Saturday 3 August 2019

कुछ लोग बुद्धिमान और कुछ लोग बुद्धिहीन क्यों जन्म लेते हैं ?


किस स्तर के शरीर में आपकी आत्मा रहती है ,क्या आप जानते हैं ?
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         हर व्यक्ति जन्म लेने के कुछ दिनों बाद एक निश्चित मानसिक विकास से गुजरता है किन्तु कुछ लोगों का मानसिक विकास तीव्र होता है कुछ लोगों का मानसिक विकास धीमा होता है और कुछ लोगों का मानसिक विकास अत्यधिक मंद होता है की वह २५ वर्ष की उम्र में भी 5 -6 वर्ष के बच्चे की तरह की बुद्धि के होते हैं ,भले इन सबको एक सामान ही माहौल क्यों न मिले |कभी कभी एक ही समय पर जन्मे बच्चों यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चों के भी मानसिक स्तर और रुचियों में बड़ी भिन्नता पायी जाती है |क्या आपने कभी सोचा है की यह सब क्यों होता है |विज्ञान अनेक सिद्धांत दे सकता है किन्तु ऐसा न हो इसका कोई उपाय उसके पास नहीं है क्योंकि वास्तव में विज्ञान यह रहस्य जानता ही नहीं की ऐसा क्यों होता है |ज्योतिषी इसके सम्बन्ध में ग्रहों ,नक्षत्रों की स्थिति स्थान अनुसार भिन्न बताकर ,या जन्म समय में सेकेण्ड का अंतर कहकर या देश -काल परिस्थिति की बात कहकर इसे परिभाषित करने की कोशिश करता है किन्तु यहाँ भी संतोषजनक उत्तर नहीं है |हम आपको इसका रहस्य बताते हैं अपने इस विडिओ में और अपने इस चैनल अलौकिक शक्तियां पर |इसका सम्बन्ध आपके अवचेतन और आपके शरीर से जुड़े सात ऊर्जा शरीरों से होता है |यह सातो शरीर सभी में होते हैं किन्तु हर व्यक्ति एक निश्चित शरीर की अवस्था में जन्म लेता है और उसके नीचे के शरीरों के गुणों के साथ उस शरीर के गुण उसमें १४ -१५ वर्ष की उम्र तक विकसित होते हैं |ध्यान से पूरा लेख और विडिओ देखिये ,आप उस रहस्य को जानने जा रहे जो दुनियां के बहुत कम लोग जानते हैं ,इसलिए ध्यान से पूरा लेख और विडिओ अंत तक समझें |
          मानव शरीर एक कम्प्यूटर के समान ही रहस्यपूर्ण यन्त्र है ,इसे ठीक से समझने के लिए मानव के विभिन्न आयामों को समझना आवश्यक है |बाहरी रूप से जो शरीर हमें दिखाई देता है वास्तव में वह शरीर का केवल दस प्रतिशत भाग होता है |विद्वानों ने शरीर के सात स्तरों की बात की है -
- स्थूल शरीर [फिजिकल बाडी] २- आकाश शरीर [ईथरिक बाडी]- सूक्ष्म शरीर [एस्ट्रल बाडी]- मनस शरीर [ मेंटल बाडी] ५- आत्म शरीर [स्पिरिचुअल बाडी]- ब्रह्म शरीर [कास्मिक बाडी] और ७- निर्वाण शरीर [बाडिलेस बाडी] |अब आप देखिये हमारे सौर मंडल में सात ही ग्रह भी मुख्य होते हैं ज्योतिष के अनुसार ,जबकि दो अदृश्य ग्रह माने जाते हैं |हमारे शरीर में सात ही चक्र मुख्य माने जाते हैं ,दो चक्र को और स्थान दिया जाता है इनके बीच अर्थात सात मुख्य ग्रह ,सात मुख्य चक्र और सात शरीर मानव के |कुछ तो सम्बन्ध है इनका |कुंडलिनी जागरण के क्रम में क्रमशः सातो चक्रों के जागरण से इन सात शरीर की अवस्था में व्यक्ति पहुँचता है और सातो ग्रहों के प्रभाव भी प्रभावित होते हैं |जन्मकालिक मुख्य ग्रह के अनुसार एक विशेष चक्र भी जन्म से ही क्रियाशील होता है और व्यक्ति के सप्त शरीर में से एक शरीर विशेष के गुण के अनुसार भी व्यक्ति का व्यक्तित्व और मानसिक स्थिति होती है |
       सनातन सिद्धांत और सोच के अनुसार मनस शास्त्रियों का कहना है की व्यक्तियों के जीवन में मानव शरीर के यह सातों स्तर उत्तरोत्तर विकसित होते हैं, अर्थात क्रमशः उम्र और समय के अनुसार इनका विकास होता है |सामान्य जन इसे नहीं समझ पाते ,यहाँ तक की साधक और कुंडलिनी के जानकार भी इसे व्यावहारिक स्तर पर न देखते हुए मात्र साधना से ही इनकी प्राप्ति और समझने की बात करते हैं |व्यावहारिक दृष्टिकोण की बात करें तो मनस शास्त्रियों के अनुसार सामान्य योग व्यवहार में रहते हुए एक शरीर का विकास लगभग सात वर्ष में पूरा हो जाना चाहिए और लगभग ५० वर्ष की आयु होने तक व्यक्ति सातवें शरीर का विकास करके विदेह [बाडीलेस ]अवस्था में पहुँच जाना चाहिए |अर्थात जन्म से ७ वर्ष तक स्थूल शरीर ,७ से १४ वर्ष तक आकाश शरीर ,१४ से २१ वर्ष तक सूक्ष्म शरीर ,२१ से २८ वर्ष तक मनस शरीर ,२८ से ३५ वर्ष तक आत्म शरीर ,३५ से ४२ वर्ष तक ब्रह्म शरीर और ४२ से ४९ -५० वर्ष तक निर्वाण शरीर की अवस्था में व्यक्ति को होना चाहिए |ध्यान दीजिये यहाँ शरीर यथावत रहता है मात्र मानसिक अवस्था इन शरीर के अनुसार पहुंचनी चाहिए |यह सनातन नियमों के अनुसार व्यक्ति की नियमित दिनचर्या के अनुसार निर्धारित किया गया है |
          राजा जनक को विदेह और जानकी को वैदेही भी कहते हैं ,इसका अर्थ यह होता है की राजा जनक विदेह अवस्था को प्राप्त थे |इस विदेह अथवा बाडिलेस अवस्था का अर्थ यह नहीं की व्यक्ति का भौतिक शरीर नहीं रहेगा अथवा व्यक्ति कोई भौतिक कर्म नहीं करेगा |इसका अर्थ केवल इतना है की वह सारे कार्य इस ढंग से करना सीख लेगा की उसकी आत्मा पर कोई कर्म का बंधन न लग पाए ,अर्थात आत्मा निर्लेष रहे |आत्मा प्रायः उस अवस्था में निर्लेष रहती है जब वह शरीर रहित होती है |यह एक मेटाफिजिकल सिद्धांत है |यह सूत्र हमारे सनातन दर्शन में जीवन के लिए बनाए गए थे और वैदिक काल में इसका पालन होता था |जीवन का ढंग ऐसा था की इसके अनुसार जीवन चले |
           इस सूत्र के अनुसार ,जीवन के प्रथम सात वर्ष में बच्चे का स्थूल शरीर पूरा होता है जैसे पशु का शरीर विकास को प्राप्त होता है |इस अवस्था में व्यक्ति में अनुकरण तथा नकल करने की प्रवृत्ति रहती है |प्रायः यह प्रवृत्ति पशुओं की भी होती है |कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिनकी बुद्धि इस भाव से उपर नहीं उठ पाती और पशुवत जीवन जीते रह जाते हैं |इसे हम योग की भाषा में कहते हैं की व्यक्ति प्रथम शरीर से उपर नहीं उठा |यह स्तर व्यक्ति के भौतिक शरीर का होता है और इस स्तर का व्यक्ति केवल भोजन -शयन में रूचि रखने वाला ,शारीरिक सुख चाहने वाला ,दूसरों के अनुसार चलने वाला होता है |
         द्वितीय शरीर अर्थात आकाश शरीर में भावनाओं का उदय होता है अतः इसे भाव शरीर भी कहते हैं |प्रेम और आत्मीयता वाली समझ विकसित होने से व्यक्ति सांसारिक सम्बन्धों को समझने लगता है |इस आत्मीयता के कारण ही व्यक्ति में पशु प्रवृत्ति कम होकर मनुष्य प्रवृत्ति का विकास होता है |चौदह वर्ष का होते होते वह सेक्स के भाव को भी समझने लग जाता है |बहुत से लोगों के चक्र यहीं तक विकसित हो पाते हैं और वे पूरे जीवन भर घोर संसारी बने रहते हैं |आकाश शरीर की स्थिति वाले लोग सदैव भौतिकता की ओर भागते हुए इसी में लिप्त रहते हैं |इनके लिए भोग विलाश ,भोजन ,शयन सुख ,भावना में बहने वाले ,कल्पना में जीने वाले ,अक्सर गलतियाँ करने वाले ,कम आत्मविश्वास वाले होते हैं | [पंडित जितेन्द्र मिश्र ]
