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श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य
प्रदेश के उज्जैन जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का पुराणों और
प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से
उल्लेख किया गया है। यह स्थान मालवा क्षेत्र में स्थित क्षिप्रा
नदी के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई
है-
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
यह स्थान भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों में से एक है l इस ज्योतिर्लिंग के विषय में कथा इस प्रकार कही जाती है कि किसी समय अवंतिकापुरी उज्जयिनी में एक वेदपाठी तपोनिष्ठ व अत्यंत तेजस्वी ब्राह्मण रहते थे l एक दिन दूषण नामक अत्याचारी असुर उनकी तपस्या में विघ्न डालने वहां आया l ब्रह्माजी
के वर से वह बहुत शक्तिशाली हो गया था l उसके अत्याचार से चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुयी थी l ब्राह्मण को कष्ट में देख कर प्राणिमात्र का कल्याण करनेवाले भगवान् शिव वहां प्रगट हो गये l उन्होंने एक हुंकार मात्र से उस दानव को वहीं भस्म कर दिया lदूषण की कुछ सेना
को भी उन्होंने मार गिराया और कुछ स्वयं ही भाग खड़ी हुई। इस प्रकार परमात्मा शिव
ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अन्धकार छँट
जाता है, उसी प्रकार भगवान आशुतोष शिव को देखते ही सभी दैत्य सैनिक पलायन कर गये।
देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी दन्दुभियाँ बजायीं और आकाश से फूलों की वर्षा की।
उन शिवभक्त ब्राह्मणों पर अति प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘मै महाकाल महेश्वर
तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ, तुम लोग वर मांगो।’
महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन
ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहा- 'दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल! शम्भो! आप हम सबको इस
संसार-सागर से मुक्त कर दें। हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं
हमेशा के लिए विराजिए। प्रभो! आप अपने दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।’भगवान शंकर ने उन
ब्राह्माणों को सद्गति प्रदान की और अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में
स्थित हो गये। उस गड्ढे के चारों ओर की लगभग तीन-तीन किलोमीटर भूमि लिंग रूपी भगवान शिव
की स्थली बन गई। ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध
हुए।महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख
अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपासना
करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को
प्राप्त करता है|भगवान् वहां हुंकार सहित प्रगट हुए, इसीलिए उनका नाम महाकाल पड़ गया और इसी पवित्र ज्योतिर्लिंग को महाकाल के नाम से जाना जाता है l
पूजन प्रभाव
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उज्जयिनी नगरी में महान् शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय
चन्द्रसेन नामक एक राजा थे।उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के पार्षदों (गणों) में अग्रणी (मुख्य) मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये।
मणिभद्र जी ने एक बार राजा पर अतिशय प्रसन्न होकर राजा चन्द्रसेन को चिन्तामणि
नामक एक महामणि प्रदान की |वह महा मणि देखने, सुनने तथा ध्यान करने पर भी, वह मनुष्यों को निश्चित ही मंगल प्रदान करती थी।
राजा चनद्रसेन के गले में अमूल्य चिन्तामणि शोभा पा
रही है, यह जानकार सभी राजाओं में
उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया। चिन्तामणि के लोभ से सभी राजा क्षुभित होने लगे।
चन्द्रसेन के विरुद्ध वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए थे और उनके साथ भारी
सैन्यबल भी था। उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके रणनीति तैयार की और राजा
चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दिया। सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी के
चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरी हुई
देखकर राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान शिव की शरण में पहुँच गये। वे निश्छल मन
से दृढ़ निश्चय के सथ उपवास-व्रत
