Tuesday, 28 May 2019

भाग्य बदल जाएगा ,एक ग्रह का प्रभाव बदल जाए तो


भाग्य बदल देता है एक ग्रह 
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हमने अपने पिछले कई लेखों में भाग्य बदलने जैसे विषय उठाये हैं और अनेक पद्धतियों ,प्रयोगों ,क्रियाओं पर चर्चा की है |भाग्य का विषय ज्योतिष का है किन्तु इसमें परिवर्तन बिन कुंडलिनी प्रभावित किये नहीं आती |मूलतः भाग्य परिवर्तन में कुंडलिनी अथवा प्रबल उच्च शक्ति ही सहायक होती है ,किन्तु चूंकि ग्रह ही भाग्य नियंता होते हैं अतः इनसे भी भाग्य बदला जा सकता है |यह प्रक्रिया उलटी होती है |हमारे शास्त्रों में पौराणिक नायकों में से कुछ ग्रहों को नियंत्रित करते दीखते हैं तो कुछ उनसे खेलते दीखते हैं |यह कोरी कल्पनाएँ नहीं हैं |यह एक सच्चाई भी है |यदि उपयुक्त तकनीक ,मूल विज्ञान का पता हो तो यह सम्भव है |ग्रहों को कोई नियंत्रित नहीं करता ,ग्रह से कोई नहीं खेलता ,अपितु व्यक्ति विशेष के लिए ग्रहों के प्रभाव बदल दिए जाते हैं |ग्रह प्रभावों को नियंत्रित कर दिया जाता है ,उन्हें अपनी इच्छानुसार दिशा देकर लक्ष्य पूर्ती में सहायक बना लिया जाता है |इन बातों पर सोचते हुए हमने अपने ज्ञान ,चिंतन के आधार पर यह लेख लिखा है की कैसे ग्रह प्रभाव बदल हम भाग्य बदल सकते हैं |कैसे यह कार्य होता है ,कहाँ यह प्रभाव दिखाता है और कैसे परिवर्तन आते हैं |
ज्योतिष का उद्देश्य भाग्य बदलना नहीं अपितु भाग्य पढकर उसमे सुधार की सम्भावना तलाशते हुए होने वाली हानियों से बचना है |इसीलिए उपायों की अवधारणा विकसित हुई |ज्योतिषीय उपाय से भाग्य पूरी तरह बदलता नहीं अपितु परिवर्तन समय विशेष पर अथवा घटना विशेष के लिए होता है |यह बहुत कम लोग मानते हैं की ज्योतिष से ही भाग्य भी पूरी तरह बदला जा सकता है ,जबकि यह सम्भव है |यह उपाय से नहीं होता ,यह होता है ग्रह विशेष पर केन्द्रित हो जाने से |इसके लिए बहुत सूक्ष्म और गहरी ज्योतिष की जानकारी होने के साथ गहरी आध्यात्मिक तथा कुंडलिनी शक्ति की जानकारी होनी चाहिए |लोग कह सकते हैं की ज्योतिष ,ग्रह आदि से कुंडलिनी का कम सम्बन्ध होता है ,किन्तु ऐसा नहीं है ,इनका गहरा सम्बन्ध कुंडलिनी और चक्रों से होता है |कुंडलिनी और चक्रों की क्रियाशीलता पर ही मनुष्य का समस्त जीवन चलता है और यह कुंडलिनी के चक्र ग्रहों की शक्ति के अनुसार ही निर्मित और क्रियाशील होते हैं व्यक्ति विशेष के लिए |अधिकतर ज्योतिषियों को कुंडलिनी की जानकारी नहीं होती ,बहुत गहरी आध्यात्मिक जानकारी नहीं होती ,यहाँ तक की बहुत अच्छी उपायों की जानकारी भी कम को ही होती है |उपायों की कार्यप्रणाली ,तकनिकी ,क्रियाविधि शायद कोई कोई समझ पाता हो उस पर इनका सम्पूर्ण तंत्र तो लाखों में कोई एक समझता है |जो इन सब को समझता है वह नहीं कह सकता की ज्योतिष से भाग्य नहीं बदला जा सकता |