          तृतीय शरीर सूक्ष्म शरीर कहलाता है |सामान्यतः इसकी विकास की अवधि २१ वर्ष तक है |इस अवधि में बुद्धि में विचार और तर्क की क्षमता का विकास हो जाने के कारण व्यक्ति बौद्धिक रूप से सक्षम हो जाता है और व्यक्ति में सांस्कृतिक गुण विकसित हो जाते हैं |सभ्यता भी आ जाती है और शिक्षा के आधार पर समझ भी बढ़ जाती है |इस स्तर के लोग जीवन और जन्म -मृत्यु को ही सब कुछ समझते हैं |भौतिक रूप से सभी सुखों की चाह भी होती है और मृत्यु की वास्तविकता को भी समझते हैं |जीवन सुखी बनाने की सामर्थ्य और बुद्धि भी होती है |इस स्तर पर आध्यात्मिक विकास न्यून होता है और कष्ट पर व्यक्ति दूसरों की ओर देखता है |अक्सर इस स्तर पर या तो व्यक्ति नास्तिक होता है या भाग्यवादी |नास्तिक कर्म को प्रमुखता देते हैं और भाग्यवादी भाग्य को ही सबकुछ मानते हैं |
             चतुर्थ शरीर अगले सात वर्ष तक विकसित हो जाना चाहिए |अर्थात २८ या ३० वर्ष तक इस शरीर का विकास हो जाना चाहिए |इसे मनस शरीर कहते हैं |इस स्तर पर मन प्रधान होता है ,अतः व्यक्ति ललित कलाओं ,संगीत ,साहित्य ,चित्र कारिता काव्य आदि में रूचि लेने लगता है |टेलीपैथी ,सम्मोहन यहाँ तक की कुंडलिनी भी इसी स्तर तक विकसित हुए व्यक्ति को रास आती है ,चूंकि यह स्तर व्यक्ति को कल्पना करने की ऐसी शक्ति देता है की वह पशुओं से श्रेष्ठ बन जाता है |स्वर्ग नर्क की कल्पना भी इसी स्तर में आती है |व्यक्ति आध्यात्मिक जगत को समझने लगता है और ब्रह्मांडीय सूत्रों में रूचि जाग्रत होती है |वह अधिकतम ज्ञान पाना चाहता है |हर क्रिया को समझने की कोशिस करता है |गहन साधना में रूचि इस शरीर की स्थिति में जाग्रत होती है और व्यक्ति यहाँ कुंडलिनी जाग्रत कर सकता है |
            पांचवां शरीर आध्यात्मिक होता है |इस स्तर पर पहुंचे व्यक्ति को आत्मा का अनुभव हो पाता है |यदि चौथे स्तर पर कुंडलिनी जाग्रत हो जाए तो इस शरीर का अनुभव हो पाता है |यदि नियम संयम से व्यक्ति का विकास होता रहे तो लगभग 35 वर्ष की आयु तक व्यक्ति इस स्तर पर पहुँच जाता है |यद्यपि आज के आधुनिक जीवन शैली में सामान्य जन के लिए यह बेहद कठिन है |मोक्ष का अनुभव इस स्तर पर हो सकता है ,मुक्ति का अनुभव हो जाता है |
        छठवां है ब्रह्म शरीर |इस स्तर पर व्यक्ति अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव कर पाता है |ऐसी कास्मिक बाडी सामान्यतः अगले सात वर्ष में विकसित हो जानी चाहिए |सातवाँ शरीर निर्वाण शरीर कहलाता है जो की विदेह अवस्था है |भगवान् बुद्ध ने इस स्थिति को ही निर्वाण कहा है |यहाँ अहं और ब्रह्म दोनों ही मिट जाते हैं |मैं और तू दोनों के ही न रहने से यह स्थिति परम शून्य की बन जाती है |
इन सातों शरीरों का क्रमिक विकास बहुत से लोगों में जन्म जन्म चलता रहता है |कोई प्रथम शरीर के साथ जन्म लेता है तो कोई चौथे स्तर के साथ |करोड़ों में कोई एक छठवें स्तर के साथ जन्म लेता है जो जन्म से ही विरक्त हो जाता है |जैसे बाबा कीनाराम ,तेलग स्वामी ,स्वामी स्वरूपानंद ,विवेकानंद जी |जैसे स्तर के साथ व्यक्ति का जन्म होता है वह चौदह वर्ष का होते होते व्यक्ति में प्रकट होने लगता है |उसकी सोच ,संसार को देखने का दृष्टिकोण ,व्यवहार ,समझ आदि में सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अंतर देखने को मिलता है |
            इसको हम आपको थोडा और विस्तार से समझाते हैं |सभी की शुरुआत तो स्थूल शरीर से ही हुई है किन्तु कोई मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति कर निर्वाण शरीर तक पहुच जाता है और कोई स्थूल शरीर की मानसिक अवस्था में ही रह जाता है जीवन भर |यदि मान लीजिये किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में सूक्ष्म शरीर की स्थिति पाई है और उसके ऊपर बड़े कर्म बंधन नहीं बनते ,किसी का श्राप आदि उसके जन्म को प्रभावित नहीं करते तथा वह अपनी आयु पूर्ण कर मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह दोबारा जन्म लेता है और १४ वर्ष की आयु होते होते उसकी मानसिक अवस्था सूक्ष्म शरीर की मानसिक अवस्था जैसी हो जायेगी ,जैसे वह बौद्धिक होगा ,समझदार हो जाएगा ,तार्किक और सांस्कृतिक गुण वाला होगा अर्थात पूर्ण विकसित मानव होगा |अब वह यदि यहाँ से अपना विकास करता है तो उसके लिए निर्वाण शरीर तक की यात्रा स्थूल शरीर और आकाश शरीर वाले से आसान होगी |वह जहाँ तक की यात्रा करेगा और कर्म बंधन को नियत्रित रखेगा तो वह अगले जन्म में आज पहुंची हुई आवस्था में जन्म लेगा और १४ वर्ष की आयु तक उसमे वह गुण विकसित हो जायेंगे |यह क्रमिक विकास है |यदि कोई अपने कर्म से सूक्ष्म शरीर की अवस्था में जन्म लेकर भी पशुवत स्थूल शरीर के भोग सुख में ही झूलता रह जाता है तो वह नीचे जाकर स्थूल शरीर की अवस्था भी प्राप्त कर सकता है |यह आध्यात्मिक विज्ञान है जिसे अच्छे अच्छे साधक ,ज्ञानी ,कुंडलिनी साधक तक नहीं जानते ,नहीं समझते |इसलिए व्यक्ति को अपने कर्मों को नियंत्रित रखना चाहिए |धन्यवाद .............................................हर हर महादेव

स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण पर जीवन बदल जाता है


स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण पर जीवन बदल जाता है
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          मानव शरीर में सात मुख्य चक्र होते हैं जो मूलाधार ,स्वाधिष्ठान ,मणिपुर ,अनाहत ,विशुद्ध ,आज्ञा और सहस्त्रार चक्र के नाम से जाने जाते हैं |इन सात चक्रों से सैकड़ों छोटे चक्र सम्बन्धित होते हैं |सात चक्रों से मनुष्य के सात शरीर बनते हैं |- स्थूल शरीर [फिजिकल बाडी] २- आकाश शरीर [ईथरिक बाडी]- सूक्ष्म शरीर [एस्ट्रल बाडी]- मनस शरीर [ मेंटल बाडी] ५- आत्म शरीर [स्पिरिचुअल बाडी]- ब्रह्म शरीर [कास्मिक बाडी] और ७- निर्वाण शरीर [बाडिलेस बाडी] |सभी चक्र शरीर में भौतिक रूप से उपस्थित और दृश्य न होने पर भी शरीर को प्रभावित करते हैं तथा इनका अस्तित्व सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित होता है |इस सूक्ष्म शरीर को आप औरा या आभामंडल के रूप में समझ सकते हैं और यही सूक्ष्म शरीर व्यक्ति का प्रेत शरीर होता है |सूक्ष्म शरीर व्यक्ति का ऊर्जा शरीर या इलेक्ट्रानिक बाडी होता है जो हर कोशिका के उर्जा केन्द्रों से एक सूक्ष्म तंतु द्वारा सम्बन्धित होता है और सब मिलकर व्यक्ति की मनुष्याकृति सूक्ष्म पारदर्शी शरीर का निर्माण करते हैं |इस शरीर में ऊर्जा के मुख्य केन्द्रों को चक्रों के रूप में परिभाषित किया जाता है तथा यह अप्रत्यक्ष रूप से शरीर को सदैव प्रभावित करते रहते हैं |जन्म से इन चक्रों की सक्रियता और बल जन्मकालिक ग्रहों की ऊर्जा रश्मियों के अनुसार निर्धारित होता है जबकि जन्म बाद इन्हें अधिक क्रियाशील ,बलशाली और सक्रीय कर ग्रह प्रभावों तक को नियंत्रित किया जा सकता है |
