युगल तंत्र
साधना क्यों अधिक तीव्र होती है
===================
तंत्र में
सिद्धियों की प्राप्ति के लिए श्रृष्टि ऊर्जा अर्थात काम ऊर्जा को प्रत्यक्ष
माध्यम बनाया जाता है |योग और दक्शिनाचारी साधनाओं में भी माध्यम तो यही शरीर
ऊर्जा ही होती है किन्तु उसे सामान्य रूप से चलते हुए विरक्त रूप से उर्ध्वमुखी
होने दिया जाता है |तंत्र में उसे शारीरिक अंगों के साथ क्रिया करते हुए तीव्र से
तीव्रतर कर उर्ध्वमुखी किया जाता है |अत्यधिक तीव्र ऊर्जा प्रवाह से उत्पन्न मनस
ऊर्जा का तीव्र प्रवाह इतनी शक्ति से बढ़ता है की जो लक्ष्य सामान्य स्थितियों में
वर्षों का समय लेता है वह इस पद्धति से मात्र कुछ महीनों में प्राप्त होता है
|सबसे कठिन मूलाधार जागरण और अन्य चक्रों के जागरण इस मूलाधार की शक्ति के उपयोग
से अत्यंत शीघ्रता से प्राप्त होते हैं |एक साथ दो लोगों स्त्री और पुरुष को शक्ति
एक साथ प्राप्त होती है और सबसे बड़ी बात है की प्रकृति के नियम पद्धति में रहते
हुए सामान्य जीवन जीते हुए सबकुछ होता है |यह कुंडलिनी तंत्र का सूत्र है और इसे
ही कुछ भारतीय विद्वानों ने विदेशों में ले जाकर वहां की जीवन पद्धति तथा जीवन
शैली के अनुकूल बनाने और प्रसारित करने में इसको विकृत भी कर दिया और अपनी भौतिक
आवश्यकताओं की पूर्ती का भी माध्यम बनाया |पथभ्रष्ट तांत्रिकों और साधकों द्वारा
इस माध्यम के नाम का सहारा लेने के कारण यह सामाजिक रूप से विवादास्पद और हेय बन
गया जबकि यह अत्यंत उत्कृष्ट साधना पद्धति है जो प्रत्येक गृहस्थ को गृहस्थ रहते
हुए भी शक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करने की क्षमता रखता है |यह साधना पद्धति
कुंडलिनी तंत्र अथवा भैरवी विद्या कहलाती है |
यह विद्या आद्य गुरु महेश्वर शिव द्वारा
गृहस्थ के लिए कुंडलिनी जागरण को दृष्टिगत रखते हुए विकसित की गयी जो बाद में कई
मार्गों और कई प्रकारों में विभक्त हो गयी |इसके द्वारा सिद्धियाँ होने लगी और
शक्तियां भी प्राप्त की जाने लगी यद्यपि कुंडलिनी जागरण में शक्तियां और सिद्धियाँ
स्वतः प्राप्त होती हैं लेकिन इसके द्वारा विशेषतया सिद्धियों के लिए भी इसका
प्रयोग होने लगा |मूलतः यह विद्या तो कुंडलिनी से ही सम्बन्धित थी जहाँ वीर्य
क्षरण रोककर उससे उत्पन्न ओज को उर्ध्वमुखी किया जाता है पर इसी सूत्र पर मंत्र भी
अति शीघ्र सिद्ध होते हैं और यही कारण था की भैरवी विद्या पांच प्रकार की बन गयी
|भैरवी साधना वह है जिसमे भैरवी को साधना का माध्यम बनाया जाये |इस प्रकार भैरवी
साधना कई प्रकार की साधनाओं को कहने लगे |पाश्चात्य तांत्रिक सेक्स को भी भैरवी
साधना का नाम देते हैं और कहते हैं की यह कुंडलिनी साधना है |पंचमकार से कामाख्या
अथवा काली अथवा त्रिपुरा की साधना को भी भैरवी साधना कहते हैं ,कामकला काली की
साधना को भी भैरवी साधना कहते हैं ,भैरवी महाविद्या की साधना को भी भैरवी साधना कहते
हैं और भैरवी के माध्यम से कुंडलिनी साधना जो की मूल साधना है को भी भैरवी साधना
कहते हैं |
अलग अलग तांत्रिक सम्प्रदायों में
