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पितृ गण हमारे वह पूर्वज हैं जो पहले हमारे कुलों में जन्मे थे और अब उनका देहांत हो चूका है |इनका ऋण भी
हमारे ऊपर होता है ,क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार हमारे
जीवन के लिए किया होता है , न भी किया हो तो वह
हमारे कुलों और वंश में उत्पन्न होने से भावनाओं के कारण हमसे जुड़े होते हैं ,जब
तक की उनकी मुक्ति न हो जाय |किसी भी मृतक आत्मा के लिए मुक्ति कई कारणों पर
नित्भर करती है और कुछ की मुक्ति कुछ दिनों में तो कुछ की हजारों वर्षों में भी हो
सकती है |इनके पित्र अथवा प्रेत शरीर का क्षरण कुछ महीनों में भी हो सकता है और
सैकड़ों वर्षों में भी पूर्ण नहीं हो सकता ,यह उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है और
निर्भर इस बात पर करता है की उनकी मृत्यु कैसे हुई थी अथवा मृत्यु समय उनकी
शारीरिक स्थिति क्या थी |
पित्र मनुष्यों के सबसे करीब से
सम्बन्धत आत्माएं हुआ करती हैं अतः मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक होता है |पितृ लोक के ऊपर सूर्य
लोक है एवं इस से भी ऊपर स्वर्ग लोक है| आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है ,वहाँ
हमारे पूर्वज मिलते हैं |अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये हमारे पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं की इस अमुक आत्मा
ने हमारे कुल में जन्म लेकर हमें धन्य किया |इसके आगे आत्मा अपने पुण्य
के आधार पर सूर्य
लोक की तरफ बढती है |वहाँ से आगे ,यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य
लोक को बेध कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है,लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है ,जो परमात्मा में समाहित होती है |जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता
|
पित्र लोक में यद्यपि अधिकतर उच्च स्थिति वाली और अपने कुलों के संस्कारों से जुडी आत्माएं ही होती हैं किन्तु हमारे कुलों में अकाल मृत्यु को प्राप्त अथवा आकस्मिक दुर्घटना ,बीमारी से मरे लोगों की आत्माएं भी पित्र में
ही गिनी जाती हैं |इन आत्माओं में देखने, समझने और प्रतिक्रया देने की शक्ति होती
है ,हमारे ये ही पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं ,और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे
प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह
है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं,ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं,जिसे "पितृ- दोष" कहा जाता है | पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है .ये बाधा पितरों द्वारा रुष्ट
होने के कारण होती है |पितरों के रुष्ट
होने के बहुत से कारण हो सकते हैं ,आपके आचरण से,किसी परिजन द्वारा की गयी गलती से ,श्राद्ध आदि कर्म ना करने से ,अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि के कारण ,खुद उसी कुल के
संपत्तियों का उपभोग करने और उस संपत्ति को बनाने वाले की तृप्ति का प्रयास न करने
से ,अतृप्त पितृ की शान्ति और मुक्ति का प्रयास न करने से भी हो सकता है | पित्र
दोष के पराभव से मानसिक अवसाद,व्यापार में नुक्सान ,परिश्रम के अनुसार फल न मिलना ,वैवाहिक जीवन में समस्याएं,अथवा विवाह न होना ,कैरिअर में समस्याएं या संक्षिप्त में कहें तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति और उसके परिवार को बाधाओं का सामना
करना पड़ता
है , पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति ,गोचर ,दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाते, कितना भी पूजा पाठ ,देवी ,देवताओं की अर्चना की जाए , उसका
शुभ फल नहीं मिल पाता|
पितृ
दोष उत्पन्न करने वाले दो प्रकार के पित्र होते हैं |अतृप्त पित्र अर्थात अपनी शारीरिक आयु पूर्ण न कर
पाने वाले पित्र और निर्लिप्त पित्र अर्थात पूर्णायु प्राप्त कर सामान्य मृत्यु को
प्राप्त पित्र आत्माएं | पूर्णायु पूर्ण न करने वाले अर्थात अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण, परिजनों की अतृप्त इच्छाएं ,इन अतृप्त पितरों
की संतुष्टि -शान्ति
-मुक्ति के लिए कोई प्रयास न करना ,जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होना ,विवाहादिमें परिजनों द्वारा गलत निर्णय ,पितरों को मुख्य अवसरों पर
याद भी न करना ,श्राद्ध आदि कर्म न करना आदि के साथ परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट देने पर पितर क्रुद्ध हो जाते हैं , परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं|इस प्रकार
के पित्र केवल श्राप ही नहीं देते ,सीधे परिवार और व्यक्ति को प्रभावित भी करते हैं और इनकी प्रतिक्रिया
तीव्र होती है |यह खुद असंतुष्ट होने के कारण परिवारियों को संतुष्ट सुखी नहीं
रहने देते और इनके साथ जुडी अन्य बाहरी आत्माए जब परिवार का शोषण करती हैं तो यह
कोई प्रतिक्रिया नहीं देते |
पूर्णायु प्राप्त कर शरीर त्याग करने वाले अर्थात उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते , परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति- रिवाजों का निर्वहन नहीं करने पर ,अथवा पारिवारिक या कुल की
मर्यादा के विरुद्ध आचरण होने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं | इनकी प्रतिक्रिया अंतरजातीय विवाहों ,कुल के संस्कार विरुद्ध
आचरण ,कुलदेवता /देवी के अपमान ,किसी अन्य शक्ति को कुलदेवता /देवी के स्थान पर
पूजे जाने पर यह प्रतिक्रया देते हैं और पित्र दोष उत्पन्न करते हैं |परिवार -खानदान
अथवा व्यक्ति द्वारा किसी प्रेत शक्ति ,शहीद -मजार ,पिशाच ,ब्रह्म ,सती जैसी
आत्मिक शक्तियों को पूजने पर भी यह प्रतिक्रिया करते हैं और श्राप देते हैं |इनके
द्वारा उत्पन्न पित्र दोष अधिक स्थायी और कई पीढ़ियों को प्रभावित करने वाला होता
है |इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है |मुक्ति मार्ग में बाधाएं
उत्पन्न होती हैं ,कुलदेवता /देवी रुष्ट हो जाते हैं ,संतानें विकारयुक्त और भाग्य
में पित्र दोष लिए उत्पन्न होती हैं |इस पराक्र के पित्र दोष के लिए उपाय कारगर
नहीं होते फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाएँ ,कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ, उनका कोई भी कार्य ये पितृदोष सफल नहीं होने देता |
पितृ दोष निवारण के लिए सबसे पहले ये जानना ज़रूरी होता है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है |जन्म
पत्रिका में लग्न ,पंचम ,अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है |पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य ,चन्द्रमा ,गुरु ,शनि ,और राहू -केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है |इनमें से भी गुरु , शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है | इनमें सूर्य से पिता या पितामह , चन्द्रमा से माता या मातामह ,मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र
से पत्नी
का विचार
किया जाता है |अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से क्योंकि गुरु ,शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है ,इसलिए
विभिन्न उपायों को करने के साथ साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी ,सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर ले , तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र
हो जाता है |पितृ दोष निवारण के लिए इन रुद्राक्षों को धारण करने के अतिरिक्त इन ग्रहों के अन्य उपाय जैसे मंत्र जप और स्तोत्रों का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है |.......................................................हर-हर महादेव
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