ईश्वर साक्षात्कार असंभव नहीं
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हर व्यक्ति का ,साधक का पूजा -पाठ करने का उद्देश्य ईश्वर कृपा प्राप्ति, और ईश्वर का साक्षात्कार होता है ,किन्तु बहुत ही कम लोग इस अवस्था तक पहुँच पाते हैं ,जबकि यह बहुत मुश्किल भी नहीं और असंभव भी नहीं |ईश्वर साक्षात्कार अवचेतन पर आधारित ,एकाग्रता की शक्ति से अवतरित और भावना से उत्पन्न क्रिया है जिसे आप आध्यात्मिक तकनीक कह सकते हैं |यदि यह तकनीक ठीक से समझ ली जाए और पूरी तरह अपनाया जाए तो जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य और कठिन उद्देश्य बहुत आसान हो जाता है |घिसने को तो जीवन भर लोग माला घिसते हैं ,जीवन भर भजन गाते हैं और नाम रटते हैं किन्तु मिलता किसी किसी को ही है |साक्षात्कार से दुनिया नहीं बदलती किन्तु दुनिया के लिए व्यक्ति बदल जाता है |यह बदलाव व्यक्ति की धारण क्षमता और मानसिक शक्ति पर निर्भर करता है |.
किसी भी प्रकार की साधना में ,अपने कर्म पर ,खुद पर ,सम्बंधित शक्ति पर गहन विश्वास के साथ ही आतंरिक श्रद्धा का अति महत्वपूर्ण स्थान होता है |जब आपको खुद पर तथा किसी पर विश्वास होता है तो एक आतंरिक बल का उदय होता है ,जो मानसिक शक्ति प्रदान करने के साथ ही निर्भयता और दृढ़ता उत्पन्न करता है ,इस स्थिति में मष्तिष्क से उत्पन्न होने वाले तरंगों की प्रकृति में बदलाव आता है और जिस प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं वह वातावरण में क्रिया करती हैं और सम्बंधित शक्ति तक पहुचने का प्रयास करती हैं |इनकी शक्ति की तीब्रता से अवरोधक शक्तियों का प्रभाव कम होता है ,फलतः सफलता की उम्मीद बनती है |यह सतत विश्वास कुछ समय में अवचेतन में स्थान ग्रहण कर लेता है और जब इसका स्वरुप -आकृति और गुण निश्चित आकार लेकर स्थायी हो जाता है तब यह जाने -अनजाने ,सोते -जागते कल्पना उत्पन्न करता है ,स्वप्न में क्रिया करता है और बरबस इसका नाम निकलता है |
इसमें जब श्रद्धा का समावेश होता है तो भावना की शक्ति अतिरिक्त रूप से इसमें जुडती हैं ,|इस शक्ति से उत्पन्न तरंगे सम्बंधित शक्ति को आकर्षित करने का काम करती हैं और सफलता का प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है |भाव में डूबा व्यक्ति उस शक्ति के गुणों का चिंतन करता है और तब लगातार मानसिक तरंगों का वातावरण में प्रक्षेपण स्वयमेव होता रहता है |यह अनवरत प्रक्षेपण सामान गुण की शक्ति या ऊर्जा पुंज अर्थात देवता या शक्ति की ऊर्जा तरंगों से सम्पर्क में आ जाता है |दोनों का आपसी जुड़ाव बन जाता है और एक दुसरे की तरफ खिंचाव उत्पन्न होता है |इस परिस्थिति में जब व्यक्ति एकाग्र हो जाता है तब यह शक्ति-ऊर्जा-तरंगे बीच में टूटती नहीं हैं और सम्बंधित शक्ति तक पहुचकर उसे आकर्षण में बाँधने का प्रयत्न करती हैं और वह इनके वशीभूत हो खिंचा चला आता है|व्यक्ति तक आने के बाद ऊर्जा व्यक्ति के आसपास और उसके शरीर में एकत्र होना शुरू होती है |यहाँ मंत्र की शक्ति ,पूजा अवयव की शक्ति अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करते हैं जिससे आ रही ऊर्जा को आधार मिलने लगता है |
