::::::::::::::::आगम तंत्र शास्त्र ::::::::::::::
[पिछले भाग का शेष ]
‘ब्रह्मयामल’ के अनुसार नि:श्वास आदि तंत्र शिव के मध्य स्रोत से उद्भूत हुए थे और ऊर्ध्व वक्ष से निकले हैं। ब्रह्मयामल के मतानुसार नयोत्तर संमोह अथवा शिरश्छेद वामस्रोत से उद्भूत हैं। जयद्रथयामल में भी है कि शिरच्छेद से नयोत्तर और महासंमोहन – ये तीन तंत्र शिव के बाम स्रोत से उद्भूत हैं।
[पिछले भाग का शेष ]
‘ब्रह्मयामल’ के अनुसार नि:श्वास आदि तंत्र शिव के मध्य स्रोत से उद्भूत हुए थे और ऊर्ध्व वक्ष से निकले हैं। ब्रह्मयामल के मतानुसार नयोत्तर संमोह अथवा शिरश्छेद वामस्रोत से उद्भूत हैं। जयद्रथयामल में भी है कि शिरच्छेद से नयोत्तर और महासंमोहन – ये तीन तंत्र शिव के बाम स्रोत से उद्भूत हैं।
द्वैत और द्वैताद्वैत शैव आगम अति प्राचीन है, इसमें संदेह नहीं। परंतु जिस सरूप में वे मिलते हैं और मध्य युग में भी जिस प्रकार उनका वर्णन मिलता है, उससे ज्ञात होता है कि उसका यह रूप अति प्राचीन नहीं है। काल भेद से विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण ऐसा परिवर्तन हो गया है। फिर भी ऐसा माना जा सकता है कि मध्य युग में प्रचलित पंचरात्र आगम का अति प्राचीन रूप जैसा महाभारत शांति पर्व में दिखाई देता है उसी प्रकार शैवागम के विषय मे भी संभावित है। महाभारत के मोक्ष पर्व के अनुसार स्वयं श्रीकृष्ण ने द्वैत और द्वैताद्वैत शैवागम का अध्ययन उपमन्यु से किया था। ‘कामिक आगम’ में है कि सदाशिव के पंचमुखों में से पांचरात्र स्रोतों का संबंध है। इसीलिये कुल स्रोत 25 हैं। पाँच मुखों के पाँच स्रोतों के नाम हैं-
1. लौकिक, 2. वैदिक 3. आध्यात्मिक, 4. अतिमार्ग, 5. मंत्र।
पाँच मुख इस प्रकार हैं-
1 सद्योजात, 2 बामदेव, 3 अघोर 4 तत्पुरूष, 5 ईशान।
‘सोम सिद्धांत’ के अनुसार लौकिक तंत्र पाँच प्रकार के हैं और वैदिक भी पाँच प्रकार के हैं। इन सब तंत्रों में परस्पर उत्कर्ष या अपकर्ष का विचार पाया जाता है। तदनुसार ऊर्ध्वादि पांच दिशाओं के भेद के कारण तंत्रों के विषय में तारतम्य होता है। इसका तात्पर्य यह है कि ऊध्र्व दिशा से निकले हुए तंत्र सर्वश्रेष्ठ हैं। उसके बाद पूर्व, फिर उत्तर, पश्चिम, फिर दक्षिण। इस क्रम के अनुसार सिद्धांतविद् पंडित लोग कहा करते हैं कि सिद्धांतज्ञान मुक्तिप्रद होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है। उसके अनंतर क्रमानुसार सर्पविष नाशक गरूड़ज्ञान, सर्ववशीकरण प्रतिपादक कामज्ञान, भूतों का निवारक फ़ भूततंत्रफ़ और शत्रुदमन के लिये उपयोगी फ़ भैरव तंत्र फ़ का स्थान जानना चाहिए।
इस प्रसंग में और भी एक बात जानना आवश्यक है कि वैदिक दृष्टि से जैसे स्थूलत: ज्ञान के दो प्रकार दिखाई देते हैं- प्रथम ‘बोध रूप’ और द्वितीय ‘शब्द रूप’ । उसी प्रकार तंत्र साहित्य में भी ज्ञान के दो रूप पाए जाते हैं। यह कहना अनावश्यक है कि बोधात्मक ज्ञान शब्दात्मक ज्ञान से श्रेष्ठ है, इस बोध रूप ज्ञान के विभिन्न प्रकार हैं क्योंकि प्रतिपाद्य विषय के भेद के अनुसार ज्ञान का भेदाभेद होता है। जो ज्ञान शिव का प्रतिपादक है उससे पशु और माया का प्रतिपादक ज्ञान निकृष्ट है। इसी लिये शुद्ध मार्ग, अशुद्ध मार्ग, मिश्र मार्ग आदि भेदों से ज्ञान भेदों की कल्पना की गई है। शब्दात्मक ज्ञान को फ़ शास्त्र फ़ कहते हैं। इसमें भी परापर भेद हैं। सिद्धांतियों के मतानुसार वेदादिक ज्ञान से सिद्धांत ज्ञान विशुद्ध है, इसलिये श्रेष्ठ है परंतु सिद्धांत ज्ञान में भी परापर भेद हैं। इसी प्रकार दीक्षारूप ज्ञान के भी कई अवांतर भेद पाए जाते हैं- नैष्ठिक, भौतिक, निर्बीज, सबीज, लौकिक इत्यादि। इससे प्रतीत होता है कि मूल में ज्ञान एक होने पर भी प्रतिपाद्य विषय के कारण परापर भेद रूपों में प्रकट होता है।
