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काशी को मोक्ष की नगरी भी कहा जाता है |यह प्रलय काल में भगवान् शिव के त्रिशूल पर विराजित होता है और प्रलय में
भी सुरक्षित होता है |यही से भगवान् शिव ने सृष्टि रचना का प्रारम्भ किया था |कहते हैं यहां जो इंसान अंतिम सांस लेता है उसे मोक्ष की प्राप्ती होती है। जिन लोगों की मृत्यु यहां नहीं होती उनका अंतिम संस्कार यहां पर कर देने मात्र से ही मोक्ष मिलता है। इसके साथ ही काशी में एक ऐसा कुंड भी है जहां पर मृत आत्माओं की शांति के लिए देश भर से लोग पिंड दान के लिए आते है। कहते है कि पित्र पक्ष के दिनों इस कुंड पर भूतों का मेला लगता है। इस कुंड का नाम है पिशाचमोचन कुंड। जहां पितृपक्ष में अकाल मौत मरने वालों को श्राद्ध करने से मुक्ति मिलती है। तामसी आत्माओं से छुटकारे के लिए कुंड के पेड़ में कील ठोक कर बांधा जाता है। कुछ लोग नारायन बलि पूजा भी कराते है जिससे मरने वाले की आत्मा को शांति मिलती है।
मंदिर के पुजारी बताते है कि काशी से पहले इस शहर को आनंदवन के नाम से जाना जाता था। यहां एक मान्यता ऐसी भी है कि अकाल मौत मरने वालों की आत्माएं तीन तरह की होती है जिसमें तामसी राजसी और सात्विक होती है तामसी प्रवित्ति की आत्माओ को यहां के विशाल काय वृक्ष में कील ठोककर बांध दिया जाता है, जिससे वो यहीं पर इस वृक्ष पर बैठ जाए और किसी भी परिवार के सदस्य को परेशान न करें। इस पेड़ में अब तक लाखों कील ठोकी जा चुकी है ये परंपरा बेहद पुरानी है जो आज भी चली आ रही है।
कहते हैं कि जब पुरखों की आत्माओं का
आशीष इंसान को जिंदगी में मिलता रहता है, तो उसके जीवन में खुशियां ही
खुशियां बनी रहती हैं। माना जाता है कि आकाश से हमारे पुरखे व धरती पर हमारे
बुजुर्ग अपनी दुआओं से हमारे जिंदगी में रौशनी बिखेरते रहते हैं।ये पुरखे हमारे
पित्र कहलाते हैं |इनकी तृप्ति के लिए हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती और वह भूत के रूप में इस संसार में ही रह जाता है। पितरों
के श्राद्ध के लिए विधिविधान पूर्वक तर्पण आदि करना सभी के लिए आवश्यक होता है
जिससे जीवन सुखमय बना रहे। धर्म और आध्यात्म की नगरी काशी वैसे तो मोक्ष की नगरी
के नाम से जानी जाती है। कहा जाता है कि यहा प्राण त्यागने वाले हर इंसान को भगवन
शंकर खुद मोक्ष प्रदान करते हैं। मगर जो लोग काशी से बाहर या काशी में अकाल प्राण
त्यागते हैं उनके मोक्ष की कामना से काशी के पिशाच मोचन कुण्ड पर त्रिपिंडी
श्राद्ध किया जाता है।
देश भर में सिर्फ काशी के ही अति प्राचीन पिशाच मोचन कुण्ड पर यह
त्रिपिंडी श्राद्ध होता है। जो पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के
बाद व्याधियों से मुक्ति दिलाता है। इसीलिये पितृ पक्ष में तीर्थ स्थली पिशाच मोचन
पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से आश्विन कृष्ण
पक्ष अमावस्या तिथि तक पितृ पक्ष कहलाता है,जिनकी मृत्यु पूर्णिमा तिथि के दिन हुई हो उनका भाद्रपद माह के पूर्णिमा तिथि के दिन ही श्राद्ध करने का नियम है। मान्यताएं ऐसी हैं कि पिशाचमोचन पर श्राद्ध कार्य करवाने से अकाल मृत्यु में मरने वाले पितरों को प्रेत बाधा से मुक्ति के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस धार्मिक स्थल का उद्भव गंगा के धरती पर आने से पूर्व हुआ है। इस पिशाच मोचन तीर्थ स्थली का वर्णन गरुण पुराण में भी मिलता है।