          चक्रों का क्रमिक जागरण कुंडलिनी जागरण कहलाता है जबकि मूलाधार में सोई मूल कुंडलिनी शक्ति का जागरण हो क्रमशः उसके उर्ध्वगमन से चक्रों का जागरण होता है |इस प्रक्रिया के अतरिक्त भी किसी चक्र विशेष को विभिन्न साधनाओं द्वारा जाग्रत कर उससे सम्बन्धित शक्तिया और सिद्धिय प्राप्त की जा सकती हैं |महाविद्या साधनाओं अथवा गहन ध्यान की तकनिकी विधियों द्वारा कुंडलिनी के अतरिक्त अलग से भी चक्रों का जागरण होता है और उससे सम्बन्धित शक्तियाँ प्राप्त कर सफलता प्राप्त की जाती हैं |हमारा आज का विषय स्वाधिष्ठान चक्र से सम्बन्धित है और हम आपको बताते हैं की इस चक्र के जागरण से क्या क्या होता है |कैसे जागरण होता है यह एक तकनिकी विषय है जो गुरु गम्य है और इसे यहाँ बताकर नहीं समझाया जा सकता अतः हम इसे किसी दुसरे लेख और विडिओ में प्रकाशित करेंगे |आज देखते हैं इस चक्र की शक्तियों और सिद्धियों को |
          स्वाधिष्ठानचक्र वह चक्र है जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है| स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं| यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- , , , , इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं।इस चक्र की मूल शक्ति देवी दुर्गा हैं| जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, अथवा तंत्र द्वारा क्रमिक कुंडलिनी साधना चक्र मूलाधार और कुंडलिनी जाग्रत कर उर्ध्वमुखी करता है उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण मूलाधार से उठकर स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है| तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी, देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार ,जन्म लेता है और वह स्वयं भी अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है|
         इस चक्र के जागरण पर व्यक्ति में चमत्कारिक शक्तियों का उदय होता है |यदि थोड़ी सी भी असावधानी हुई तो चमत्कार और अहंकार दोनों में फँसकर बर्बाद होते देर नहीं लगती ,क्योंकि अहंकार वश यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त होते देर नहीं लगती है , इसलिए सिद्धों को चाहिए कि सिद्धियाँ चाहे जितनी भी उच्च क्यों हों, ,उसके चक्कर में नहीं फँसना चाहिए लक्ष्य प्राप्ति तक निरन्तर अपनी साधना पद्धति में उत्कट श्रद्धा और त्याग भाव से लगे रहना चाहिए|इंद्र से मूल तात्पर्य यह है की इस चक्र की पूर्ण सिद्धि पर साधक इन्द्रियों पर नियंत्रण पा लेता है किन्तु चक्र जागरण की अवस्था में दुर्गा की शक्तियों का उदय होता है जिससे चंचलता ,उग्रता ,अति साहस ,स्वभाव की तीव्रता ,जल्दबाजी उत्पन्न होती है जो शांत नहीं बैठने देती और व्यक्ति अभिमानी हो गलतियाँ कर सकता है |इन पर नियंत्रण बाद ही वह इंद्र के समान इन्द्रियों पर विजय पाता है और सर्वसुख सम्पन्न होता है |
            इस चक्र के ध्यान से कामांगना काममोहित होकर उसकी सेवा करती है अर्थात शरीर का तेज और आकर्षण ,व्यक्तित्व का प्रभाव इस प्रकार बढ़ता है कि स्त्रियाँ और पुरुष आकर्षित होते हैं | जो कभी सुने न हों ऐसे शास्त्रों का रहस्य वह बयान कर सकता है। सर्व रोगों से विमुक्त होकर वह संसार में सुखरूप विचरता है। स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने वाला योगी या साधना करने वाला तंत्र साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमर हो जाता है। अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर उसके शरीर में वायु का संचार होता है जो सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट होता है। रस की वृद्धि होती है। सहस्रदल पद्म से जिस अमृत का स्राव होता है उसमें भी वृद्धि होती है।
          कुंडलिनी साधना के अंतर्गत नियमतः इस चक्र का जागरण मूलाधार चक्र के जागरण के बाद ही होता है किन्तु योग और तंत्र में इसे सीधे भी जाग्रत करने के विधान हैं |सीधे जाग्रत करने पर कुंडलिनी ,मूलाधार को पूर्ण जाग्रत किये बिना यहाँ तीव्र क्रियाशील होती है जिससे उसका वास्तविक उर्ध्वगमन न होकर चक्र विशेष की क्रियाशीलता तक सक्रियता होती है |इस स्थिति में लगातार रहने पर पूर्ण कुंडलिनी जागरण सम्भव है किन्तु अधिकतर साधक यहाँ प्राप्त होने वाली सिद्धियों के मायाजाल में ही फंसे रह जाते हैं और भ्रम पाल लेते हैं की वह सबकुछ पा चुके |योग द्वारा इस चक्र को ध्यान से जाग्रत किया जा सकता है ,जबकि तंत्र द्वारा इसका जागरण दुर्गा ,बगलामुखी आदि की साधना से हो सकता है |कुंडलिनी साधना और जागरण हो अथवा चक्र जागरण दोनों ही तकनिकी साधनाएं है जो बिना गुरु के नहीं हो सकती |इनमे कदम कदम पर तकनीकियों का समावेश होता है जिनमे ऊर्जा उत्पन्न करने और संभालने की तकनीकियाँ बताई जाती हैं जिससे व्यक्ति की साधना सफल हो और वह पतित भी न हो |अक्सर बिना गुरु के चक्र साधनाएं करने वाले असफल भी होते हैं और विभिन्न समस्याओं से भी ग्रस्त हो जाते हैं |सबसे अधिक आज्ञा चक्र की साधनाएं करने वाले समस्याओं और दिक्कतों का सामना करते हैं ,इसके बाद मूलाधार और स्वाधिष्ठान की बिना गुरु साधना करने वाले खुद को कष्टों और समस्याओं में घिरा पाते हैं |अक्सर हमारे पास ऐसे लोगों के फोन आदि आते हैं जहाँ उन्होंने बिना गुरु अथवा विभिन्न देवी -देवताओं को गुरु मान साधनाएं शुरू की होती हैं और जब भुगतने लगते हैं तब फोन कर परामर्श मांगने लगते हैं |
