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जब त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने जनकपुर में आयोजित सीता माता के स्वयंवर में भगवान् शिव जी का धनुष तोड़ा तो
वहां पहुंचे भगवान परशुराम काफी क्रोधित हो गए और, इस दौरान लक्ष्मण से उनकी लंबी बहस हुई , परन्तु बहस के बीच में ही जब परशुराम को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं नारायण ही हैं तो उन्हें बड़ी आत्मग्लानि हुई और, शर्म के मारे वे वहां से निकल गए तथा
पश्चाताप करने के लिए घने जंगलों के बीच एक पर्वत श्रृंखला में आ गए । यहाँ इन जंगलों में भगवान परशुराम बगल में अपना परशु अर्थात फरसे को गाड़ कर भगवान शिव की स्थापना कर आराधना करने लगे | परशुराम ने जिस जगह फरसे को गाड़ कर शिव जी की अराधना की थी वो आज आधुनिक झारखंड राज्य की राजधानी रांची के समीप गुमला जिले में स्थित डुमरी प्रखंड के मझगांव में स्थित है। चूँकि झारखंड एक आदिवासी बहुत क्षेत्र है और झारखण्ड में में फरसा को टांगी कहा जाता है इसलिए, कालांतर में इस स्थान का नाम टांगीनाथ धाम पड़ गया । इस टांगीनाथ धाम में आज भी भगवान परशुराम के पद चिह्न मौजूद हैं।
टांगीनाथ धाम का पश्चिम भाग छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ जिला व सरगुजा से सटा हुआ है एवं
उत्तरी भाग पलामू जिले व नेतरहाट की तराई से घिरा हुआ है। जमीन में करीब 17 फीट धंसे इस फरसे की ऊपरी आकृति कुछ त्रिशूल से मिलती-जुलती है , इसलिए, स्थानीय लोग इसे त्रिशूल भी कहते हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इसमें कभी जंग नहीं लगता एवं खुले आसमान के नीचे धूप, छांव, बरसात, ठंड का कोई असर इस
त्रिशूल पर नहीं पड़ता है | अपने इसी चमत्कार
के कारण यह विश्वविख्यात है। बताया जाता है कि यह मंदिर शाश्वत है और, स्वयं विश्वकर्मा भगवान ने टांगीनाथ धाम की रचना की थी। हालाँकि समय के साथ अब यह जगह एक खंडहर में तब्दील हो चूका है लेकिन फिर भी , यहां की बनावट, शिवलिंग व अन्य स्रोतों को देखने से ऐसा लगता भी है कि इसे आम आदमी नहीं बना सकता है।
ज्ञातव्य है कि इस त्रिशूल के अग्र भाग को मझगांव के लोहरा
जाति के लोगों ने काटने का प्रयास किया था लेकिन , त्रिशूल कटा नहीं पर कुछ जरुर निशान हो गए । इसकी कीमत लोहरा जाति को उठानी पड़ी और, आज भी इस इलाके में 10 से 15 किमी की परिधि में इस जाति का कोई व्यक्ति
निवास नहीं करता क्योंकि , अगर कोई
निवास करने का प्रयास करता है तो उसकी
मृत्यु को हो जाती है।.................................................हर हर महादेव
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