस्तुतः जो ब्रह्म मार्ग है वह निर्गुण निराकार की उपासना है ,जबकि tantra सगुन मार्ग से शक्ति प्राप्त कर उसी सदाशिव या ब्रह्म को पाने का मार्ग |
तन्त्र ही प्रकृति है। तन्त्र ही माया है। उस परमात्मा को जान लेना ब्रह्म-ज्ञान है और उसकी शक्तियों से हस्तगत होना ही तन्त्र है। उस परमपिता परमात्मा की शक्ति को तान्त्रिकों ने अनेकों नाम दिये है। जैसे की चण्डी, दुर्गा, आदिशक्ति, दस-महाविद्या, नौ दुर्गा, सात माता, 64 योगनी, आदि। सही मायने में एक विशेष शक्ति को जाग्रत करने के लिऐ, उस परमात्मा के उस विशेष नाम की पूजा ही तन्त्र है। तान्त्रिक अधिकतर परमात्मा के एक विशेष अंश को अपना इष्ट बना कर, उसकी सिद्धि करते है। उस इष्ट का जो अधिकार क्षेत्र होता है, उतने क्षेत्र में वह तान्त्रिक अपनी सिद्धि के द्वारा हस्तक्षेप कर सकता है। जैसे कि माँ सरस्वति विद्या की देवी है। अगर कोई विद्या क्षेत्र कि सिद्धि करता है, तो उसे सभी वेद शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही हो जाऐगा। इस प्रकार अगर कोई लक्ष्मी अर्थात् धन क्षेत्र की सिद्धि करता है, तो उसके पास कभी भी धन की कमी नहीं होगी। काली अर्थात् शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाला, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाले साधक के समक्ष श्त्रु टिक नहीं पाते और काल को प्राप्त हो जाते है। इसी प्रकार सभी देवी-देवताओं का अपना-अपना अधिकार क्षेत्र है। अग्नि का अपना कार्य है, जल का अपना और वायु का अपना। जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति के लिऐ कोई समय सीमा नहीं है, कि वह हमें कब प्राप्त होगा। वहीं तान्त्रिक सिद्धियाँ समय सीमा से बंधी हुई है। ऐसी शक्तियों को प्राप्त करने के लिऐ योग्य गुरू का होना परम-आवश्यक है।
गुरू का चयन करते वक्त भी ध्यान रखा जाता है, कि गुरू ने जिस-जिस क्षेत्र की शक्तियाँ प्राप्त कर रखी है। वह आप को वही प्रदान कर सकता है या आपको उस क्षेत्र की सिद्धि करा सकता है। मान लीजिये कि किसी गुरू ने शक्ति क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर रखा है। ऐसे गुरू के पास कोई ऐसा शिष्य पहुँच जाता है, जो कि विद्या क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त करना चाहता है, तो शक्ति क्षेत्र का गुरू उस साधक को विद्या प्राप्ति हेतु साधना नहीं करा सकता। अगर ऐसा गुरू शिष्य बनाने के चक्कर में या अहंकार वश उस शिष्य को साधना कराना भी चाहे, तो भी सिद्धि सम्भव नहीं है। ऐसा गुरू शिष्य का मार्ग निर्देशन तो कर सकता है और वह जानकार है तो प्रारम्भिक पूजा भी प्रारम्भ करा सकता है, और शिष्य को विद्या क्षेत्री गुरू ढूढ़ने का रास्ता बता सकता है। लेकिन आज के समय में अनेकों ही गुरू एक अधिकार क्षेत्र के अधिकारी होते हुऐ भी, सभी क्षेत्रों के शिष्यों को दीक्षा देते है, जो की गुरू कि मर्यादा के खिलाफ है। सच्चे गुरू का कर्तव्य है, की वह शिष्य को उसी मन्त्र की दीक्षा दे, जो कि उस को अपने गुरू से प्राप्त हुआ है अथवा जिस मन्त्र से उसके गुरू ने उसको दीक्षित किया है। मान लीजिये एक शिष्य को उसके गुरू ने गायत्री मंत्र से दीक्षित किया है और उस शिष्य ने अनुष्ठान करते हुऐ, गायत्री क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त किया है, तो वह शिष्य गुरू बन कर जिस भी शिष्य को दीक्षा देगा, तो वह दीक्षा गायत्री मंत्र के द्वारा ही दी जायेगी और आने वाला नया शिष्य अपनी गुरू की परम्परा को चलायेगा। अगर गायत्री क्षेत्र का गुरू किसी भी दूसरे क्षेत्र का मंत्र या दीक्षा किसी शिष्य को देता है और वह शिष्य उस क्षेत्र की साधना कराता है, तो उसे कभी भी सफलता नहीं मिलेगी।.......................................................................हर-हर महादेव


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