    कुंडलिनी के चक्रों की उत्पत्ति गर्भ में होती है और यह शुरू शुरू में मात्र तीन चक्रों के निर्माण से शुरू होता है |पूर्वकृत कर्मों के अनुसार जब स्थान विशेष पर ,व्यक्ति विशेष के खानदान में ,विशेष स्त्री के गर्भ में भ्रूण आता है तभी उसके आधे भविष्य का निर्धारण हो जाता है और यह निश्चित हो जाता है की किस समय वह घरती पर खुले वातावरण में आएगा और उस समय क्या ग्रह स्थितियां होंगी |आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है और वह शरीर में बंध जाती है जिसके साथ उस परिवार के लोगों के भी भाग्य जुड़ जाते हैं और उनके समेकित भाग्य के अनुसार निर्मित परिस्थितियों में उसे रहना होता है विकसित होना होता है |पिछले संचित कर्मानुसार उसके लिए सब कुछ प्रकृति द्वारा निर्मित किया गया होता है और जब जन्म लेता है तो ऐसी विशेष ग्रह स्थितियां होती हैं की उसे अपने संचित भाग्य के अनुसार भविष्य मिलता है |इन्हें पढकर ही ज्योतिष बताता है की क्या भाग्य होगा |अच्छे जानकार यह इसी आधार पर बता पाते हैं की कैसा पिछला जीवन था |भ्रूण अवस्था से लेकर जन्म तक इन्ही ग्रह स्थतियों के अनुसार व्यक्ति के सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है भौतिक शरीर के साथ और इस सूक्ष्म शरीर में चक्रों का निर्माण भी होता है जो रहता तो अदृश्य है किन्तु पूरे शरीर पर नियंत्रण रखता है |
        पृथ्वी के सौरमंडल में कुल सात मूख्य ग्रह हैं |चन्द्रमा का प्रभाव बहुत अधिक हने से ज्योतिष में इसे भी ग्रह ही माना जाता है |इस प्रकार आठ ग्रह होते हैं |पृथ्वी इन ग्रहों की भोक्ता होती है अतः इसे अलग करते हैं और सात अन्य मुख्य ग्रह माने जाते हैं |शरीर के सूक्ष्म शरीर में भी सात ही चक्र मुख्य होते हैं |यद्यपि अन्य बहुत से सम्बद्ध चक्र भी उसी प्रकार होते हैं जैसे अन्य नक्षत्र और ग्रह -तारे होते हैं ,किन्तु सबसे अधिक प्रभाव इन्ही सात चक्रों और ग्रहों का भी होता है |चक्रों के गुण अगर हम देखें तो यह ग्रहों से मिलते हैं भले ही इनके ईष्ट अलग -अलग हों |चक्रों और ग्रहों को मिलाकर शायद कम देखा गया है और विभिन्न पद्धतियों की सोच में अंतर होने से ईष्ट अलग हो जाते हैं |जब हम चक्रों को देखते हैं तो मूलाधार की साम्यता शनि से ,स्वाधिष्ठान की साम्यता मंगल से ,मणिपुर की साम्यता शुक्र से ,अनाहत की साम्यता वृहस्पति से ,विशुद्ध की साम्यता बुध से ,आज्ञा चक्र की साम्यता चन्द्रमा से और सहस्त्रार की साम्यता सूर्य से लगती है |इनमे अलग अलग विद्वानों की सोच से अलग अलग विचार हो सकते हैं किन्तु हमें यही उचित लगता है |
