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सोमनाथ मन्दिर जिसे सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है, गुजरात [सौराष्ट्र ] के काठियावाड़ क्षेत्र के अन्तर्गत प्रभास में विराजमान हैं। इसी क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण ने यदु वंश का संहार कराने के बाद अपनी नर लीला समाप्त कर ली थी। ‘जरा’ नामक व्याध (शिकारी) ने अपने बाणों से उनके चरणों (पैर) को बींध डाला था। इस प्रसिद्ध मंदिर को अतीत में छह बार ध्वस्त एवं निर्मित किया गया है| इसकी समृद्धि को महमूद गजनवी के हमले से सार्वाधिक नुकसान पहुँचा था।सोमनाथ
मन्दिर को सन् 1024 में महमूद गजनवी ने भ्रष्ट कर
दिया था। सोने चांदी को लूटने के लिए उसने मन्दिर में तोड़-फोड़ की थी। उक्त सोमनाथ मन्दिर का भग्न अवशेष आज भी समुद्र के
किनारे विद्यमान है। इतिहास के अनुसार बताया जाता है कि जब महमूद ग़ज़नवी उस शिवलिंग को
नहीं तोड़ पाया, तब उसने उसके अगल-बगल में भीषण आग लगवा दी। सोमनाथ मन्दिर में नीलमणि के
छप्पन खम्भे लगे हुए थे। उन खम्भों में हीरे -मोती तथा विविध प्रकार के रत्न जड़े
हुए थे। उन बहुमूल्य रत्नों को लुटेरों ने लूट लिया और मन्दिर को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
महमूद ग़ज़नवी के मन्दिर लूटने के बाद राजा भीमदेव
ने पुनः उसकी प्रतिष्ठा की। सन् 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर की प्रतिष्ठा और उसके पवित्रीकरण में
भरपूर सहयोग किया। 1168 में
विजयेश्वर कुमारपाल ने जैनाचार्य हेमचन्द्र सरि के साथ सोमनाथ की यात्रा की थी।
उन्होंने भी मन्दिर का बहुत कुछ सुधार करवाया था। इसी प्रकार सौराष्ट्र के राजा
खंगार ने भी सोमनाथ-मन्दिर का
सौन्दर्यीकरण कराया था। उसके बाद भी मुसलामानों ने बहुत दुराचार किया और
मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करते
रहे। अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1297 ई. में पुनः सोमनाथ-मन्दिर का ध्वंस किया। उसके सेनापति नुसरत ख़ाँ
ने जी-भर मन्दिर को लूटा। सन् 1395 ई. में गुजरात का सुल्तान मुजफ्फरशाह भी मन्दिर का विध्वंस करने
में जुट गया। अपने पितामह के पदचिह्नों पर चलते हुए अहमदशाह ने पुनः सन् 1413 ई. में सोमनाथ-मन्दिर को तोड़
डाला। प्राचीन स्थापत्यकला जो उस मन्दिर में दृष्टिगत होती थी, उन सबको उसने तहस-नहस कर डाला।
भारतीय स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र
प्रसाद ने देश के स्वाभिमान को जाग्रत करते हुए पुनः सोमनाथ मन्दिर का भव्य
निर्माण कराया। सोमनाथ का मूल मन्दिर जो बार-बार नष्ट किया गया था, वह
आज भी अपने मूलस्थान समुद्र के किनारे ही है। स्वाधीन भारत के प्रथम
गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने यहाँ भव्यमन्दिर का निर्माण कराया
था। सोमनाथ के मूल मन्दिर से कुछ ही दूरी पर अहिल्या बाई द्वारा बनवाया
गया सोमनाथ का मन्दिर है।
शिव पुराण के अनुसार द्वादश ज्योतिर्लिंग में सोमनाथ की गणना प्रथम है। इनके आविर्भाव का प्रकरण प्रजापति दक्ष और चन्द्रमा के
साथ जुड़ा है। जब प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्विनी आदि सभी सत्ताइस पुत्रियों का विवाह चन्द्रमा के साथ कर दिया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। पत्नी के रूप में दक्ष कन्याओं को प्राप्त कर चन्द्रमा बहुत शोभित हुए और दक्षकन्याएँ भी अपने स्वामी के रूप में चन्द्रमा को प्राप्त कर शोभायमान हो उठी। चन्द्रमा की उन सत्ताइस पत्नियों में रोहिणी उन्हें अतिशय प्रिय थी, जिसको वे विशेष आदर तथा प्रेम करते थे। उनका इतना प्रेम अन्य पत्नियों से नहीं था। चन्द्रमा की उदासीनता और उपेक्षा का देखकर रोहिणी की अपेक्षा शेष स्त्रियाँ बहुत दुःखी हुई। वे सभी स्त्रियाँ अपने पिता दक्ष की शरण में गयीं और