लेकर भगवान महाकाल की आराधना में जुट गये।
उन दिनों उज्जयिनी में एक विधवा ग्वालिन रहती थी, जिसको इकलौता पुत्र था। वह अपने उस पाँच वर्ष
के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतु गई। उसने देखा कि राजा चंद्रसेन
वहां पूजा कर रहे हैं। उसने पूजन को निहारते हुए भक्ति भावपूर्वक महाकाल को प्रणाम
किया और अपने निवास स्थान पर लौट गयी। उस ग्वालिन माता के साथ उसके बालक ने भी
महाकाल की पूजा का कौतूहलपूर्वक अवलोकन किया था। इसलिए घर वापस आकर उसने भी शिव जी
का पूजन करने का विचार किया। वह एक सुन्दर-सा पत्थर ढूँढ़कर लाया और उसने अपने मन में निश्चय करके उस पत्थर को ही
शिवलिंग मान लिया।शुद्ध मन से भक्ति भावपूर्वक उनसे उस शिवलिंग की पूजा की। सुन्दर-सुन्दर पत्तों तथा फूलों से बार-बार पूजन के बाद उस बालक ने बार-बार भगवान के चरणों में मस्तक लगाया। बालक का
चित्त भगवान के चरणों में आसक्त था और वह विह्वल होकर उनको दण्डवत कर रहा था। उसी
समय ग्वालिन ने भोजन के लिए अपने पुत्र को बुलाया। उधर उस बालक का मन शिव जी की
पूजा में रमा हुआ था, जिसके कारण वह
बाहर से बेसुध था। माता द्वारा बार-बार
बुलाने पर भी बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई और वह भोजन करने नहीं गया तब
उसकी माँ स्वयं उठकर वहाँ आ गयी।
माँ ने देखा कि उसका बालक एक पत्थर के सामने आँखें
बन्द करके बैठा है। वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी वह बालक वहाँ से नहीं उठा, जिससे उसकी माँ को क्रोध आया और उसने उसे ख़ूब
पीटा। इस प्रकार खींचने और मारने-पीटने
पर भी जब वह बालक वहाँ से नहीं हटा, तो माँ ने उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। बालक द्वारा उस शिवलिंग पर
चढ़ाई गई सामग्री को भी उसने नष्ट कर दिया। शिव जी का अनादर देखकर बालक ‘हाय-हाय’ करके रो पड़ा। क्रोध
में आगबबूला हुई वह ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार कर पुनः अपने घर में चली गई। जब उस बालक ने देखा कि भगवान शिव जी की
पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तब वह बिलख-बिलख कर रोने
लगा। देव! देव! महादेव! ऐसा पुकारता हुआ वह सहसा बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ा। उसकी
आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। कुछ देर बाद जब उसे चेतना आयी, तो उसने अपनी बन्द आँखें खोल दीं।
उस बालक ने आँखें खोलने के बाद जो दृश्य देखा, उससे वह आश्चर्य में पड़ गया। भगवान शिव की
कृपा से उस स्थान पर महाकाल का दिव्य मन्दिर खड़ा हो गया था। मणियों के चमकीले
खम्बे उस मन्दिर की शोभा बढा रहे थे। वहाँ के भूतल पर स्फटिक मणि जड़ दी गयी थी।
तपाये गये दमकते हुए स्वर्ण-शिखर उस
शिवालय को सुशोभित कर रहे थे। उस मन्दिर के विशाल द्वार, मुख्य द्वार तथा उनके कपाट सुवर्ण निर्मित थे। उस मन्दिर के सामने नीलमणि
तथा हीरे जड़े बहुत से चबूतरे बने थे। उस भव्य शिवालय के भीतर मध्य भाग में (गर्भगृह) करुणावरुणालय, भूतभावन, भोलानाथ भगवान शिव का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित
हुआ था।
ग्वालिन के उस बालक ने शिवलिंग को बड़े ध्यानपूर्वक
देखा उसके द्वारा चढ़ाई गई सभी पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी।देखते-देखते वह बालक उठ खड़ा हुआ। उसे मन ही मन
आश्चर्य तो बहुत हुआ, किन्तु वह
परमान्द सागर में गोते लगाने लगा। उसके बाद तो उसने शिव जी की ढेर-सारी स्तुतियाँ कीं और बार-बार अपने मस्तक को उनके चरणों में लगाया। उसके
बाद जब शाम हो गयी, तो सूर्यास्त
होने पर वह बालक शिवालय से निकल कर बाहर आया और अपने निवास स्थल को देखने लगा।
वहाँ सब कुछ शीघ्र ही सुवर्णमय हो गया था, वह बालक सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न उस घर के भीतर प्रविष्ट हुआ।
उसने देखा कि उसकी माता एक मनोहर पलंग पर सो रही हैं। उसके अंगों में बहुमूल्य
रत्नों के अलंकार शोभा पा रहे हैं। आश्चर्य और प्रेम में विह्वल उस बालक ने अपनी
माता को बड़े ज़ोर से उठाया। उसकी माता भी भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर चुकी थी।
जब उस ग्वालिन ने उठकर देखा, तो उसे
सब कुछ अपूर्व 'विलक्षण' सा देखने को मिला। उसके आनन्द का ठिकाना न रहा।
उसने भावविभोर होकर अपने पुत्र को छाती से लगा लिया। अपने बेटे के भूतेश शिव के