         सूर्य का प्रभाव सबसे अधिक मष्तिष्क -आँख आदि पर ही पड़ता है ,चन्द्रमा भी मन -विचार और आँख ही अधिक प्रभावित करता है ,इसलिए इनका सहस्त्रार और आज्ञा चक्र से सम्बन्ध हमें सही लगता है |बुध वाणी का कारक है और यह क्षेत्र विशुद्ध चक्र का है |बुध की अच्छाई और बुराई का प्रभाव सबसे अधिक विशुद्ध चक्र के अंगों पर ही आता है |वृहस्पति और विष्णु की पूजा पद्धति ,दिन वार ,गुण ,लक्षण लगभग समान होते हैं और विष्णु को अनाहत का अधिष्ठाता माना जाता है |वृहस्पति के गुण अनाहत से मिलते जुलते हैं और शुक्र के गुण मणिपुर चक्र से |मणिपुर चक्र को लक्ष्मी का क्षेत्र माना जाता है और जैसे प्रभाव इसकी क्रियाशीलता पर आते हैं वह शुक्र से साम्य भी रखते हैं और जब शुक्र बहुत प्रभावी होता है अथवा दुस्प्रभावी होता है तो इसके सबसे अधिक प्रभाव मणिपुर चक्र के गुणों पर ही पड़ते हैं |स्वाधिष्ठान व्यक्ति की चंचलता ,बल ,पौरुष ,साहस का क्षेत्र है जो की सब मंगल के गुण हैं |शनि के प्रभाव -दुष्प्रभाव से जो कमियां या विशेषताएं आती हैं वह सब मूलाधार से समानता रखती हैं |यहाँ की ईष्ट काली का भी सबसे अधिक प्रभाव शनी पर ही आता है |इन ग्रहों के प्रभाव का अध्ययन करने पर भी उक्त चक्रों के अनुसार ही क्रियाशीलता देखने को मिलते हैं |जब किसी विहेश ग्रह को किन्ही उपायों से बल दिया जाता है तो उससे सम्बन्धित चक्र भी अधिक क्रियाशील हो जाता है तथा उसकी औरा का रंग भी तदनुसार प्रभाव दिखाता है |
         व्यक्ति जब जन्म लेता है तो उसके जन्मसमय सात मुख्य ग्रहों में से सबसे अधिक प्रभावी ग्रह के अनुसार उसके सात मूल चक्रों में से एक चक्र अधिक क्रियाशील होता है |उस चक्र की क्रियाशीलता के अनुसार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसकी कार्यप्रणाली पर उस चक्र का सबसे अधिक प्रभाव होता है |चक्र की क्रियाशीलता देखकर तांत्रिक बताता है की अमुक चक्र सबसे अधिक प्रभावी है और ज्योतिषी बताता है की अमुक ग्रह का सबसे अधिक प्रभाव है |इसी प्रकार अन्य ग्रह -नक्षत्रों के बल अनुसार सहायक चक्रों की क्रियाशीलता निर्धारित होती है |जो उच्च स्तर के साधक हैं वह जब गहन साधना में जाते हैं तो उनके ईष्ट के अनुसार ईष्ट से सम्बन्धित चक्र अधिक क्रियाशील हो अधिक तरंगें उत्पादित करता है |चूंकि चक्र ग्रह प्रभाव और ग्रह रश्मियों की ग्राह्यता -अग्राह्यता से भी जुड़ा होता है अतः सम्बन्धित ग्रह की विशेषताएं भी बदल जाती हैं |मूल जन्म समय का ही सबसे अधिक प्रभावी वह ग्रह या चक्र हुआ तो व्यक्ति उसमे अति उच्च स्तर पर चला जाता है जिससे अन्य चक्रों और ग्रह प्रभावों का अतिक्रमण होने लगता है तथा उनके परिणाम व्यक्ति विशेष के लिए बदलने लगते हैं |यदि वह चक्र और ग्रह भिन्न हुआ मूल सक्रीय चक्र से तो एक अलग गुण बढ़ जाता है तथा तब भी यह गुण अन्य क्षेत्रों का अतिक्रमण करता है |दो गुण और विशेषताएं व्यक्ति में उत्पन्न हो जाती हैं जिससे शरीर की रासायनिक क्रियाएं बदलती हैं क्योंकि सम्बन्धित क्षेत्र की हार्मोनल ग्रंथियों पर भी इनका प्रभाव पड़ता है |साथ ही फेरोमोंस की तीव्रता और गुण भी बदलते हैं |इन परिवर्तनों से व्यक्ति के सोच ,कार्यक्षमता ,क्रियाशीलता ,बौद्धिकता ,शारीरिक क्रियाविधि ,विचार ,ग्राह्यता ,एकाग्रता में परिवर्तन आने लगते हैं ,साथ ही उसके शरीर की गंध ,औरा ,प्रभा मंडल में भी परिवर्तन आता है जिससे आसपास का वातावरण और लोग भी प्रभावित होते हैं उस गुण विशेष से |