उनसे अपने कष्टों का वर्णन किया। अपनी पुत्रियों की व्यथा और चन्द्रमा के दुर्व्यवहार को सुनकर दक्ष भी बड़े दुःखी हुए। उन्होंने चन्द्रमा से भेंट की और शान्तिपूर्वक कहा- ‘कलानिधे! तुमने निर्मल व पवित्र कुल में जन्म लिया है, फिर भी तुम अपनी पत्नियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हो। तुम्हारे आश्रय में रहने वाली जितनी भी स्त्रियाँ हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में प्रेम कम और अधिक, ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों है? तुम किसी को अधिक प्यार करते हो और किसी को कम प्यार देते हो, ऐसा क्यों करते हो? अब तक जो व्यवहार किया है, वह ठीक नहीं है, फिर अब आगे ऐसा दुर्व्यवहार तुम्हें नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति आत्मीयजनों के साथ विषमतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे नर्क में जाना पड़ता है।’ इस प्रकार प्रजापति दक्ष ने अपने दामाद चन्द्रमा को प्रेमपूर्वक समझाया और ऐसा सोच लिया कि चन्द्रमा में सुधार हो जाएगा। उसके बाद प्रजापति दक्ष वापस चले गये।
शिव महापुराण में लिखा है-
विमले च कुले त्वं हि समुत्पन्नः कलानिधे।
आश्रितेषु च सर्वेषु न्यूनाधिक्यं कथं तव।।
कृतं चेतत्कृतं तच्च् न कर्त्तव्यं त्वया पुनः।
वर्तनं विषमत्वेन नरकप्रदमीरितम्।।
प्रबल भावी के कारण विवश चन्द्रमा ने अपने ससुर
प्रजापति दक्ष की बात नहीं मानी। रोहिणी के प्रति अतिशय आसक्ति के कारण उन्होंने
अपने कर्त्तव्य की अवहेलना की तथा अपनी अन्य पत्नियों का कुछ भी ख्याल नहीं रखा और
उन सभी से उदासीन रहे। दुबारा समाचार प्राप्त कर प्रजापति दक्ष बड़े दुःखी हुए। वे
पुनः चन्द्रमा के पास आकर उन्हें उत्तम नीति के द्वारा समझने लगे। दक्ष ने
चन्द्रमा से न्यायोचित बर्ताव करने की प्रार्थना की। बार-बार आग्रह करने पर भी चन्द्रमा ने अवहेलनापूर्वक जब दक्ष की बात नहीं मानी, तब उन्होंने शाप दे दिया। दक्ष ने कहा कि मेरे
आग्रह करने पर भी तुमने मेरी अवज्ञा की है, इसलिए तुम्हें क्षयरोग हो जाय-
श्रयतां चन्द्र यत्पूर्व प्रार्थितो बहुधा मया।,
न मानितं त्वया यस्मात्तस्मात्त्वं च क्षयी भव ।।
दक्ष द्वारा शाप देने के साथ ही क्षण भर में
चन्द्रमा क्षय रोग से ग्रसित हो गये। उनके क्षीण होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया।
सभी देवगण तथा ऋषिगण भी चिंतित हो गये। परेशान चन्द्रमा ने अपनी अस्वस्थता तथा
उसके कारणों की सूचना इन्द्र आदि देवताओं तथा ऋषियों को दी। उसके बाद उनकी
सहायता के लिए इन्द्र आदि देवता तथा वशिष्ठ आदि ऋषिगण ब्रह्मा
जी की शरण में गये। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि जो घटना हो गई है, उसे तो भुगतना ही है, क्योंकि दक्ष के निश्चय को पलटा नहीं जा सकता। उसके बाद ब्रह्माजी ने उन
देवताओं को एक उत्तम उपाय बताया।
ब्रह्माजी ने कहा कि चन्द्रमा देवताओं के साथ
कल्याणकारक शुभ प्रभास क्षेत्र में चले जायें। वहाँ पर विधिपूर्वक
शुभ कल्याणकारी मृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान करते हुए श्रद्धापूर्वक
भगवान शिव शंकर की आराधना करें। अपने सामने शिवलिंग की स्थापना करके
प्रतिदिन कठिन तपस्या करें। इनकी आराधना और तपस्या से जब भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हो
जाएँगे, तो वे इन्हें क्षय रोग से
मुक्त कर देगें। पितामह ब्रह्माजी की आज्ञा को स्वीकार कर देवताओं और
ऋषियों के संरक्षण में चन्द्रमा देवमण्डल सहित प्रभास क्षेत्र में पहुँच गये।
वहाँ चन्द्रदेव ने मृत्युंजय भगवान की अर्चना-वन्दना और अनुष्ठान प्रारम्भ किया। वे मृत्युंजय-मंत्र का जप तथा भगवान शिव की उपासना में तल्लीन
हो गये। ब्रह्मा की ही आज्ञा के अनुसार चन्द्रमा ने छः महीने तक निरन्तर तपस्या की