        स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण पर आलस्य ,हीन भावना ,आत्मविश्वास में कमी ,आत्मबल में कमी ,नकारात्मकता ,रोग-दोष ,कमजोरी ,मोटापा ,शारीरिक असंतुलन ,प्रभामंडल की नकारात्मकता ,भूत -प्रेत वायव्य बाधाएं ,देवी -देवताओं के दोष ,शत्रु -विरोधी समाप्त अथवा नष्ट हो जाते हैं |पाशविक प्रवृत्ति ,काम आदि पर विजय प्राप्त होता है |तेजस्विता ,वाणी का प्रभाव ,वाक्पटुता ,चंचलता ,क्रियाशीलता ,कर्मठता बढ़ जाती है |जो मिलता है प्रभावित होता है ,जहाँ भी जाएँ ,जो भी कार्य करें सफलता बढ़ जाती है |ग्रहों के प्रभाव परिवर्तित हो जाते हैं |किसी की नाकारात्म्कता ,रोग ,भूत -प्रेत हटाने की क्षमता आ जाती है ,वाक् सिद्धि हो जाती है और कही गयी बातें अपने आप सच होने लगती हैं |आशीर्वाद और श्राप फलीभूत होते हैं |सभी क्षेत्रों में विजय मिलने लगती है |सुख सुविधाओं की अपने आप उपलब्धी होने लगती है |जीवन का असंतुलन दूर होता है |इस चक्र पर लगातार साधनारत रहने से पूर्ण कुंडलिनी जागरण सम्भव है किन्तु बिना गुरु तकनिकी ज्ञान सम्भव नहीं अतः उपर उठने के लिए गुरु की आवश्यकता होगी |इस चक्र के जागरण पर दुर्गा देवी की शक्तियाँ जाग्रत होती हैं अतः व्यक्ति में उग्रता ,कर्मठता ,चंचलता ,सक्रियता के साथ व्यक्ति में ऐसे तेज का उदय होता है की लोग आँख मिलाने में डरते हैं |वाणी का प्रभाव इस प्रकार पड़ता है की न चाहने पर भी लोग उसे मानने और करने को मजबूर हो जाते हैं |व्यक्ति जहाँ भी जाता है अथवा जो भी कार्य सोचता है उसमे सफलता तथा विजय मिलती है |शत्रु समूह नष्ट हो जाता है और सभी प्रकार की नकारात्मक शक्तियों का क्षय होता है |...........................................................हर हर महादेव 

मूलाधार के जागरण से भौतिक जीवन में क्या लाभ होते हैं ?


मूलाधार के जागरण से भौतिक जीवन में क्या लाभ होते हैं ?
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सामान्य रूप से योग मार्ग व्यक्ति को कठोरता से स्व नियंत्रण की बात करता है अतः इससे कुंडलिनी जागरण पर सामान्य जीवन में कम ही साधक शक्तियों का उपयोग करते है और उनकी मन स्थिति पहले ही ऐसी बन जाती है की वह समाज से एकाकी होने लगते हैं |अधिकतर कुंडलिनी शक्ति का उपयोग तंत्र मार्गीय साधक ही भौतिक जीवन में करते हैं ,क्योंकि तंत्र मार्ग से कुंडलिनी साधना भोग से मोक्ष की ओर की प्रक्रिया पर आधारित होती है |मूलाधार के जाग्रत हुए बिना कुंडलिनी जागरण नहीं होता और मूलाधार जागरण ही सबसे कठिन होता है |मूलाधार जागरण से ही सबसे अधिक शक्तियां और सिद्धियाँ भी मिलती हैं तो सबसे अधिक पतित भी साधक इसी चक्र के प्रभाव से होते हैं |योग में इस चक्र के जागरण के पूर्व की साधक शरीर और मन को नियंत्रित भी कर चूका होता है और योग से जागरण धीरे धीरे भी होता है अतः पतन कम होता है किन्तु तंत्र मार्ग में भोग से साधना होने से काम शक्ति की प्रमुखता होती है अतः कामशक्ति के तीव्र ऊर्जा प्रवाह से जागरण होने पर मूलाधार का जागरण जल्दी तो होता है किन्तु इसका प्रभाव इतना तीव्र होता है की व्यक्ति इन सिद्धियों के चक्कर में फंसकर भोग की ओर भागने लगता है |बहुत ही कम साधक इस तीव्र ऊर्जा प्रवाह को नियंत्रित कर आगे बढ़ पाते हैं और तब उनकी कुंडलिनी का जागरण योग मार्ग की अपेक्षा बहुत ही कम समय में हो जाता है |हम आपको अब बताते हैं की कुंडलिनी में मूलाधार के जागरण से क्या -क्या सिद्धियाँ ,क्या क्या उपलब्धियां प्राप्त होती हैं और कैसे व्यक्ति मानव से महामानव बन जाता है |उसका जीवन कैसे बदलता है ,भौति जीवन में उसे क्या लाभ प्राप्त होते हैं ,वह क्या -क्या कर सकता है |
मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी महाशक्ति ,शक्ति से युक्त मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।मनुष्य में रीढ़ के नीचे तिकोनी हड्डी और मांस पिंड तो होता है किन्तु भौतिक रूप से कुंडलिनी को वहां नहीं देखा जा सकता क्योंकि यह सूक्ष्म शरीर में स्थित ऊर्जा है |इसकी कोई भी क्रिया भौतिक शरीर को तुरंत प्रभावित करती है ,भौतिक शरीर की उर्जा इसे प्रभावित करती है किन्तु फिर भी इसका भौतिक अस्तित्व नहीं होता ,जैसे कि आपमें प्राण तो होते हैं किन्तु आप उसे देख नहीं सकते |प्राण को देखन के लिए आपको कुंडलिनी के किसी चक्र को जगाना होगा |
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है| इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है| इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे , , , यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं ,जबकि यहाँ की मूल शक्ति काली हैं जिनको केवल गणेश की शक्ति से ही संतुलित किया जा सकता है ,बिना विवेक के यह शक्ति महिसासुर बना देती है । जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है ,और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है,, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है|जागरण की अवस्था में काली का प्रभाव पूर्ण शक्ति से उदित होता है जिसे यदि नियंत्रित कर लिया गया तभी साधक गणेश की शक्ति से युक्त हो पाता है ,अन्यथा साधक पतित हो जाता है |
 मनुष्य के मूलाधार चक्र में कुंडलिनी का सम्पर्क तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है उसके फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है |मूलाधार चक्र में वीरता और आनन्द भाव का निवास है मूलाधार का जागरण योग के अंतर्गत योगासनों ,मुदाओं और ध्यान साधना से की जाती है ,जबकि तंत्र में इसका जागरण भैरवी तंत्र या कौल तंत्र के अंतर्गत की जाती है जहाँ मनुष्य की जनन शक्ति की मुख्य भूमिका होती है और यौनांगों की क्रिया होती है जिससे तीव्र उर्जा उत्पन्न कर नियंत्रण रखते हुए कुंडलिनी जागरण किया जाता है |एक और मार्ग से मूलाधार का जागरण होता है और यह मार्ग है महाविद्या साधना |महाविद्या में काली साधना से काली की सिद्धि होने पर मूलाधार चक्र का जागरण होता है किन्तु पूर्ण कुंडलिनी पर इसका प्रभाव तभी होता है जब काली का प्रत्यक्षीकरण हो जाय और वह इच्छानुसार क्रिया करने लगे |इस स्थिति में काली की उर्जा व्यक्ति में इतनी बढती है की उसकी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है |
मूलाधार चक्र के जाग्रत हो जाने पर जब साधक या सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो, उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है, जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है| परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है| परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है. उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है|