       यह तो साधना की बात थी की ऐसा होता है ,किन्तु यदि यह देखा जाए की साधना से ईष्ट के बल से चक्र प्रभावित हो जाते हैं तथा इस परिवर्तन से सम्बन्धित ग्रह का प्रभाव भी बदल जाता है तो यदि हम ग्रह के प्रभाव को बदल दें या बढ़ा दें तो भी तो चक्र की क्रियाशीलता बदल जायेगी और सम्बन्धित ईष्ट भी प्रभावित हो जाएगा |यह उल्टा क्रम है किन्तु यह भी उतना ही प्रभावी है जितना साधना का क्रम |यहाँ बहुत अधिक विशेषज्ञता और ज्ञान की जरूरत अवश्य होगी जिसमे किसी एक क्षेत्र का महारथी कुछ नहीं कर सकता |तीन खेत्रों की जानकारी यहाँ चाहिए |ज्योतिष ज्ञान ,तंत्र ज्ञान और कुंडलिनी ज्ञान |ज्योतिष में गंभीर ज्योतिष का ज्ञान सिद्धांत -संहिता और होरा के साथ चाहिए ,जिसमे वह ग्रह की क्रियाविधि ,कार्यप्रणाली जानने के साथ यह भी जाने की कौन सी वनस्पति ,रत्न ,मंत्र ,तंत्र ग्रह के किस प्रकृति को प्रभावित करेगा ,उसकी तकनीक क्या होगी |तंत्र ज्ञान में मंत्र और वनस्पति के प्रयोग के साथ उनकी समस्त क्रिया की जानकारी होनी चाहिए ,नाद -ध्वनि -उच्चारण स्पंदन की तकनिकी जानकारी चाहिए ,तंत्रोक्त मूल मन्त्रों की समझ होनी चाहिए साथ ही ग्रहों से सम्बन्धित सभी दैवीय शक्तियों की समझ होनी चाहिए |कुंडलिनी ज्ञान में मुद्रा ज्ञान ,चक्रों ,सूक्ष्म शरीर ,आभामंडल के साथ सम्बन्धित मंत्र ,नियम ,प्रभाव ,गुण ,तकनीक की पूर्ण समझ चाहिए होगी |
         इस प्रक्रिया में जब किसी व्यक्ति की कुंडली का गहन अध्ययन कर लिया जाए और यह जान लिया जाय की अमुक ग्रह सर्वाधिक प्रभावी है तो इसके बाद जिस दिशा में परिवर्तन लाना है उस दिशा से सम्बन्धित मूल ग्रह को लक्षित किया जाता है |भाग्य कोई भी ग्रह बदल सकता है ,किन्तु हम यहाँ एक कदम और आगे जाते हुए इच्छानुसार भाग्य परिवर्तन की पद्धति पकड़ते हैं |ग्रह निर्णय करने के बाद यह देखना होगा की उस ग्रह को कैसे ऐसा बल दिया जाय की उसके कोई दुष्प्रभाव भी आयें ,उससे उत्पन्न होने वाले कोई दुर्गुण भी उत्पन्न हों और ग्रह भी अति बलवान हो जाए |उसके रश्मियों की ग्राह्यता की मात्र बढ़ जाए ,उसका प्रभाव बढ़ जाए और वह पूर्ण शक्ति से चक्र प्रभावित करे |यहाँ बहुत गंभीर विशेषज्ञता की जरूरत होती है |उदाहरण के लिए सूर्य के लिए पीपल की पूजा भी करते हैं ,जल भी देते हैं ,पीपल धारण भी करते हैं ,विल्व मूल धारण करते हैं ,माणिक्य ,कटैला धारण करते हैं ,सूर्य मंत्र का जप करते हैं ,सूर्य यन्त्र धारण करते हैं ,सूर्य से सम्बन्धित वस्तुओं का दान करते हैं ,सूर्य की वस्तुओं का दान कभी नहीं करते ,पीला वस्त्र अथवा लाल वस्त्र उपयोग करते हैं ,विष्णु का मन्त्र जपते हैं ,आदित्य ह्रदय पाठ करते हैं ,सूर्य गायत्री करते हैं ,नवग्रह कवच धारण करते हैं ,ताम्र प्रवाह करते हैं आदि अनेक प्रकार के उपाय किये जाते हैं |यहाँ यह देखना आवश्यक होगा की कौन सा उपाय कैसे ,कहाँ किस तकनीक पर काम करता है और सूर्य के किस गुण को प्रभावित करता है |कौन गुण बढाता या घटाता है |ग्रह बल को अधिकतम बढ़ाना है किन्तु उसके दुष्प्रभाव को रोकते हुए |