मान्यता
के अनुसार, काशी के प्राचीन पिशाच मोचन कुंड पर होने वाले त्रिपिंडी श्राद से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद विकारों से मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए पितृ पक्ष के दिनों तीर्थ स्थली पिशाच मोचन पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। यह भी मान्यता है कि वाराणसी में पिंड दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है क्योंकि काशी भगवान शिव की नगरी है। बताते चलें कि 12 महीने चैत्र से फाल्गुन तक 15-
15 दिन का शुक्ल और कृष्ण पक्ष का होता है, लेकिन आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन से पित्र पक्ष शुरू होता है जो १५ दिनों तक रहता है। पितृ पक्ष के 15 दिन पितरों की मुक्ति के माने जाते हैं और इन 15 दिनों के अंदर देश के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर श्राद्ध और तर्पण का कार्य होता है। इसके लिए काशी के अति प्राचीन पिशाच मोचन कुंड पर त्रिपिंडी श्राद होता है। यह पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद विकारों से मुक्ति दिलाता है। इस श्राद कार्य में इस पवित्र तीर्थ पर संस्कृत के श्लोकों के साथ तीन मिट्टी के कलश की स्थापना की जाती है, जो काले, लाल और सफेद झंडों से सजाए जाते हैं।
कर्मकांडी ब्राम्हणों के आचार्यत्व में पितरों को जौ के आटे की गोलियां, काला तिल, कुश और गंगाजल आदि से विधिविधान पूर्वक पिण्ड दान, श्राद्धकर्म व तर्पण किया जाता है। मान्यता अनुसार परिवार के मुख्य सदस्य क्षोरकर्म (सिर के बाल, दाढ़ी व मूंछ आदि मुंडवाना) मंत्रोच्चार की ध्वनि के साथ पितरों का श्राद्धकर्म करते हैं। श्राद्धकर्म के पश्चात् गौ, कौओं और श्वानों को आहार दिया जाता है। पिशाच मोचन में पिण्डदान की सदियों पुरानी परम्परा रही है। इसी के निमित्त आस्थावानों द्वारा हर वर्ष यहां कुण्ड पर पिण्डदान व श्राद्धकर्म कर गया में श्राद्धकर्म का संकल्प लिया जाता है।
अपने
पितरों के मुक्ति की कामना से पिशाच मोचन कुण्ड पर श्राद्ध और तर्पण करने के लिए
लोगों की भीड़ पितृ पक्ष के महीने में जुटती है। मान्यताएं हैं कि जिन पूर्वजों की
मृत्य अकाल हुई है वो प्रेत योनि में जाते हैं और उनकी आत्मा भटकती है। इनकी शांति
और मोक्ष के लिये यहां तर्पण का कार्य किया जाता है। गया का भी काफी महत्व है, लेकिन जो भी श्राद्ध करने की इच्छा रखता है वो
पहले काशी आता है और उसके पश्चात् ही गया प्रस्थान करता है।
कुंड के महत्व पर प्रकाश डालते हुए पिशाचमोचन कुंड के पंडा बताते हैं कि
यह त्रेतायुग का कुंड है। उस समय पिशाच नाम का ब्राहम्ण था जो दान नहीं देता था।
सिर्फ लोगों से दान लेता था। इन्होंने इतना दान ले लिया कि आत्मा की शांति नहीं
मिल रही थी। एक बार जब वाल्मीकि जी यहां पूजा कर रहे थे तो पिशाच ब्राह्मण आए तो
पूछा कि महराज मुझे आत्मा की शांति नहीं मिल रही है तो उन्होंने तालाब में नहाने
