कैसे काम करता है तंत्र ?
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तंत्र एक पूर्ण विज्ञानं है ,समस्त
क्रियाएं एक निश्चित वैज्ञानिक पद्धति से चलती हैं जिन्हें प्रकृति का विज्ञानं
कहते है ,ब्रह्मांडीय ऊर्जा का विज्ञानं कहते हैं ,इसमें एक विशिष्ट लय, विशिष्ट
अंतर्संबंध होता है जिस पर समस्त क्रियाएं संचालित होती है |
व्यक्ति विशेष के स्तर पर तंत्र में
मुख्यतया नौ चक्रों को [सात मुख्य चक्रों द्वारा ही ,दो छोटे चक्र इन्ही से सक्रीय
हो जाते हैं ] शक्तिशाली बनाकर अधिक उर्जा प्राप्त किया जाता है और ब्रह्मांडीय
ऊर्जा से सम्बन्ध बनाये जाते हैं जिससे अक्षय और असीमित ऊर्जा से सम्बन्ध बन जाते
हैं और असंभव संभव में बदल जाता है |यह क्रिया क्रमिक भी हो सकती है और सभी को
क्रमशः जगाया जा सकता है जैसा की कुंडलिनी साधना में किया जाता है ,तथा यह विशिष्ट
चक्र पर भी केन्द्रित हो सकती है जैसा की किसी विशिष्ट महाविद्या या शक्ति की
साधना में होता है |क्रिया दोनों में एक जैसी ही होती है अंतर भाव में स्थित रहने
अथवा परिवर्तित करने में होता है |किसी भी चक्र को शक्तिशाली बनाकर अधिक उर्जा
प्राप्त करने के लिए उस विशिष्ट चक्र के अनुसार भाव को जगाकर उसी पर एकाग्र हुआ
जाता है |इससे गणेश या रूद्र या आज्ञाचक्र की तरंगें उस उस भाव के चक्र पर
केन्द्रित हो जाती हैं और उसे स्पंदित करने लगती हैं ,जैसे जैसे मन-मष्तिष्क एकाग्र होता जाता है वहां क्रिया तेज
और तेज होती चली जाती है |इससे सम्बंधित चक्र में स्पंदन तीब्र हो जाता है और उस
चक्र से उत्पन्न होने वाली उर्जा तरंगें अधिक मात्रा में और तेज गति से निकलने
लगती हैं |इससे शरीर में उस उर्जा का गुण बढ़ जाता है और बढ़ी हुई उर्जा रोम छिद्रों
और हथेलियों के बीच से निकलनी शुरू हो जाती है |हर विशिष्ट चक्र से सम्बंधित ऊर्जा
का विशिष्ट रंग होता है और उसमे विशिष्ट गुण होता है ,उसी के अनुसार व्यक्ति की
औरा या प्रभामंडल परिवर्तित होने लगती है |इसी उर्जा को तंत्र में नियंत्रित कर
लक्ष्य पर भेजने से चमत्कार होते हैं |
जब आँखे एक विशेष भाव की तस्वीर देख
रही होती हैं और मंत्र से कान में उसी भाव का कम्पन हो रहा होता है तो रूद्र या
आज्ञा चक्र की तरंगें अपनी प्रकृति के अनुसार उस भाव के चक्र से टकराने लगती हैं
जिससे वह सक्रिय हो अपने विशिष्ट तरंग तेजी से उत्पन्न करने लगता है ,जब साधक
ध्यान में डूबता जाता है तो इन तरंगो वह घिरकर इनके आकर्षण में बंधता जाता है
|अक्सर व्यक्ति को यह सब ज्ञात नहीं होता ,वह तो अपने ईष्ट में डूबा होता है ,कभी
केवल भाव से ,कभी मन्त्रों के भी साथ ,कभी अन्य सामग्रियों-रसायनों के भी साथ ,क्रिया उसके भाव के अनुसार
स्वयमेव गणेश की तरंगे करती हैं और सम्बंधित केंद्र से टकराने लगती है ,जैसे माना
कोई दुर्गा की पूजा में डूबा है और उसे चक्रों आदि की कोई जान कारी नहीं है ,वह तो
दुर्गा के गुण और भावों में ही डूबा है ,अब उस भाव के अनुसार गणेश की तरंगे खुद