          उपरोक्त के बाद मंत्र ,वानस्पतिक तंत्र और मुद्रा आदि का कुछ ऐसा चयन करना होगा की वह सम्बन्धित चक्र पर प्रभाव डाले ,साथ ही सूर्य से भी सम्बन्धित हो |इसकी पूर्ण तकनीक ,नाद ,उच्चारण ,ध्वनि संयोजन ,उससे होने वाले प्रभाव और परिवर्तन की तकनीक -क्रियाविधि ,व्यक्ति की शारीरिक स्थिति की जानकारी होनी चाहिए |इन प्रयोगों को एक साथ समायोजित कर शुरू करने पर सम्बन्धित ग्रह का प्रभाव बढने लगता है |इस प्रक्रिया के लिए सबसे कमजोर किन्तु शुभद ग्रह सबसे अधिक उपयुक्त होता है |जब ग्रह प्रभाव बढ़ता है तो उससे सम्बन्धित चक्र पर अतिरिक्त दबाव आने लगता है |चक्र कोई ग्रंथि नहीं होते कि उन पर कोई भौतिक दबाव आये अपितु वह सूक्ष्म अदृश्य शरीर से जुड़े ऊर्जा केंद्र होते हैं |इन पर दबाव इस प्रकार आता है की जब ग्रह रश्मियों की मात्रा और ग्रह की ऊर्जा बढती है तो यह ऊर्जा एक निश्चित विशेष दिशा की तरफ चलते हुए विशेष क्षेत्र को अधिक प्रभावित करती है जिससे वह चक्र भी सम्बन्धित होता है |चक्र पर प्रभाव पड़ने पर वहां से तरंग उत्पादन बढ़ जाता है और उसकी सक्रियता तीव्र हो जाती है |चक्र की बढ़ी सक्रियता पूरे शरीर के चक्रों को प्रभावित करने लगती है और सभी चक्रों के साथ उनसे जुड़े ग्रह भी प्रभावित होने लगते हैं अर्थात ग्रहों के प्रभाव प्रभावित होने लगते हैं |जिस ग्रह पर हम कार्य कर रहे वह तो कुंडली की स्थिति के अनुसार ही अन्य ग्रहों को परोक्ष रूप से प्रभावित करेगा किन्तु जब यह चक्र की सक्रियता बढ़ाएगा तो चक्र आपस में सम्बन्धित होने से सभी ग्रहों के प्रभावों को प्रभावित करेगा |
         इस तकनीक में एक साथ कई स्तरों पर कार्य करने से मूल चक्र के साथ एक और भिन्न चक्र भी अधिक क्रियाशील हो जाता है जिससे सम्पूर्ण शारीरिक स्थिति और ऊर्जा प्रवाह बदल जाता है |बदला हुआ ऊर्जा प्रवाह मूल ऊर्जा परिपथ की प्रकृति बदल देता है |परिपथ वही होता है किन्तु वहां ऊर्जा की प्रकृति भी बदल जाती है साथ ही शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है |यहाँ एक और एक मिलकर दो नहीं होते ,अपितु एक और एक से ग्यारह हो जाते हैं |व्यक्ति का सबकुछ बदलने से उसका भाग्य बदलने लगता है |यह सामान्य एक दिशा के उपाय जैसा नहीं है |यह एक सम्पूर्ण प्रयोग है जो पूरा भाग्य बदल देता है |...[[लेख -पूर्णतः हमारे व्यतिगत चिंतन और ज्ञान पर आधारित है ,जिसे हमने अपने blog -पाठको तथा अपने फेसबुक पेजों " Tantra Marg " के साथ ही "अलौकिक शक्तियां "के पाठकों के लिए लिखा है |किसी व्यक्ति ,शास्त्र से इसका कोई सम्बन्ध नहीं ]].......................................................हर हर महादेव 

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