जब प्रयत्नशील योगसाधक जब किसी महापुरूष का सान्निध्य प्राप्त करता है तथा अपने मूलाधार चक्र का ध्यान उसे लगता है तब उसे अनायास ही क्रमशः सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। वह योगी देवताओं द्वारा पूजित होता है तथा अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर वह त्रिलोक में इच्छापूर्वक विचरण कर सकता है। वह मेधावी योगी महावाक्य का श्रवण करते ही आत्मा में स्थिर होकर सर्वदा क्रीड़ा करता है। मूलाधार चक्र का ध्यान करने वाला साधक दादुरी सिद्धि प्राप्त कर अत्यंन्त तेजस्वी बनता है। उसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा सरलता उसका स्वभाव बन जाता है। वह भूत, भविष्य तथा वर्त्तमान का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सभी वस्तुओं के कारण को जान लेता है। जो शास्त्र कभी सुने हों, पढ़े हों, उनके रहस्यों का भी ज्ञान होने से उन पर व्याख्यान करने का सामर्थ्य उसे प्राप्त हो जाता है। मानो ऐसे योगी के मुख में देवी सरस्वती निवास करती है। जप करने मात्र से वह मंत्रसिद्धि प्राप्त करता है। उसे अनुपम संकल्प-सामर्थ्य प्राप्त होता है।[पंडित जितेन्द्र मिश्र ]
जब योगी मूलाधार चक्र में स्थित स्वयंभु लिंग का ध्यान करता है, उसी क्षण उसके पापों का समूह नष्ट हो जाता है। किसी भी वस्तु की इच्छा करने मात्र से उसे वह प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य आत्मदेव को छोड़कर बाह्य देवों की पूजा करते हैं, वे हाथ में रखे हुए फल को छोड़कर अन्य फलों के लिए इधर-उधर भटकते हैं। अतः सुज्ञ सज्जनों को आलस्य छोड़कर शरीरस्थ शिव का ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान परम पूजा है, परम तप है, परम पुरूषार्थ है।
मूलाधार के अभ्यास से छः माह में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इससे सुषुम्णा नाड़ी में वायु प्रवेश करती है। ऐसा साधक मनोजय करके परम शांति का अनुभव करता है। उसके दोनों लोक सुधर-सँवर जाते हैं।योग मार्ग द्वारा सम्यक प्राणायाम ,आसन ,मुद्राओं और एकनिष्ठ ध्यान से ही ६ महीने से एक साल में इसका जागरण होता है जबकि व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान हो ,योग्य गुरु का मार्गदर्शन हो और शरीर योग और प्राणायाम से शुद्ध हो चूका हो |शुरूआती चरणों और शरीर शुद्धता तथा योग्य बनने में ही अधिक समय लगता है जिसमें वर्षों लगते हैं |
         तंत्र में इसी चक्र का महत्व सर्वाधिक होता है ,क्योकि यही चक्र जाग्रत करना सबसे कठिन होता है |इसके जाग्रत और उर्ध्वमुखी होते ही अन्य चक्र आसानी से क्रियाशील हो सकते हैं किन्तु यह जाग्रत ही जल्दी नहीं होता |अगर हो भी गया तो सबसे पहले इसका प्रभाव इतना बढ़ता है की व्यक्ति के पतित होने की ही संभावना अधिक होती है |तंत्र इसीलिए पृथ्वी का सबसे कठिन साधना मार्ग है की यह सबसे पहले इस मूलाधार के महिसासुर को ही नियंत्रित करता है जिससे बाद के देवता स्वतः अनुकूल होने लगते हैं |इसे ही तंत्र जगाकर नियंत्रित करता है जबकि योग मार्ग इस पर ध्यान लगाकर इसे क्रियाशील करता है |यह सभी भौतिक ,लौकिक ,तामसिक सिद्धियों का केंद्र है जिस पर नियंत्रण से भैरव ,काली ,डाकिनी ,शाकिनी ,भूत ,पिशाच ,यक्षिणी ,अप्सरा ,जैसी समस्त शक्तियां नियंत्रण में आने लगती हैं |इनकी साधना विशेष रूप से करने की आवश्यकता नहीं होती अपितु थोड़े प्रयास से ,थोड़ी तकनीकियों का प्रयोग से ,थोड़े से साधना से इन शक्तियों की सिद्धि होने लगती है |यह कुछ ऐसा ही होता है जैसे अतिथि दरवाजे पर आये जिसकी आवभगत करके घर में बैठाना होता है |मूलाधार के जागरण से व्यक्ति भूत -प्रेत -ब्रह्म -पिशाच बाधा हटा सकता है ,भूत -भविष्य जान सकता है ,किसी के रोग -कष्ट दूर कर सकता है ,नकारात्मकता हटा सकता है ,शरीर का ऊर्जा प्रवाह सुधार सकता है |उसके आशीर्वाद और श्राप फलित होने लगते हैं |मूलाधार के जाग्रत होने का अर्थ है भगवती काली की शक्तियों का जागना ,क्योंकि मूलाधार के केंद्र में ही काली का डाकिनी स्वरुप होता है और यह स्वरुप बेहद उग्र है |सम्पूर्ण मूलाधार में काली की ही शक्तियाँ स्थित होती हैं ,अतः चाहे योगी हो अथवा तांत्रिक मूलाधार जागरण पर उग्रता ,तामसिकता ,भौतिकता ,विलासिता ,कामुकता के भाव एक बार उभरते जरुर हैं और इन्हें ही नियंत्रित रखते हुए सतत साधना रत रह कुंडलिनी शक्ति को स्वाधिष्ठान तक उठाया जाता है जहाँ यह सब महिसासुर वाले भावों का वहां दुर्गा संहार कर देती हैं और व्यक्ति इन भावों पर विजय पा लेता है |
मूलाधार के जागरण से शरीर का आभामंडल अर्थात औरा बदल जाती है ,शरीर तेज युक्त हो जाता है ,आँखों का तेज ऐसा हो जाता है की सामने वाला सहन नहीं कर पाता |यहाँ की शक्तियाँ मष्तिष्क के तरंगों के साथ क्रिया करते हुए व्यक्ति के सोचने की दिशा से उस लक्ष्य तक पहुँच क्रिया करने लगती हैं जहाँ व्यक्ति सोच रहा होता है ,इससे व्यक्ति के कोई कार्य करने के पहले ही सफलता की दिशा में कार्य होने का वातावरण बनने लगता है |व्यक्ति किसी को भी थोड़े एकाग्रता के साथ कोई भी संदेश दे सकता है और वह व्यक्ति इसे स्वप्न अथवा अचेतन के विचार के रूप में सुन लेगा |मूलाधार चक्र जाग्रत व्यक्ति जहाँ भी जाता है एक दबंग और उग्र व्यक्ति का उसका प्रभाव लोगों पर पड़ता है भले वह उग्रता न दिखाए किन्तु अनजाना भय लोगों में उत्पन्न होता ही है |ऐसे व्यक्ति पर की गयी कोई तांत्रिक क्रिया प्रभावहीन हो जाती है अथवा पलटकर करने वाले का ही नुकसान करती है |व्यक्ति का साहस ,आत्मबल ,आत्मविश्वास ,कर्मठता ,क्षमता ,प्रभावशालिता बहुत बढ़ जाती है जिससे उसकी सफलता कई गुना बढ़ जाती है तथा उसके आय के अनेक स्रोत अपने आप बनते जाते हैं |वह ऐसा हो जाता है की लोग उससे मदद मांगते हैं और उसे किसी के मदद की जरूरत नहीं होती |समृद्धि ,सम्पत्ति ,भौतिक सुखों से व्यक्ति परिपूर्ण तो होता ही है ,अत्यंत उच्च कोटि की आध्यात्मिक शक्ति भी उसमे होती है |इसी प्रकार ऐसे हजारों लाभ हैं जो मूलाधार के जागरण पर प्राप्त होते हैं ,,जिन्हें लिखने या बताने में कई पोस्ट कम पड़ जायेंगे |यदि आप भौतिक जीवन में सुखी रहते हुए आध्यात्मिक उन्नति चाहते हैं तो कुंडलिनी और मूलाधार जागरण का प्रयास करें |गुरु तलाश करें और साधना में भी थोडा समय दें तो आपका बहुविध कल्याण होगा |धन्यवाद ........................................................हर-हर महादेव



आपके शरीर की बौद्धिक आयु क्या है ,क्या आप जानते हैं ?