अलग अलग पद्धतियों और प्रकारों का प्रयोग होने लगा |सम्भोग से कुंडलिनी जागरण पर
हम कई विडिओ और लेख प्रकाशित किये हैं |सम्भोग से शक्ति प्राप्ति अथवा सिद्धि कैसे
प्राप्त होती है हम आपको इस लेख में बताते हैं |तांत्रिक पूजा में सम्भोग का
महत्त्व अभी तक हमने पहले बताया है |साधना में मन्त्रों का विशेष महत्त्व
दार्शनिकों और तंत्रज्ञों नें प्रतिपादित किया है |वह मानते हैं की सम्भोग काल में
मंत्र जप करने से दो आत्माओं और दो शरीर उर्जा जुड़ने का प्रभाव आकाश में इस प्रकार
प्रसारित होता है की वह एक धन एक बराबर दो न होकर एक और एक ग्यारह हो जाता है
|उदाहरणार्थ यामल तंत्र में उच्चिष्ठ गणपति के प्रयोग के लिए बताया गया है की लाल
चन्दन या श्वेत आक की लकड़ी से गणपति की मूर्ती बनाकर गुरु और अग्नि को साक्षी
मानकर स्थापित करें |कृष्ण पक्ष की चतुर्थी से शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक एक हजार
जप प्रति दिन करें तो मंत्र चैतन्य हो जाता है |इस प्रकार इसके अनुसार मंत्र
सप्राण करने के लिए १५ हजार जप करने होंगे |अब विज्ञानं तंत्र के प्रकाशन शाबर
तंत्र के उच्चिष्ठ गणपति के प्रयोग में कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ करके शुक्ल
चतुर्दशी पर्यंत नित्य १०८ बार जप करने पर मंत्र सिद्धि की बात लिखी है साथ ही यह
निर्देश है की न्यास ,नक्षत्र ,वार ,व्रत आदि का विचार यथावत समझे |इसका अर्थ यह
हुआ की लगभग २७ दिन तक १०८ मंत्र जप रोज यानी तीन हजार मंत्र जपने होंगे |
अब इसी उच्चिष्ठ गणपति के प्रयोग में
सम्भोग की अवस्थ में मंत्र जप करते समय किसी तिथि ,नक्षत्र ,वार ,व्रत आदि का
विचार न करने की बात के साथ शाबर तंत्र शास्त्र लिखता है की आक की जड़ की लकड़ी की
एक अंगूठे के आकार की गणेश की मूर्ती को एकांत में स्थापित कर एक युवती स्त्री को
अपने सामने बैठाकर उसके गुह्यांग से सम्बद्ध हो २८ या २१ बार इस मंत्र का जप करने
से सिद्धि प्राप्त होगी |इसका अर्थ यह हुआ की गुह्यंग से सम्बद्ध होकर मंत्र जप
करने से सम्पूर्ण वार -तिथि -नक्षत्र ,व्रत आदि ज्योतिषीय गणनाओं से तो छुटकारा
मिला ही साथ ही १५ हजार या तीन हजार वाली मंत्र संख्या घटकर मात्र २८ हो गयी है
|यदि आप गर्भ चुनाव के सिद्धांत को देखेंगे और ध्यान देंगे तो यहाँ दो
फ्रीक्वेंसिया मिलकर अपने न्र और मादा के बीच के अंतर के आधार पर तीन चार परिणामी
फ्रीक्वेंसियां बनाते हैं जो आकाश में तरंगित हो उठते हैं |इन्ही तरंगों के लगभग
सामान तरंगों वाली उर्जायें प्रसारक युगल की ओर आकर्षित हो जाती हैं |अनंत आकाशीय
क्षेत्र पर ध्यान दें तो यह बात स्वतः ही समझ में आ जाती है की इन तरंगों की गति
अत्यंत तीव्र है |सं १९६४ में बंगलोर में मेटा फिजिकल पार्लियामेंट में शरीर त्याग
के पश्चात् आत्मा की गति जब वह ग्रहों और नक्षत्रों आदि के दबाव से मुक्त हों तो
लगभग ६० गुना १० पर स्क्वायर २५ मील प्रति सेकेण्ड गणना की गयी थी |वहां यह भी
स्पष्ट किया गया था की आत्मा से प्रस्फुटित तरंगों की गति की गणना उनसे सम्भव नहीं