जब अवचेतन से पूर्ण क्रियाशीलता शुरू हो जाती है और इस प्रकार जब आप या कोई व्यक्ति साधना करता है किसी शक्ति या ईश्वर की मूर्ती मन में कल्पित कर उस पर एकाग्र हो पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ उसके रूप -गुण -स्वभाव -आकृति में डूबता है ,एकाग्र होता है ,तो मन की भावनाओं- मष्तिष्क की शक्ति- मन्त्र की शक्ति- अवयवो की ऊर्जा से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं वह उस प्रकार के गुण वाली शक्ति की ऊर्जा से जुड़कर उसे आकर्षित करने लगती हैं और उसे अपने आकर्षण में बाँध अपनी और खींचती है जिससे वह शक्ति वशीभूत हो खिची आती है |चूंकि शक्ति कोई व्यक्ति नहीं होता है और उसकी ऊर्जा वातावरण में बिखरी पड़ी होती है अतः यह उर्जायें व्यक्ति के आसपास पहले आकर संघनित होती हैं |यह संघनन या ऊर्जा का एकत्रीकरण व्यक्ति के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर होने लगता है |
उसके आने के साथ ही व्यक्ति के आसपास का वातावरण भी उस शक्ति की ऊर्जा से संघनित होने लगता है |शक्ति के व्यक्ति से जुड़ने के साथ ही शक्ति से सम्बन्धित व्यक्ति का शारीरिक ऊर्जा चक्र जिसे कुंडलिनी चक्र भी कहते हैं ,अधिक सक्रीय हो तीव्र तरंगें उत्पन्न करता है जिससे व्यक्ति का जुड़ाव और अधिक उस शक्ति से हो जाता है और शक्ति की ऊर्जा और तीव्रता से व्यक्ति में तथा आसपास इकठ्ठा होने लगती है |चक्र का जागरण भी इसी समय हो जाता है |एकाग्रता की स्थिति में कुछ समय उपरांत वह शक्ति व्यक्ति के सामने सजीव हो सकती है |यद्यपि इसे केवल वह व्यक्ति ही देख सकता है ,पर अन्य लोग भी यह तो महसूस कर ही पाते हैं की कुछ परिवर्तन हुआ ,पर यह सबकी समझ में नहीं आता की क्या परिवर्तन हुआ |शक्ति का सजीव या प्रत्यक्ष आना ही साक्षात्कार होता है |यह मन से सुनती और मन में ही कहती है |व्यक्ति से बातचीत भी सम्भव है यहाँ और मन ही मन वार्ता भी सम्भव है |किसी अन्य को यह दीखता नहीं पर वातावरण एक विशेष गुण और गंध से भर जाता है जिससे स्थान अलग महसूस होता है |शक्ति की ऊर्जा का संघनन यदि एक बार कहीं हो गया तो वह बहुत दिनों तक उस स्थान पर महसूस किया जा सकता है |साधकों की तपस्या स्थली की उर्जा का यही कारण है |
यहाँ यह महत्व नहीं रखता की शक्ति कौन या क्या है ,मूल अर्थ है की भाव क्या है ,गुण क्या है ,एकाग्रता किस भाव में है ,श्रद्धा और भावना क्या है ,उस पर और अपने कर्म पर विशवास कितना है |अगर यह सब संतुलित और प्रबल है तो कोई भी शक्ति आकर्षित की जा सकती है |इनके बल पर ही तो ऐसी ऐसी शक्तियों की परिकल्पना और उनका प्रत्यक्षीकरण नाथ परंपरा के गुरुओं ने करा दिए जिनको पहले कोई जनता तक नहीं था ,जिनका कोई अस्तित्व तक नहीं सुना गया था |यह सब शक्तियों का एकत्रीकरण कर उन्हें प्रत्यक्ष करने के कारण हुआ |यही सूत्र है हमजाद साधना से खुद को प्रत्यक्षित करने का |यही सूत्र हैं विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्रत्यक्षित करने के |शक्तियां रूप तो आपके कल्पना और भाव के अनुसार ग्रहण कर लेती हैं ,पहले से उनका रूप निर्धारित नहीं होता |उनका तो केवल अपना विशिष्ट गुण होता है ,विशिष्ट शक्ति होती है ,विशिष्ट प्रभाव होता है |आकार वह व्यक्ति की कल्पना और भाव के अनुसार ले लेती हैं ,,यह आकार पहले आई हुई शक्ति की ऊर्जा के संघनन से व्यक्ति के भावों और मानसिक कल्पना के बल से निर्मित होता है |
