Thursday, 20 June 2019

लकुलीश संप्रदाय

लकुलीश संप्रदाय 
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 लकुलीश सम्प्रदाय  शैव सम्प्रदाय की एक शाखा है जो स्वतंत्र सम्प्रदाय क रूप म विकसित हुई ,क्योंकि यह अलग स्थान पर मूल सिद्धांतों के साथ विकसित हुई |मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में (6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों के होने का उल्लेख मिलता है। गुजरात में लकुलीश संप्रदाय का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्यभारत में फैला। लकुलीश संप्रदाय या ‘नकुलीश संप्रदाय’ के प्रवर्तक ‘लकुलीश’ माने जाते हैं। लकुलीश को स्वयं भगवान शिव का अवतार माना गया है। लकुलीश सिद्धांत पाशुपतों का ही एक विशिष्ट मत है। यह संप्रदाय छठी से नौवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था।
लकुलीश सम्प्रदाय या 'नकुलीश सम्प्रदाय' के प्रवर्तक लकुलीश माने जाते हैं। इसका उदय गुजरात में हुआ था। वहाँ इसके दार्शनिक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था। इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना। शिव के अवतारों की सूची, जो वायु पुराण से लिंग पुराण और कूर्म पुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख करती है। लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख किया गया है, जो गुजरात के 'झरपतन' नामक स्थान में है। लकुलीश की यह मूर्ति सातवीं शताब्दी की बनी हुई प्रतीत होती है। लिंगपुराण में लकुलीश के मुख्य चार शिष्यों के नाम 'कुशिक', 'गर्ग', 'मित्र' और 'कौरुष्य' मिलते हैं। प्राचीन काल में इस सम्प्रदाय के अनुयायी बहुत थे, जिनमें मुख्य साधू होते थे। इस संप्रदाय का विशेष वृत्तांत शिलालेखों तथा विष्णु पुराण , लिंगपुराण आदि में मिलता है। इसके अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते और उनका उत्पत्ति-स्थान 'कायावरोहण'बतलाते थे। ..........................................................हर हर महादेव 

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