थी हो पाई थी फिर भी यह तो मान सकते हैं की यह तरंगों की गति निश्चय ही प्रकाश
तरंगों की गति से तीव्र थी |
गर्भ चुनाव के सिद्धांत में केवल दो
फ्रीक्वेंसियां होती हैं किन्तु तपस्या वाले सिद्धांत में आवश्यक मंत्र की
फ्रीक्वेंसी भी सम्मिलित हो जाती है ,यह गति परिणामी तरंगों में किसी विशेष ईष्ट
पर ध्यान करते हुए आकाश में प्रसारित कर दी जाती है |तपस्या के सिद्धांत के अनुसार
यह तरंगे ईष्ट के ध्यान से सम्बन्धित दिशा की ओर कम से कम तिगुने गति से और
तांत्रिक आधार पर देखें तो १११ गुने दबाव से गति करती हैं इसलिए इन तरंगों को किसी
उचित दूरी तक पहुँचने के लिए अपेक्षाकृत बहुत कम मन्त्रों की आवश्यकता होती है
|यहाँ आप एक बात सोच सकते हैं की यदि स्म्भोगावस्था में किसी मंत्र की १०८ जप करने
हैं और आप केवल ५४ जप कर सकें तो आपको आधा फल तो मिलेगा ही ,लेकिन नहीं ,ऐसा नहीं
है और ऐसा नहीं होगा |यदि आपके तरंगों के उचित नक्षत्र तक पहुँचने से पूर्व ही
मंत्र के धक्के अर्थात मंत्र के पीछे की शक्ति बंद हो गयी तो आपकी प्रसारित तरंगों
की शक्ति सम्बन्धित नक्षत्र तक पहुँचते पहुँचते इतनी कम रह जायेगी की वहां से लौटी
तरंगों को आप पकड ही नहीं सकेंगे |आपका ट्रांसमीटर कितना भी सही हो यदि रिसीवर आये
हुए तरंगों के सिग्नल न पकड पाए तो सब व्यर्थ हो जाएगा ,जबकि आप तो ट्रांसमीटर ही
ढीला किये दे रहे हैं ,इसका तात्पर्य यह हुआ की आपका सम्भोग समय इतना लंबा होना
चाहिए की आप का आवश्यक मंत्र जप पूरा हो सके |यही वह सूत्र है जिसके आधार पर
कामाख्या की ,काली की ,श्री विद्या की अथवा अन्य महाविद्या की ,किसी शक्ति की
सिद्धि पंचमकार में अथवा तंत्र में की जाती है और वह अति शीघ्र सफल भी होती है
|कामकला काली की तो साधना में यही मूलसूत्र ही है जब की संभोगरत रहते हुए भी मंत्र
जप से शीघ्र सिद्धियाँ ,शक्तियां और काली की कृपा प्राप्त होती है ,ऐसा महाकाल
संहिता के कामकला काली खंड में उल्लिखित है |ऐसा ही कुलार्णव तंत्र आदि भी कहता है
|
इस सूत्र के आधार पर अनेक तंत्र
शास्त्रों की रचना हुई है जहाँ अनेक सिद्धियों आदि की प्रक्रियाएं ,तरीके आदि
बताये गए हैं |यही सूत्र योनी पूजा और यौन पूजा का भी आधार है | अब थोडा हम आपको
इसकी तकनिकी और वैज्ञानिक पक्ष भी बताना चाहेंगे |यद्यपि उपर हमने भौतिक विज्ञानं
की दृष्टि से आपको समझाने की कोशिश की
हैं फिर भी हम आपको बताना चाहेंगे ताकि आपको समझ आ सके की वास्तव में ऐसा होता
कैसे है |सम्भोग से पूर्व ही व्यक्ति की उत्तेजना पर उसका मूलाधार तीव्र तरंगें
उत्पादित करने लगता है और सम्भोग की अवस्था में आने पर साथी की मूलाधार की तरंगों
से जुड़ जाता है |दोनों की तीव्र तरंगों की उत्पादन और सक्रियता की प्रक्रिया इन
तरंगों को वातावरण में बहुत तीव्रता से प्रक्षेपित करने लगती है |अकेले जितनी
तीव्रता से प्रक्षेपित होती है किसी की तरंगे वह दो के जुड़ने से उसकी दुगनी या कह
सकते हैं ग्यारह गुना तंत्र की दृष्टि से अधिक शक्ति से प्रक्षेपित होने लगती है