किस स्तर के शरीर में आपकी आत्मा रहती है ,क्या आप जानते हैं ?
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         हर व्यक्ति जन्म लेने के कुछ दिनों बाद एक निश्चित मानसिक विकास से गुजरता है किन्तु कुछ लोगों का मानसिक विकास तीव्र होता है कुछ लोगों का मानसिक विकास धीमा होता है और कुछ लोगों का मानसिक विकास अत्यधिक मंद होता है की वह २५ वर्ष की उम्र में भी 5 -6 वर्ष के बच्चे की तरह की बुद्धि के होते हैं ,भले इन सबको एक सामान ही माहौल क्यों न मिले |कभी कभी एक ही समय पर जन्मे बच्चों यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चों के भी मानसिक स्तर और रुचियों में बड़ी भिन्नता पायी जाती है |क्या आपने कभी सोचा है की यह सब क्यों होता है |विज्ञान अनेक सिद्धांत दे सकता है किन्तु ऐसा न हो इसका कोई उपाय उसके पास नहीं है क्योंकि वास्तव में विज्ञान यह रहस्य जानता ही नहीं की ऐसा क्यों होता है |ज्योतिषी इसके सम्बन्ध में ग्रहों ,नक्षत्रों की स्थिति स्थान अनुसार भिन्न बताकर ,या जन्म समय में सेकेण्ड का अंतर कहकर या देश -काल परिस्थिति की बात कहकर इसे परिभाषित करने की कोशिश करता है किन्तु यहाँ भी संतोषजनक उत्तर नहीं है |हम आपको इसका रहस्य बताते हैं अपने इस विडिओ में और अपने इस चैनल अलौकिक शक्तियां पर |इसका सम्बन्ध आपके अवचेतन और आपके शरीर से जुड़े सात ऊर्जा शरीरों से होता है |यह सातो शरीर सभी में होते हैं किन्तु हर व्यक्ति एक निश्चित शरीर की अवस्था में जन्म लेता है और उसके नीचे के शरीरों के गुणों के साथ उस शरीर के गुण उसमें १४ -१५ वर्ष की उम्र तक विकसित होते हैं |ध्यान से पूरा लेख और विडिओ देखिये ,आप उस रहस्य को जानने जा रहे जो दुनियां के बहुत कम लोग जानते हैं ,इसलिए ध्यान से पूरा लेख और विडिओ अंत तक समझें |
          मानव शरीर एक कम्प्यूटर के समान ही रहस्यपूर्ण यन्त्र है ,इसे ठीक से समझने के लिए मानव के विभिन्न आयामों को समझना आवश्यक है |बाहरी रूप से जो शरीर हमें दिखाई देता है वास्तव में वह शरीर का केवल दस प्रतिशत भाग होता है |विद्वानों ने शरीर के सात स्तरों की बात की है -
- स्थूल शरीर [फिजिकल बाडी] २- आकाश शरीर [ईथरिक बाडी]- सूक्ष्म शरीर [एस्ट्रल बाडी]- मनस शरीर [ मेंटल बाडी] ५- आत्म शरीर [स्पिरिचुअल बाडी]- ब्रह्म शरीर [कास्मिक बाडी] और ७- निर्वाण शरीर [बाडिलेस बाडी] |अब आप देखिये हमारे सौर मंडल में सात ही ग्रह भी मुख्य होते हैं ज्योतिष के अनुसार ,जबकि दो अदृश्य ग्रह माने जाते हैं |हमारे शरीर में सात ही चक्र मुख्य माने जाते हैं ,दो चक्र को और स्थान दिया जाता है इनके बीच अर्थात सात मुख्य ग्रह ,सात मुख्य चक्र और सात शरीर मानव के |कुछ तो सम्बन्ध है इनका |कुंडलिनी जागरण के क्रम में क्रमशः सातो चक्रों के जागरण से इन सात शरीर की अवस्था में व्यक्ति पहुँचता है और सातो ग्रहों के प्रभाव भी प्रभावित होते हैं |जन्मकालिक मुख्य ग्रह के अनुसार एक विशेष चक्र भी जन्म से ही क्रियाशील होता है और व्यक्ति के सप्त शरीर में से एक शरीर विशेष के गुण के अनुसार भी व्यक्ति का व्यक्तित्व और मानसिक स्थिति होती है |
       सनातन सिद्धांत और सोच के अनुसार मनस शास्त्रियों का कहना है की व्यक्तियों के जीवन में मानव शरीर के यह सातों स्तर उत्तरोत्तर विकसित होते हैं, अर्थात क्रमशः उम्र और समय के अनुसार इनका विकास होता है |सामान्य जन इसे नहीं समझ पाते ,यहाँ तक की साधक और कुंडलिनी के जानकार भी इसे व्यावहारिक स्तर पर न देखते हुए मात्र साधना से ही इनकी प्राप्ति और समझने की बात करते हैं |व्यावहारिक दृष्टिकोण की बात करें तो मनस शास्त्रियों के अनुसार सामान्य योग व्यवहार में रहते हुए एक शरीर का विकास लगभग सात वर्ष में पूरा हो जाना चाहिए और लगभग ५० वर्ष की आयु होने तक व्यक्ति सातवें शरीर का विकास करके विदेह [बाडीलेस ]अवस्था में पहुँच जाना चाहिए |अर्थात जन्म से ७ वर्ष तक स्थूल शरीर ,७ से १४ वर्ष तक आकाश शरीर ,१४ से २१ वर्ष तक सूक्ष्म शरीर ,२१ से २८ वर्ष तक मनस शरीर ,२८ से ३५ वर्ष तक आत्म शरीर ,३५ से ४२ वर्ष तक ब्रह्म शरीर और ४२ से ४९ -५० वर्ष तक निर्वाण शरीर की अवस्था में व्यक्ति को होना चाहिए |ध्यान दीजिये यहाँ शरीर यथावत रहता है मात्र मानसिक अवस्था इन शरीर के अनुसार पहुंचनी चाहिए |यह सनातन नियमों के अनुसार व्यक्ति की नियमित दिनचर्या के अनुसार निर्धारित किया गया है |
          राजा जनक को विदेह और जानकी को वैदेही भी कहते हैं ,इसका अर्थ यह होता है की राजा जनक विदेह अवस्था को प्राप्त थे |इस विदेह अथवा बाडिलेस अवस्था का अर्थ यह नहीं की व्यक्ति का भौतिक शरीर नहीं रहेगा अथवा व्यक्ति कोई भौतिक कर्म नहीं करेगा |इसका अर्थ केवल इतना है की वह सारे कार्य इस ढंग से करना सीख लेगा की उसकी आत्मा पर कोई कर्म का बंधन न लग पाए ,अर्थात आत्मा निर्लेष रहे |आत्मा प्रायः उस अवस्था में निर्लेष रहती है जब वह शरीर रहित होती है |यह एक मेटाफिजिकल सिद्धांत है |यह सूत्र हमारे सनातन दर्शन में जीवन के लिए बनाए गए थे और वैदिक काल में इसका पालन होता था |जीवन का ढंग ऐसा था की इसके अनुसार जीवन चले |
