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किसी भी
प्रकार की साधना में ,अपने कर्म पर ,खुद
पर ,सम्बंधित शक्ति पर गहन विश्वास के साथ ही आतंरिक श्रद्धा का अति महत्वपूर्ण
स्थान होता है |जब आपको खुद पर तथा किसी पर विश्वास होता है तो एक आतंरिक बल का
उदय होता है ,जो मानसिक शक्ति प्रदान करने के साथ ही निर्भयता और दृढ़ता उत्पन्न
करता है ,इस स्थिति में मष्तिष्क से उत्पन्न होने वाले तरंगों की प्रकृति में
बदलाव आता है और जिस प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं वह वातावरण में क्रिया
करती हैं और सम्बंधित शक्ति तक पहुचने का प्रयास करती हैं |इनकी शक्ति की तीब्रता
से अवरोधक शक्तियों का प्रभाव कम होता है ,फलतः सफलता की उम्मीद बनती है |इसमें जब
श्रद्धा का समावेश होता है तो भावना की शक्ति अतिरिक्त रूप से इसमें जुडती हैं ,इस
शक्ति से उत्पन्न तरंगे सम्बंधित शक्ति को आकर्षित करने का काम करती हैं और सफलता
का प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है |इस परिस्थिति में जब व्यक्ति एकाग्र हो जाता है तब यह
शक्ति-ऊर्जा-तरंगे बीच में टूटती नहीं हैं और सम्बंधित शक्ति
तक पहुचकर उसे आकर्षण में बाँधने का प्रयत्न करती हैं और वह इनके वशीभूत हो खिंचा
चला आता है|
इस
प्रकार जब आप या कोई व्यक्ति साधना करता है किसी शक्ति या ईश्वर की मूर्ती मन में
कल्पित कर उस पर एकाग्र हो पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ उसके रूप-गुण-स्वाभाव-आकृति में डूबता है
तो मन की भावनाओं-मष्तिष्क की
शक्ति-मन्त्र की शक्ति- अवयवो की ऊर्जा से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं वह उस
प्रकार के गुण वाली शक्ति की ऊर्जा से जुड़कर उसे आकर्षित करने लगती हैं और उसे
अपने आकर्षण में बाँध अपनी और खींचती है जिससे वह शक्ति वशीभूत हो खिची आती है
|चुकी शक्ति कोई व्यक्ति नहीं होता है और उसकी ऊर्जा वातावरण में बिखरी पड़ी होती
है अतः यह उर्जायें व्यक्ति के आसपास पहले आकर संघनित होती हैं |उसके आने के साथ
ही व्यक्ति के आसपास का वातावरण उस शक्ति की ऊर्जा से संघनित होने लगता है और कुछ
समय उपरांत वह शक्ति व्यक्ति के सामने सजीव हो सकती है |यद्यपि इसे केवल वह
व्यक्ति ही देख सकता है ,पर अन्य लोग भी यह तो महसूस कर ही पाते हैं की कुछ
परिवर्तन हुआ ,पर यह सबकी समझ में नहीं आता की क्या परिवर्तन हुआ |शक्ति की ऊर्जा
का संघनन यदि एक बार कहीं हो गया तो वह बहुत दिनों तक उस स्थान पर महसूस किया जा
सकता है |साधकों की तपस्या स्थली की उर्जा का यही कारण है |
यहाँ यह महत्व
नहीं रखता की शक्ति कौन या क्या है ,मूल अर्थ है की भाव क्या है ,गुण क्या है
,एकाग्रता किस भाव में है ,श्रद्धा और भावना क्या है ,उस पर और अपने कर्म पर
विशवास कितना है |अगर यह सब संतुलित और प्रबल है तो कोई भी शक्ति आकर्षित की जा
सकती है |इनके बल पर ही तो ऐसी ऐसी शक्तियों की परिकल्पना और उनका प्रत्यक्षीकरण
नाथ परंपरा के गुरुओं ने करा दिए जिनको पहले कोई जनता तक नहीं था ,जिनका कोई
अस्तित्व तक नहीं सुना गया था |यह सब शक्तियों का एकत्रीकरण कर उन्हें प्रत्यक्ष
करने के कारण हुआ |यही सूत्र है हमजाद साधना से खुद को प्रत्याक्षित करने का |यही
सूत्र हैं विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्रताक्षित करने के |शक्तियां रूप तो
आपके कल्पना और भाव के अनुसार ग्रहण कर लेती हैं ,पहले से उनका रूप निर्धारित नहीं
होता |उनका तो केवल अपना विशिष्ट गुण होता है ,विशिष्ट शक्ति होती है ,विशिष्ट
प्रभाव होता है |आकार वह व्यक्ति की कल्पना और भाव के अनुसार ले लेती हैं ,,यह
आकार पहले आई हुई शक्ति की ऊर्जा के संघनन से व्यक्ति के भावों और मानसिक कल्पना
के बल से निर्मित होता है |
अतएव
यदि विश्वास-श्रद्धा-एकाग्रता है तो ईश्वर मिल जाता है ,जरुरत इन्हें
बनाये रखने और मजबूत करने की होती है ,इनमे किसी के भी कमी या विचलन से सफलता
संदिग्ध हो जाती है |साधना-पूजा-अनुष्ठान तो बहुतेरे करते हैं पर तीनो का संतुलन
बड़ी मुश्किल से कोई कोई ही कर पाता है ,इसीलिए सभी सफल नहीं होते |अक्सर मंत्र मुह
से निकलते रहते हैं ,मन कहीं और होता है ,मन में भाव होता है कोई और ,,मन कहता है
पत नहीं सफलता मिलेगी या नहीं ,अर्थात तीनो में कमी |ऐसे में सफलता नहीं मिल सकती
|.......................................................................हर-हर महादेव
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