को बोला तो जैसे ही ब्राह्मण उसमें उतरे पानी भागने लगा। इसके बाद गिलास में पानी लिये तो वो भी सूख गया, क्योंकि वो 15—20 साल से प्यासे थे और उसके बाद उन्होंने वाल्मिकी जी से कहा कि महाराज हमारे कष्ट को दूर करें और हमें ठीक करें तो उन्होंने कहा कि मैं ठीक नहीं कर पाऊंगा। इस पर पिशाच ब्राह्मण ने कहा कि मैं आत्महत्या कर लूंगा। इसके बाद वाल्मिकी जी ने उन्हें यहां विष्णु जी व शंकर जी का उनसे तपस्या कराया, जिसके बाद शंकर जी यहां आए और पिशाच से कहा कि क्या कष्ट है तो उन्होंने शिव जी को कष्ट बताया। शिव जी ने
ब्राह्मण से पानी में उतरने को कहा। जब वो तालाब में उतरे तो ये एक कदम चले तो
पानी दो कदम दूर भाग जाये, इसके बाद जब इनके शरीर पर तालाब का पानी पड़ा
तो वो जलाशय हो गये। इसके बाद इन्होंने यहीं लोगों के मुक्ति के लिए उनसे आशिर्वाद
मांगा और यही भोले शंकर के सामने विराजमान हो गए। जिसके बाद से यहां की मान्यता है
कि यहां किसी के घर भी अकाल मृत्यु आदि हो तो यहां श्राद्ध करने से मुक्ति मिल
जाती है।
पितृ
पक्ष में पिशाचमोचन कुंड पर श्राद्ध करने के साथ ही यहां से एक और परम्परा भी जुड़ी
है। दरअसल समीप में ही वर्षों पुराने पीपल के वृक्ष में यहां आने वाले कुछ
श्रद्धालु सिक्का भी गाड़ते हैं। पिशाचमोचन पर श्राद्ध कराने वाले पंडित
बताते हैं कि पीपल के वर्षों पुराने पेड़ में सिक्का गाड़े जाने के पीछे लोगों की
आस्था जुड़ी है। मनोकामना के लिए कुछ लोग सिक्का गाड़ते हैं। जैसे कोई
बच्चों के लिए या कोई अप्राकृतिक मृत्यु प्राप्त हो जाये उसके लिए भी सिक्का
गाड़ते हैं। और मनोकामना पूरी होने पर उसे निकाल लेते हैं। इतना ही नहीं मानना यह
भी है कि अगर कोई प्रेत घर में है जिससे मुक्ति नहीं मिल रही तो यहां पीपल के पेड़
में सिक्के गाड़ने से उससे मुक्ति भी मिल जाती है और एक को लाभ मिलता है तो कई
अन्य और यहां आते हैं।
प्रेत बधाएं तीन तरीके की होती हैं। इनमें सात्विक, राजस, तामस शामिल हैं। इन तीनों बाधाओं से पितरों को मुक्ति दिलवाने के लिए काला, लाल और सफेद झंडे लगाए जाते हैं। इसको भगवान शंकर, ब्रह्म और कृष्ण के ताप्तिक रूप में मानकर तर्पण और श्राद का कार्य किया जाता है। पुरोहितों ने बताया कि यहां अपने पितरों के साथ-साथ अन्य पिशाच बाधाएं भी दूर की जाती हैं, जिनका प्रमाण सिर्फ देखने से मिलता है जिसमे प्रमुख रूप से महिला ओझा पुरोहितों के साथ बैठकर भूतों से कबूल करवाती हैं कि वह दुबारा उस मानव शरीर को परेशान नहीं करेगा। इसके लिए लोग यहां स्थित पीपल के पेड़ में उस भूत के नाम का सिक्का गाड़ते हैं। मान्यता है की वह भूत यही रहेगा और परेशान नहीं करेगा। तीर्थ पुरोहित के अनुसार, पितरों के लिए 15 दिन स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया जाता है। उन्होंने बताया कि यहां के पूजा-पाठ और पिंड दान करने के बाद ही लोग गया के लिए जाते हैं। उन्होंने बताया कि जो कुंड वहां है वो अनादि काल से है भूत-प्रेत सभी से मुक्ति मिल जाती है। पितरों का पिण्डदान व श्राद्धकर्म से जहां
पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। वहीं पितरों से धन-धान्य व यश की प्राप्ति के आशीष का द्वार भी खुल जाता है। इसलिए यह पूरी
श्रद्धा के साथ किया जाना चाहिए।.........................................................हर
हर महादेव
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