           इस सूत्र के अनुसार ,जीवन के प्रथम सात वर्ष में बच्चे का स्थूल शरीर पूरा होता है जैसे पशु का शरीर विकास को प्राप्त होता है |इस अवस्था में व्यक्ति में अनुकरण तथा नकल करने की प्रवृत्ति रहती है |प्रायः यह प्रवृत्ति पशुओं की भी होती है |कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिनकी बुद्धि इस भाव से उपर नहीं उठ पाती और पशुवत जीवन जीते रह जाते हैं |इसे हम योग की भाषा में कहते हैं की व्यक्ति प्रथम शरीर से उपर नहीं उठा |यह स्तर व्यक्ति के भौतिक शरीर का होता है और इस स्तर का व्यक्ति केवल भोजन -शयन में रूचि रखने वाला ,शारीरिक सुख चाहने वाला ,दूसरों के अनुसार चलने वाला होता है |
         द्वितीय शरीर अर्थात आकाश शरीर में भावनाओं का उदय होता है अतः इसे भाव शरीर भी कहते हैं |प्रेम और आत्मीयता वाली समझ विकसित होने से व्यक्ति सांसारिक सम्बन्धों को समझने लगता है |इस आत्मीयता के कारण ही व्यक्ति में पशु प्रवृत्ति कम होकर मनुष्य प्रवृत्ति का विकास होता है |चौदह वर्ष का होते होते वह सेक्स के भाव को भी समझने लग जाता है |बहुत से लोगों के चक्र यहीं तक विकसित हो पाते हैं और वे पूरे जीवन भर घोर संसारी बने रहते हैं |आकाश शरीर की स्थिति वाले लोग सदैव भौतिकता की ओर भागते हुए इसी में लिप्त रहते हैं |इनके लिए भोग विलाश ,भोजन ,शयन सुख ,भावना में बहने वाले ,कल्पना में जीने वाले ,अक्सर गलतियाँ करने वाले ,कम आत्मविश्वास वाले होते हैं | [पंडित जितेन्द्र मिश्र ]
          तृतीय शरीर सूक्ष्म शरीर कहलाता है |सामान्यतः इसकी विकास की अवधि २१ वर्ष तक है |इस अवधि में बुद्धि में विचार और तर्क की क्षमता का विकास हो जाने के कारण व्यक्ति बौद्धिक रूप से सक्षम हो जाता है और व्यक्ति में सांस्कृतिक गुण विकसित हो जाते हैं |सभ्यता भी आ जाती है और शिक्षा के आधार पर समझ भी बढ़ जाती है |इस स्तर के लोग जीवन और जन्म -मृत्यु को ही सब कुछ समझते हैं |भौतिक रूप से सभी सुखों की चाह भी होती है और मृत्यु की वास्तविकता को भी समझते हैं |जीवन सुखी बनाने की सामर्थ्य और बुद्धि भी होती है |इस स्तर पर आध्यात्मिक विकास न्यून होता है और कष्ट पर व्यक्ति दूसरों की ओर देखता है |अक्सर इस स्तर पर या तो व्यक्ति नास्तिक होता है या भाग्यवादी |नास्तिक कर्म को प्रमुखता देते हैं और भाग्यवादी भाग्य को ही सबकुछ मानते हैं |
             चतुर्थ शरीर अगले सात वर्ष तक विकसित हो जाना चाहिए |अर्थात २८ या ३० वर्ष तक इस शरीर का विकास हो जाना चाहिए |इसे मनस शरीर कहते हैं |इस स्तर पर मन प्रधान होता है ,अतः व्यक्ति ललित कलाओं ,संगीत ,साहित्य ,चित्र कारिता काव्य आदि में रूचि लेने लगता है |टेलीपैथी ,सम्मोहन यहाँ तक की कुंडलिनी भी इसी स्तर तक विकसित हुए व्यक्ति को रास आती है ,चूंकि यह स्तर व्यक्ति को कल्पना करने की ऐसी शक्ति देता है की वह पशुओं से श्रेष्ठ बन जाता है |स्वर्ग नर्क की कल्पना भी इसी स्तर में आती है |व्यक्ति आध्यात्मिक जगत को समझने लगता है और ब्रह्मांडीय सूत्रों में रूचि जाग्रत होती है |वह अधिकतम ज्ञान पाना चाहता है |हर क्रिया को समझने की कोशिस करता है |गहन साधना में रूचि इस शरीर की स्थिति में जाग्रत होती है और व्यक्ति यहाँ कुंडलिनी जाग्रत कर सकता है |
            पांचवां शरीर आध्यात्मिक होता है |इस स्तर पर पहुंचे व्यक्ति को आत्मा का अनुभव हो पाता है |यदि चौथे स्तर पर कुंडलिनी जाग्रत हो जाए तो इस शरीर का अनुभव हो पाता है |यदि नियम संयम से व्यक्ति का विकास होता रहे तो लगभग 35 वर्ष की आयु तक व्यक्ति इस स्तर पर पहुँच जाता है |यद्यपि आज के आधुनिक जीवन शैली में सामान्य जन के लिए यह बेहद कठिन है |मोक्ष का अनुभव इस स्तर पर हो सकता है ,मुक्ति का अनुभव हो जाता है |
        छठवां है ब्रह्म शरीर |इस स्तर पर व्यक्ति अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव कर पाता है |ऐसी कास्मिक बाडी सामान्यतः अगले सात वर्ष में विकसित हो जानी चाहिए |सातवाँ शरीर निर्वाण शरीर कहलाता है जो की विदेह अवस्था है |भगवान् बुद्ध ने इस स्थिति को ही निर्वाण कहा है |यहाँ अहं और ब्रह्म दोनों ही मिट जाते हैं |मैं और तू दोनों के ही न रहने से यह स्थिति परम शून्य की बन जाती है |
इन सातों शरीरों का क्रमिक विकास बहुत से लोगों में जन्म जन्म चलता रहता है |कोई प्रथम शरीर के साथ जन्म लेता है तो कोई चौथे स्तर के साथ |करोड़ों में कोई एक छठवें स्तर के साथ जन्म लेता है जो जन्म से ही विरक्त हो जाता है |जैसे बाबा कीनाराम ,तेलग स्वामी ,स्वामी स्वरूपानंद ,विवेकानंद जी |जैसे स्तर के साथ व्यक्ति का जन्म होता है वह चौदह वर्ष का होते होते व्यक्ति में प्रकट होने लगता है |उसकी सोच ,संसार को देखने का दृष्टिकोण ,व्यवहार ,समझ आदि में सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अंतर देखने को मिलता है |
