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मुख्य रूप से जन्म कुण्डली से ही पितृ दोष का निर्णय किया जाता है,सूर्य आत्मा एव पिता का कारक गृह है,पिता का विचार सूर्य से होता है,इसी प्रकार चन्द्रमा मन एव माता का कारक ग्रह है, सूर्य जब राहु की युति में हो तो ग्रहण योग बनता है,सूर्य का ग्रहण अतः पिता आत्मा का ग्रहण हुआ,सूर्य राहु की युति पितृ दोष का निर्माण करती है,सूर्य व चन्द्र अलग अलग या दोनों ही राहु की युति में हो तो पितृ दोष होता है,शनि सूर्य पुत्र है। यह सूर्य का नैसर्गिक शत्रु भी है,अतः शनि की सूर्य पर दर्ष्टि भी पितृ दोष उत्पन करती है,इसी पितृ दोष से जातक आदि व्याधि उपाधि तीनो प्रकार की पीड़ाओं से कष्ट उठाता है,उसके प्रत्येक कार्ये में अड़चन आती है.कोई भी कार्य सामान्य रूप से निर्विघ्न सम्पन्न नहीं होते है,दूसरे की दृष्टि में जातक सुखी दिखाई पड़ता है,परन्तु जातक अतिरिक्त रूप से दुखी होता है,जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट उठाता है,कष्ट किस प्रकार के होते है इसका विचार व निर्णय सूर्य राहु की युति अथवा सूर्य शनि की दृष्टि सम्बन्ध या युति जिस भाव में हो उसी पर निर्भर करता है,कुंडली में चतुर्थ भाव नवम भाव,तथा दशम भाव में सूर्य राहु अथवा चन्द्र राहु की युति से जो पितृ दोष उतपन्न होता उसे श्रापित पितृ दोष कहते है,इसी प्रकार पंचम भाव में राहु गुरु की युति से बना गुरु चांडाल योग भी प्रबल पितृ दोष कारक होता होता है,संतान भाव में इस दोष के कारण प्रसव कष्टकारक होता है, आठवे या बारहवे भाव में स्थित गुरु प्रेतात्मा से पितृ दोष करता है,यदि इन भावो में राहु बुध की युति में हो तथा सप्तम,अष्टम भाव में राहु और शुक्र की युति में हो तब भी पूर्वजो के दोष से पितृ दोष होता है,यदि राहु शुक्र की युति द्वादश भाव में हो तो पितृ दोष स्त्री जातक से होता है इसका कारण भी स्पष्ट होता है की बारहवा भाव भोग एव शैया सुख का स्थान है,अतः स्त्री जातक से
दोष होना स्वभाविक है। जातक की कुंडली में जब सूर्य तथा राहु की युति एक ही भाव अथवा राशि में होती है तो पितृ दोष नामक योग बनता है। पितृ दोष होने पर जातक (व्यक्ति) को संतान कष्ट, नौकरी तथा व्ययवसाय में दिक्कत, विवाह अथवा वैवाहिक कष्ट भोगना पड़ता है।
पितृ दोष और ग्रह योग
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- जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहो की स्थिति, युति, दृष्टि तथा उच्च-नीच के आधार पर पितृ दोष के कुछ कारणों का उल्लेख किया जा रहा है जो निम्न प्रकार से है :-
- जब व्यक्ति के कुण्डली में सूर्य-राहु या सूर्य-शनि एक साथ एक ही भाव में बैठे हो तो पितृ दोष होता है तथा जिस भाव में यह दोष बनता है उसी भाव से सम्बंधित कष्ट भोगना पड़ता है।
- कुण्डली में द्वितीय भाव, नवम भाव, द्वादश भाव और भावेश पर पापी ग्रहों का प्रभाव होता है या फिर भावेश अस्त या कमज़ोर होता है और उन पर केतु का प्रभाव होता है तब यह दोष बनता है।
- लग्न या लग्नेश दोनों अथवा दोनों में से कोई एक अत्यंत कमज़ोर स्थिति में हो।
- यदि लग्नेश नीच का हो तथा लग्नेश के साथ राहु और शनि का युति और दृष्टि सम्बन्ध बन रहा हो तो पितृदोष होता है।
- चन्द्र जिस राशि में बैठा है उस राशि का स्वामी तथा सूर्य जिस राशि में बैठा है उसका स्वामी जब नीच राशि में होकर लग्न में हो अथवा लग्नेश से दृष्टि, युति का सम्बन्ध बनाते हो साथ ही कोई न कोई पापी ग्रहों का भी युति या दृष्टि सम्बन्ध हो तो जातक को पितृ दोष लगता है।
- लग्नस्थ गुरु यदि नीच का हो तथा त्रिक भाव के स्वामियों से बृहस्पति ग्रह युति या दृष्टि सम्बन्ध बनाता हो तो पितृ दोष होता है।
- यदि राहु नवम भाव में बैठा हो तथा नवमेश से सम्बन्ध बनाता हो।
- नवम भाव में बृहस्पति और शुक्र की युति तथा दशम भाव में चन्द्र पर शनि व केतु का प्रभाव हो।
- शुक्र अगर राहु या शनि और मंगल द्वारा पीड़ित होता है तब भी पितृ दोष का संकेत समझना चाहिए।
- अष्टम भाव में सूर्य व पंचम में शनि हो तथा पंचमेश राहु से युति कर रहा हो और लग्न पर पापी ग्रहों का प्रभाव हो तब पितृ दोष होता है।
- पंचम अथवा नवम भाव में पापी ग्रह हो।
- जिस जातक की कुण्डली में दसमेश त्रिक भाव में हो तथा वृहस्पति पापी ग्रहों के साथ स्थित हो तथा लग्न और पंचम भाव पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो तो जातक को पितृ दोष लगता है।
- पंचम भाव, सिंह राशि तथा सूर्य भी पापी ग्रहों से युत या दृष्ट हो तब भी पितृ दोष होता है।.............................................................हर हर महादेव
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