दुर्गा से सम्बंधित चक्र से टकराने लगेगी और चक्र से तरंगों का उत्पन्न होना बढ़
जाएगा ,,,हवन ,अनुष्ठान ,विशिष्ट क्रिया में प्रयुक्त सामग्री हवा में ऐसी ही
तरंगे अपने गुणों के कारण उत्पन्न करती है जो की उनके जलने से अथवा भिन्न प्रकार
से उपयोग करने से उत्पन्न होती है ,आसपास उसी तरह की तरंगे उत्पान होने ,व्यक्ति
में तरंग उत्पन्न होने से हवन की राख,चरणामृत ,धुएं को भी चमत्कारी माना जाता है क्योकि वे भी इन गुणों की
तरंगों से आवेशित हो जाती हैं |
विभिन्न साधना पद्धतियों में भिन्न
क्रियाएं ,वस्तुएं ,ध्वनि संयोजन होता है जिससे क्रिया की तीब्रता और शीघ्रता बढ़
जाती है ,वस्तु -सामग्री की उर्जा ,ध्वनि की उर्जा ,शारीरिक क्रिया की उर्जा
,क्रिया की गति और शक्ति को तीब्र कर देती है ,कुंडलिनी सहना में मंत्र जप
,शारीरिक क्रिया ,एकाग्रता ,काम शक्ति को सम्मिलित करके चक्रों की तीब्रता और
उर्जा उत्पादन बढ़ाया जाता है ,जबकि अन्य क्रियाओं में वस्तुगत उर्जा और मानसिक
उर्जा ,भाव के साथ क्रिया करती है |शक्ति अथवा महाविद्या साधना में विशिष्ट शक्ति
से सम्बंधित भाव के साथ के साथ मानसिक एकाग्रता सम्बंधित चक्र पर तीब्र प्रभाव
डालता है और उसके स्पंदन से चक्र से तरंग उत्पादन बढ़ जाता है ,जो वातावरण से भी
सम्बंधित तरंगो को आकृष्ट करता है और शरीर में सम्बंधित उर्जा बढने लगती है जो
साधक के मानसिक तरंगों के साथ क्रिया करती हुई लक्ष्य को प्रभावित करती हैं |इसके
साथ ही शरीर में रासायनिक परिवर्तन होने लगता है औरा या प्रभामंडल में परिवर्तन
होने लगता है ,आसपास का वातावरण प्रभावित होने लगता है |इसमें सम्बंधित महाविद्या
से सम्बंधित सामग्रियां यथा पुष्प-हवनीय
द्रव्य आदि प्रेरक का काम करते है और वातावरण में भी ऐसे ही तरंगे उत्पन्न करने
अथवा वातावरण से आकर्षित करने में सहायक होते हैं |
सभी क्रियाओं में तकनीकी लगभग एक सी
ही होती है |छोटी क्रियाओं अथवा विशिष्ट क्रियाओं में जिनमे साधना प्रक्रिया कम
होती है उनकी कार्यप्रणाली क्रियात्मक रूप से कुछ भिन्न होती है किन्तु मूल लगभग
एक जैसा होता है |इनमे वस्तु की उर्जा ,हवन की उर्जा अथवा वस्तु जलने से उत्पन्न
उर्जा ,चढ़ाई गयी सामग्री की उर्जा ,मंत्र जप और ध्वनि की ऊर्जा ,एकाग्रता की ऊर्जा
,मानसिक बल की उर्जा आदि काम करती है साथ ही विशिष्ट भाव विशिष्ट गुण उत्पन्न करता
है |क्रिया किसी न किसी चक्र और भाव से ही सम्बंधित होती है जिसकी भूमिका निश्चित
रूप से होती है |साधना भले प्रेत की हो या क्रिया भले अभिचार की हो ,सम्बंधित
अवश्य किसी न किसी चक्र के गुणों और शक्तियों से ही होती है |सभी तामसिक क्रियाएं
सामान्य रूप से निचले दो चक्रों से किसी न किसी रूप से सम्बंधित होती हैं जबकि
अधिकतर सात्विक क्रियाये ऊपर के चक्रों से सम्बंधित होती है ,यद्यपि अपवाद भी हो
सकते हैं |[व्यक्तिगत विचार
].........................................................हर-हर महादेव
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