               इसको हम आपको थोडा और विस्तार से समझाते हैं |सभी की शुरुआत तो स्थूल शरीर से ही हुई है किन्तु कोई मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति कर निर्वाण शरीर तक पहुच जाता है और कोई स्थूल शरीर की मानसिक अवस्था में ही रह जाता है जीवन भर |यदि मान लीजिये किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में सूक्ष्म शरीर की स्थिति पाई है और उसके ऊपर बड़े कर्म बंधन नहीं बनते ,किसी का श्राप आदि उसके जन्म को प्रभावित नहीं करते तथा वह अपनी आयु पूर्ण कर मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह दोबारा जन्म लेता है और १४ वर्ष की आयु होते होते उसकी मानसिक अवस्था सूक्ष्म शरीर की मानसिक अवस्था जैसी हो जायेगी ,जैसे वह बौद्धिक होगा ,समझदार हो जाएगा ,तार्किक और सांस्कृतिक गुण वाला होगा अर्थात पूर्ण विकसित मानव होगा |अब वह यदि यहाँ से अपना विकास करता है तो उसके लिए निर्वाण शरीर तक की यात्रा स्थूल शरीर और आकाश शरीर वाले से आसान होगी |वह जहाँ तक की यात्रा करेगा और कर्म बंधन को नियत्रित रखेगा तो वह अगले जन्म में आज पहुंची हुई आवस्था में जन्म लेगा और १४ वर्ष की आयु तक उसमे वह गुण विकसित हो जायेंगे |यह क्रमिक विकास है |यदि कोई अपने कर्म से सूक्ष्म शरीर की अवस्था में जन्म लेकर भी पशुवत स्थूल शरीर के भोग सुख में ही झूलता रह जाता है तो वह नीचे जाकर स्थूल शरीर की अवस्था भी प्राप्त कर सकता है |यह आध्यात्मिक विज्ञान है जिसे अच्छे अच्छे साधक ,ज्ञानी ,कुंडलिनी साधक तक नहीं जानते ,नहीं समझते |इसलिए व्यक्ति को अपने कर्मों को नियंत्रित रखना चाहिए |धन्यवाद .............................................हर हर महादेव

Thursday 1 August 2019

काली सहस्त्राक्षरी


:::::::::::::::::  श्री काली सहस्त्राक्षरी :::::::::::::::::
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क्रीं क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं दक्षिणे कालिके क्रीँ क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं स्वाहा शुचिजाया महापिशाचिनी दुष्टचित्तनिवारिणी क्रीँ कामेश्वरी वीँ हं वाराहिके ह्रीँ महामाये खं खः क्रोघाघिपे श्रीमहालक्ष्यै सर्वहृदय रञ्जनी वाग्वादिनीविधे त्रिपुरे हंस्त्रिँ हसकहलह्रीँ हस्त्रैँ ह्रीँ क्लीँ मे स्वाहा ह्रीँ ईं स्वाहा दक्षिण कालिके क्रीँ हूं ह्रीँ स्वाहा खड्गमुण्डधरे कुरुकुल्ले तारे . ह्रीँ नमः भयोन्मादिनी भयं मम हन हन पच पच मथ मथ फ्रेँ विमोहिनी सर्वदुष्टान् मोहय मोहय हयग्रीवे सिँहवाहिनी सिँहस्थे अश्वारुढे अश्वमुरिप विद्राविणी विद्रावय मम शत्रून मां हिँसितुमुघतास्तान् ग्रस ग्रस महानीले वलाकिनी नीलपताके क्रेँ क्रीँ क्रेँ कामे संक्षोभिणी उच्छिष्टचाण्डालिके सर्वजगव्दशमानय वशमानय मातग्ङिनी उच्छिष्टचाण्डालिनी मातग्ङिनी सर्वशंकरी नमः स्वाहा विस्फारिणी कपालधरे घोरे घोरनादिनी भूर शत्रून् विनाशिनी उन्मादिनी रोँ रोँ रोँ रीँ ह्रीँ श्रीँ हसौः सौँ वद वद क्लीँ क्लीँ क्लीँ क्रीँ क्रीँ क्रीँ कति कति स्वाहा काहि काहि कालिके शम्वरघातिनी कामेश्वरी कामिके ह्रं ह्रं क्रीँ स्वाहा हृदयाहये ह्रीँ क्रीँ मे स्वाहा ठः ठः ठः क्रीँ ह्रं ह्रीँ चामुण्डे हृदयजनाभि असूनवग्रस ग्रस दुष्टजनान् अमून शंखिनी क्षतजचर्चितस्तने उन्नस्तने विष्टंभकारिणि विघाधिके श्मशानवासिनी कलय कलय विकलय विकलय कालग्राहिके सिँहे दक्षिणकालिके अनिरुद्दये ब्रूहि ब्रूहि जगच्चित्रिरे चमत्कारिणी हं कालिके करालिके घोरे कह कह तडागे तोये गहने कानने शत्रुपक्षे शरीरे मर्दिनि पाहि पाहि अम्बिके तुभ्यं कल विकलायै बलप्रमथनायै योगमार्ग गच्छ गच्छ निदर्शिके देहिनि दर्शनं देहि देहि मर्दिनि महिषमर्दिन्यै स्वाहा रिपुन्दर्शने दर्शय दर्शय सिँहपूरप्रवेशिनि वीरकारिणि क्रीँ क्रीँ क्रीँ हूं हूं ह्रीँ ह्रीँ फट् स्वाहा शक्तिरुपायै रोँ वा गणपायै रोँ रोँ रोँ व्यामोहिनि यन्त्रनिकेमहाकायायै प्रकटवदनायै लोलजिह्वायै मुण्डमालिनि महाकालरसिकायै नमो नमः ब्रम्हरन्ध्रमेदिन्यै नमो नमः शत्रुविग्रहकलहान् त्रिपुरभोगिन्यै विषज्वालामालिनी तन्त्रनिके मेधप्रभे शवावतंसे हंसिके कालि कपालिनि कुल्ले कुरुकुल्ले चैतन्यप्रभेप्रज्ञे तु साम्राज्ञि ज्ञान ह्रीँ ह्रीँ रक्ष रक्ष ज्वाला प्रचण्ड चण्डिकेयं शक्तिमार्तण्डभैरवि विप्रचित्तिके विरोधिनि आकर्णय आकर्णय पिशिते पिशितप्रिये नमो नमः खः खः खः मर्दय मर्दय शत्रून् ठः ठः ठः कालिकायै नमो नमः ब्राम्हयै नमो नमः माहेश्वर्यै नमो नमः कौमार्यै नमो नमः वैष्णव्यै नमो नमः वाराह्यै नमो नमः इन्द्राण्यै नमो नमः चामुण्डायै नमो नमः अपराजितायै नमो नमः नारसिँहिकायै नमो नमः कालि महाकालिके अनिरुध्दके सरस्वति फट् स्वाहा पाहि पाहि ललाटं भल्लाटनी अस्त्रीकले जीववहे वाचं रक्ष रक्ष परविधा क्षोभय क्षोभय आकृष्य आकृष्य कट कट महामोहिनिके चीरसिध्दके कृष्णरुपिणी अंजनसिद्धके स्तम्भिनि मोहिनि मोक्षमार्गानि दर्शय दर्शय स्वाहा ।।
इस काली सहस्त्राक्षरी का नित्य पाठ करने से ऐश्वर्य,मोक्ष,सुख,समृद्धि,एवं शत्रुविजय प्राप्त होता है ।। ...................................................................हर-हर महादेव    


महाशंख  

                      महाशंख के विषय में समस्त प्रभावशाली तथ्य केवल कुछ शाक्त ही जानते हैं |इसके अलावा सभी लोग tantra में शंख का प्रयोग इसी...