‘स्वायंभुव आगम’ में कहा गया है-
तदेकमप्यनेकम्त्वं शिव वक्ताम्बु जोम्हवंल।
परापरेणा भेदेन गच्त्यर्थ प्रतिश्रयात् ।
‘कामिक आगम’ में भी हैं कि परापर भेद से ज्ञान केअधिकारी भेद होते हैं । इसमें प्रतिपाय विषय के अनुसार मतिज्ञान परज्ञान और पशुज्ञान अथवा अपर ज्ञान हैं । शिव प्रकाशन ज्ञान श्रेष्ठ हैं । पशुपाशादि अर्थ प्रकाशन अपर ज्ञान हैं। इसी प्रकार विविध कल्पनाएँ हैं परंतु शिव और रूद्र दोनों सिद्धांत ज्ञाप हैं।
पाशुपत संप्रदाय के आचार्य अष्टादश रूद्रागमों का प्रामाणाश्य मानते थे, परंतु दश शिव ज्ञान का प्रामाणाय नहीं मानते थे । इसका कारणा यह है कि रूद्रागम में द्वैत दष्टि और अद्वत दष्टि का मिश्रण पाया जाता हैं। परंतु शिवागम में अद्वैत दृष्टि मानी जाती इसलिये आचार्य अभिनय गुप्त ने कहा है कि पाशुपत दर्शन सर्वथा हेय नहीं हैं। किसी किसी ग्रंथ में स्पष्ट रूप से दिखया गया है कि शिव के किन मुखों से किन आगमों का निर्गम हुआ हैं। उससे यह प्रतित होता हैं कि कामिक, योगज, चित्य, कारणा और अजित ये पाँच शिवागम शिव के सधोजात मुख से निर्गत हुए थे। दीत्प, सूक्ष्म, सहरूत्र, अंशुमत या अंशमान संप्रभेद ये पाँच शिवागम शिव के बामदेव नामक मुख से निर्गत हुए हैं। विजय, नि:श्वास, स्वाभुव, आग्नेय और वीर ये पाँच रूद्रागम शिव के अघोर मुख से निर्गत हुए थे। रौरव, मुकुट, विमल ज्ञान, चंद्रकांत और बिब, ये पाँच रूद्रागम शिव के ईशान मुख से निसृत हुए थे। प्रोद्गीत, ललित, सिद्ध, संतान, वातुल, किरणा, सर्वोच्च और परमेश्वर ये आठ रूद्रागम शिव के तत्पुरूष मुख से निर्गत हुए थे। इस प्रकार अष्टाविंशति आगम के 198 विभागों में आगमों की चर्चा दिखाई देती हैं।
भैरवागम
श्रीकंठी संहिता में 64 भैरवागमों का निर्देश मिलता है। ये सब आगम अद्धैत सिद्धांत के प्रतिपादक हैं। इनके नाम इस प्रकार है:
1. भैरवाष्टक (स्वच्छंद भैरव, चंड भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत्त भैरव, असितांग भैरव, महोछ्वास भैरव, कपालीश भैरव। अष्टम भैरव का नाम नहीं मिलता)।
2. यामलाष्टक (इसमें आठ यामलों का नाम है यथा – ब्रह्म यामल, विष्णु यामल, स्वच्छंद यामल, रुरुयामल, अथर्वन् यामल, रुद्र यामल और वेताल यामल। अष्टम यामल अज्ञात है)।
3. मत्ताष्टक (रक्त, लंपट, लक्ष्मी, चालिका, पिंगला, उत्फुल्लक, बिंबाद्यमत, ये सात मत हैं। अष्टम का पता नहीं)।
4. मंगलाष्टक (इसमें आठ मंगल नामक ग्रंथ निविष्ट हैं, यथ-पीचु भैरवी, तंत्र भैरवी, ब्राह्मी कला, विजया, चंद्रा, मंगला तथा सर्वमंगला)
5. शक्राष्टक (इसमें मंत्रचक्र, वर्णचक्र, शक्ति चक्र, कलाचक्र, बिंदुचक्र, नादचक्र, गुह्मचक्र और पूर्णचक्र ये आठ चक्र हैं।)
6. बहुरूपाष्टक (इसमें भी आठ ग्रंथ हैं: अंधक, रुरुभेद, अज, वर्णभेद, यम, विडंग, मातृरोदन, जालिम)
7. वाणीशष्टक (भैरवी, चित्रिका, हिंसा, कदंबिका, ह्रल्लेखा, चंद्रलेखा, विद्युल्लेखा, विद्वत्मत ये आठ हैं)
8. शिखाष्टक (भैरवी शिखा; विनाशिखा, विनामनि, संमोह, डामर, आथवक, कबंध, शिरच्छेद)..........................................................हर-हर महादेव
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