,जिसमें मंत्र और नाद का जुड़ जाना अतिरिक्त शक्ति के साथ इन्हें एक लक्ष्य की ओर
ऐसी तरंगों की ओर ले जाने लगता है जो उस मंत्र से सम्बन्धित होती हैं |इसे आप कह
सकते हैं की तिगुनी शक्ति से किसी एक लक्ष्य की ओर जाना |शक्ति की तरंगों तक
व्यक्ति की तरंगें भी शीघ्र पहुंचती हैं और शक्ति की तरंगे भी अधिक आकर्षण से उनकी
ओर आकर्षित होती हैं चूंकि व्यक्ति की तरंगों में रिनात्मक गुण वाली तरंगे भी जुडी
होती हैं अतः शक्ति से सम्बन्ध शीघ्र बन जाता है |
इस प्रकार आपसी ऊर्जा जुड़ाव होने
लगता है और व्यक्ति की ओर शक्ति की तरंगे आकर्षित हो उनमे संघनित अर्थात इकठ्ठा
होने लगती हैं |भावना और एकाग्रता से यह शक्ति व्यक्ति के शरीर में और आसपास एकत्र
हो सिद्धि में सहायक हो जाती है ,अतः एक निश्चित स्थिति के बाद व्यक्ति के मानसिक
निर्देशों के अनुसार क्रिया करने लगती हैं ,अब इसी को सिद्धि कहते हैं |बेहद उच्च
अवस्था में जबकि एकाग्रता बहुत उच्च हो जाय यह शक्ति प्रत्यक्ष भी हो सकती है
|इससे मूलाधार का पूर्ण जागरण भी हो सकता है और अन्य चक्रों का भी जागरण हो सकता
है |जिस चक्र से वह शक्ति जुडी होगी उसका जागरण तो होगा ही होगा किन्तु इस
प्रक्रिया में साधिका और साधक दोनों को बराबर लाभ होता है चूंकि दोनों की मूलाधार
की तरंगों का आपसी जुड़ाव हो चूका होता है |इस प्रक्रिया में रिनात्मक प्रकृति की
शक्तियाँ जैसे महाविद्या आदि साधिका में पहले अवतरित होती हैं जिनसे वह साधक को
प्राप्त होती हैं जबकि धनात्मक शक्तियाँ जैसे भैरव ,गणेश आदि साधक में शीघ्रता से
अवतरित होते हैं |यहाँ साधक साधिका दोनों को पूर्ण प्रक्रिया और तरीकों का ज्ञान
होना आवश्यक है तभी वह लाभान्वित हो पाते हैं |एक को तरीका पाता है दुसरे को नहीं
तो जिसे पाता होगा मात्र वही अधिक लाभान्वित होगा और दुसरे में कम ऊर्जा आएगी |
यह सूत्र और प्रक्रिया ही पंचमकार
साधना और तंत्र सिद्धि का मूल है जिससे तांत्रिक शक्ति प्राप्त करते हैं अपनी
भैरवी या सहयोगिनी द्वारा |एक और बात आप ध्यान दे सकते हैं की ऐसा सम्भोग जिसमे
किसी ईष्ट का ध्यान किया जा रहा हो ,मंत्र का जप किया जा रहा हो वह अब भोग कहाँ
रहेगा वह तो योग मात्र योनी -लिंग का रह जाएगा |योग भी ऐसा जो बाहर से दो लोगों का
योग है अन्दर से वह भी नहीं ,अव्यय है |यदि आप क्रिया विधि पर ध्यान दें तो आप
पायेंगे की स्त्री पुरुष की शक्ति बनकर उसे shiv बनने में सहायक सिद्ध होती है सहायता देती है और शिव या पुरुष स्त्री की
शक्ति बन जाता है |इसलिए तंत्र में shiv से पूर्व शक्ति का महत्त्व है और शक्ति के बिना शिवत्व सपना है क्योंकि
अधिकतर स्त्री द्वारा ही शक्ति द्वारा ही पुरुष को शक्ति प्राप्त होती है |यह
सूत्र कुंडलिनी तंत्र का सूत्र है जिसे हमने आपको बताया है शक्ति साधना के सन्दर्भ
में |शक्तियों की सिद्धियाँ इस विद्या से कैसे होती हैं यह बताना हमारा उद्देश्य
था जिससे आप समझ पायें इसके लिए लेख को थोडा विस्तृत करना पड़ा है
|.............................................हर हर महादेव
No comments:
Post a Comment