कृपा प्रसाद का सम्पूर्ण वर्णन सुनकर उस ग्वालिन ने राजा चन्द्रसेन को सूचित किया।
राजा चन्द्रसेन अपना नित्य-नियम
पूरा कर रात्रि के समय पहुँचे। उन्होंने भगवान शंकर को सन्तुष्ट करने वाले ग्वालिन
के पुत्र का वह प्रभाव देखा। उज्जयिनि को चारों ओर से घेर कर युद्ध के लिए खड़े उन
राजाओं ने भी गुप्तचरों के मुख से प्रात:काल उस अद्भुत वृत्तान्त को सुना। इस विलक्षण घटना को सुनकर सभी नरेश
आश्चर्यचकित हो उठे। उन राजाओं ने आपस में मिलकर पुन: विचार-विमर्श किया। परस्पर
बातचीत में उन्होंने कहा कि जब इस नगरी का एक छोटा बालक भी ऐसा शिवभक्त है, तो राजा चन्द्रसेन का महान् शिवभक्त होना
स्वाभाविक ही है। ऐसे राजा के साथ विरोध करने पर निशचय ही भगवान शिव क्रोधित हो
जाएँगे। शिव के क्रोध करने पर तो हम सभी नष्ट ही हो जाएँगे। इसलिए हमें इस नरेश से
दुश्मनी न करके मेल-मिलाप ही कर
लेना चाहिए, जिससे भगवान महेश्वर की
कृपा हमें भी प्राप्त होगी-
युद्ध के लिए उज्जयिनी को घेरे उन राजाओं का मन
भगवान शिव के प्रभाव से निर्मल हो गया और शुद्ध हृदय से सभी ने हथियार डाल दिये।
उनके मन से राजा चन्द्रसेन के प्रति बैर भाव निकल गया और उन्होंने महाकालेश्वर
पूजन किया। उसी समय परम तेजस्वी श्री हनुमान वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने गोप-बालक को अपने हृदय से लगाया और राजाओं की ओर
देखते हुए कहा- ‘राजाओं! तुम सब लोग तथा अन्य देहधारीगण भी ध्यानपूर्वक
हमारी बातें सुनें। मैं जो बात कहूँगा उससे तुम सब लोगों का कल्याण होगा। उन्होंने
बताया कि ‘शरीरधारियों के लिए भगवान
शिव से बढ़कर अन्य कोई गति नहीं है अर्थात महेश्वर की कृपा-प्राप्ति ही मोक्ष का सबसे उत्तम साधन है। यह
परम सौभाग्य का विषय है कि इस गोप कुमार ने शिवलिंग का दर्शन किया और उससे प्रेरणा
लेकर स्वयं शिव की पूजा में प्रवृत्त हुआ। यह बालक किसी भी प्रकार
का लौकिक अथवा वैदिक मन्त्र नहीं जानता है, किन्तु इसने बिना मन्त्र का प्रयोग किये ही अपनी भक्ति और
निष्ठा के द्वारा भगवान शिव की आराधना की और उन्हें प्राप्त कर लिया। यह बालक अब
गोप वंश की कीर्ति को बढ़ाने वाला तथा उत्तम शिवभक्त हो गया है। भगवान शिव की कृपा
से यह इस लोक के सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर
लेगा। इसी बालक के कुल में इससे आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द उत्पन्न
होंगे और उनके यहाँ ही साक्षात नारायण का प्रादुर्भाव होगा। वे भगवान
नारायण ही नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होकर श्री कृष्ण के नाम से
जगत् में विख्यात होंगे। यह गोप बालक भी, जिस पर कि भगवान शिव की कृपा हुई है, ‘श्रीकर’ गोप के नाम से
विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।
शिव के ही प्रतिनिधि वानरराज हनुमान जी ने
अतीव प्रसन्नता के साथ गोप बालक श्रीकर को शिव जी की उपासना के सम्बन्ध में बताया।
पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान शंकर को विशेष प्रिय है, उसे भी श्री हनुमान जी ने विस्तार से बताया।
अपना कार्य पूरा करने के बाद वे समस्त भूपालों तथा राजा चन्द्रसेन से और गोप बालक
श्रीकर से विदा लेकर वहीं पर तत्काल अर्न्तधान हो गये। राजा चन्द्रसेन की आज्ञा
प्राप्त कर सभी नरेश भी अपनी राजधानियों को वापस हो गये।
इस प्रकार ‘महाकाल’ नामक यह शिवलिंग शिव भक्तों का परम आश्रय है, जिसकी पूजा से
भक्त-वत्सल महेश्वर शीघ्र प्रसन्न होते हैं। ये भगवान शिव दुष्टों के संहारक
हैं, इसलिए इनका नाम ‘महाकाल’ है। ये काल अर्थात मृत्यु को भी जीतने वाले हैं, इसलिए इन्हें ‘महाकालेश्वर’ कहा जाता हैं।
भगवान शिव भयंकर ‘हुँकार’ के साथ प्रकट हुए थे, इसलिए भी इनका नाम ‘महाकाल’ से प्रसिद्ध हुआ है।
आधुनिक भारत के सर्वाधिक प्रसिद्द और जाग्रत ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री महाकालेश्वर अर्थात श्री महाकाल ,कालों के काल जी का ज्योतिर्लिंग है ,जहाँ इनका श्रृंगार चिता भष्म ,यज्ञ भष्म आदि से होता है |मध्यप्रदेश के उज्जौन नगरी में स्थित महाकाल जी त्वरित कृपा करने वाले ज्योतिर्लिंग रूप में विराजित शिव हैं |आवश्यकता श्रद्धा ,विश्वास ,भक्ति की होती है |.. .........[.अगला अंक - चतुर्थ ज्योतिर्लिंग श्री ओंकारेश्वर जी ]..............................................................हर-हर महादेव
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