और वृषभ ध्वज का पूजन किया। दस करोड़ मृत्यंजय-मंत्र का जप तथा ध्यान करते हुए चन्द्रमा स्थिरचित्त से वहाँ निरन्तर खड़े
रहे। उनकी उत्कट तपस्या से भक्तवत्सल भगवान शंकर प्रसन्न हो गये। उन्होंने
चन्द्रमा से कहा- 'चन्द्रदेव! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जिसके लिए यह कठोर तप
कर रहे हो, उस अपनी अभिलाषा को
बताओ। मै तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें उत्तम वर प्रदान करूँगा।’ चन्द्रमा ने प्रार्थना करते हुए विनयपूर्वक कहा- ‘देवेश्वर! आप मेरे सब अपराधों को क्षमा करें और मेरे शरीर के इस क्षयरोग को दूर कर
दें।’
भगवान शिव ने कहा– 'चन्द्रदेव! तुम्हारी कल
प्रतिदिन एक पक्ष में क्षीण हुआ करेगी, जबकि दूसरे पक्ष में प्रतिदिन वह निरन्तर बढ़ती रहेगी। इस प्रकार तुम
स्वस्थ और लोक-सम्मान के योग्य ही
जाओगे। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद
प्राप्त कर चन्द्रदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भक्तिभावपूर्वक शंकर की स्तुति
की। ऐसी स्थिति में निराकार शिव उनकी दृढ़ भक्ति को देखकर साकार लिंग रूप में
प्रकट हो गये तथा प्रभास क्षेत्र के महत्त्व को बढाने हेतु देवताओं के
सम्मान तथा चन्द्रमा के यश का विस्तार करने के लिए स्वयं ‘सोमेश्वर’ कहलाने लगे।
चन्द्रमा के नाम पर सोमनाथ बने भगवान शिव संसार में ‘सोमनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध
हुए।
पुराण की एक विशेष कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने पृथ्वी को
खोदकर प्रभास क्षेत्र में मुर्गी के अण्डे बराबर स्वयम्भू शिवलिंग सोमनाथ के दर्शन किये उसके बाद उन्होंने उस लिंग को कुशा तथा मधु से ढँककर उस पर ब्रह्मशिला रख दी। उसी ब्रह्मशिला के उपर ब्रह्मा ने सोमनाथ के बृहद्लिंग की प्रतिष्ठा की। चन्द्रमा इसी बृहद्लिंग की अर्चना-वन्दना करने के बाद प्रजापति दक्ष के शाप से मुक्त हुऐ थे।
यहाँ भू-गर्भ में (भूमि के
नीचे) सोमनाथ लिंग की स्थापना की गई है। भू-गर्भ में होने के कारण यहाँ प्रकाश का अभाव रहता है। इस मन्दिर में पार्वती , सरस्वती , लक्ष्मी
, गंगा और नंदी की भी मूर्तियाँ स्थापित हैं। भूमि के ऊपरी भाग में शिवलिंग से ऊपर अहल्येश्वर मूर्ति है। मन्दिर के परिसर में गणेश जी का
मन्दिर है और उत्तर द्वार के बाहर अघोरलिंग की मूर्ति स्थापित की गई है। प्रभावनगर में अहल्याबाई मन्दिर के पास ही महाकाली का मन्दिर है। इसी प्रकार गणेश , भद्रकाली तथा भगवान विष्णु का मन्दिर नगर में विद्यमान है। नगर के द्वार के पास गौरीकुण्ड नामक सरोवर है। सरोवर के पास ही एक प्राचीन शिवलिंग है।
सोमनाथ भगवान की पूजा और उपासना करने से उपासक भक्त के क्षय तथा कोढ़ आदि रोग सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है। यशस्वी चन्द्रमा के कारण ही सोमेश्वर भगवान शिव इस भूतल को परम पवित्र करते हुए प्रभास क्षेत्र में विराजते हैं। उस क्षेत्र में सभी देवताओं ने मिलकर एक सोमकुण्ड की भी स्थापना की है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस कुण्ड में शिव तथा ब्रह्मा का सदा निवास रहते हैं। इस पृथ्वी पर यह चन्द्रकुण्ड मनुष्यों के पाप नाश करने वाले के रूप में प्रसिद्ध है। इसे ‘पापनाशक-तीर्थ’ भी कहते हैं। जो मनुष्य इस चन्द्रकुण्ड में स्नान करता है, वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इस कुण्ड में बिना नागा किये छः माह तक स्नान करने से क्षय आदि दुःसाध्य और असाध्य रोग भी नष्ट हो जाते हैं। मुनष्य जिस किसी भी भावना या इच्छा से इस परम पवित्र और उत्तम तीर्थ का सेवन करता है, तो वह बिना संशय ही उसे प्राप्त कर लेता है।........अगला अंक -द्वितीय ज्योतिर्लिंग - श्री मल्लिकार्जुन जी ]...............................................हर
हर महादेव
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