साक्षात्कार आसान भी नहीं और मुश्किल भी नहीं |लोग कहते हैं की वह अमुक शक्ति की साधना कर रहे |यहाँ वह उस शक्ति को नहीं साधते अपितु अपने आपको साधते हैं ताकि वह शक्ति उनमे समाहित हो सके |खुद को न साधा जाए और शक्ति के अनुकूल खुद को न किया जाये तो शक्ति अगर उग्र हुई और आ गयी तो शारीरिक ऊर्जा परिपथ उसकी ऊर्जा को नहीं झेल पाता और टूट जाता है |इस स्थिति में व्यक्ति लकवाग्रस्त हो सकता है ,विकलांग हो सकता है ,गूंगा -बहरा हो सकता है अथवा मृत भी हो सकता है |इसीलिए खुद को साधा आता है |साक्षात्कार के अनुभव अलग साधक के अलग होते हैं और इन्हें यहाँ नहीं लिखा जा सकता |साक्षात्कार के बाद भी तंत्र के अनुसार यह नहीं व्यक्त करना चाहिए की आपको साक्षात्कार हुआ है |साक्षात्कार से दुनिया नहीं बदलती पर दुनियां के लिए व्यक्ति जरुर बदल जाता है |व्यक्ति के गुण ,स्वभाव ,प्रभाव ,रहन -सहन बदल जाते हैं ,उसकी औरा अर्थात प्रभामंडल बदल जाता है |व्यक्ति से निकलने वाली तरंगे बेहद शक्तिशाली हो जाती हैं |उसके पाँव छूने वालों और उसके हाथ का स्नेह पाने वालों को उस शक्ति ,देवता या ऊर्जा का लाभ तुरंत मिलता है |साक्षात्कार के बाद व्यक्ति कितना बदलता है और उसमे कितनी शक्ति आती है यह उसकी शारीरिक ग्राह्यता ,मानसिक एकाग्रता ,मानसिक बल ,भाव की शुद्धता पर निर्भर करता है |यह जरुर होता है की उसका एक विशेष चक्र और क्रियाशील हो जाता है जिससे उसका भाग्य बदल जाता है और ग्रह प्रभाव सीमित हो जाते हैं |
इस स्थिति में आने पर व्यक्ति की मुक्ति भी सुनिश्चित हो जाती है |यदि व्यक्ति मोक्ष का आकांक्षी है तो वह इस शक्ति का उपयोग कर आगे बढ़ता है अथवा अगर वह इसी में डूबता है लगातार तो उसकी मुक्ति होती है और वह उस शक्ति या देवी -देवता के लोक को प्राप्त करता है |कोई माने या न माने पर यदि विश्वास -श्रद्धा -एकाग्रता है तो ईश्वर मिल जाता है ,जरुरत इन्हें बनाये रखने और मजबूत करने की होती है ,इनमे किसी के भी कमी या विचलन से सफलता संदिग्ध हो जाती है |साधना-पूजा-अनुष्ठान तो बहुतेरे करते हैं पर तीनो का संतुलन बड़ी मुश्किल से कोई कोई ही कर पाता है ,इसीलिए सभी सफल नहीं होते |अक्सर मंत्र मुह से निकलते रहते हैं ,मन कहीं और होता है ,मन में भाव होता है कोई और ,,मन कहता है पत नहीं सफलता मिलेगी या नहीं ,अर्थात तीनो में कमी |ऐसे में सफलता नहीं मिल सकती |पूजा पाठ में महत्त्व वस्तुओं का इसलिए होता है की यह सम्बन्धित ऊर्जा के अनुरूप हो आधार देते हैं अतः विपरीत गुण की वस्तुओं को निषिद्ध किया जाता है |……………………………………………………………..हर-हर महादेव
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हर व्यक्ति का ,साधक का पूजा -पाठ करने का उद्देश्य ईश्वर कृपा प्राप्ति, और ईश्वर का साक्षात्कार होता है ,किन्तु बहुत ही कम लोग इस अवस्था तक पहुँच पाते हैं ,जबकि यह बहुत मुश्किल भी नहीं और असंभव भी नहीं |ईश्वर साक्षात्कार अवचेतन पर आधारित ,एकाग्रता की शक्ति से अवतरित और भावना से उत्पन्न क्रिया है जिसे आप आध्यात्मिक तकनीक कह सकते हैं |यदि यह तकनीक ठीक से समझ ली जाए और पूरी तरह अपनाया जाए तो जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य और कठिन उद्देश्य बहुत आसान हो जाता है |घिसने को तो जीवन भर लोग माला घिसते हैं ,जीवन भर भजन गाते हैं और नाम रटते हैं किन्तु मिलता किसी किसी को ही है |साक्षात्कार से दुनिया नहीं बदलती किन्तु दुनिया के लिए व्यक्ति बदल जाता है |यह बदलाव व्यक्ति की धारण क्षमता और मानसिक शक्ति पर निर्भर करता है |.
किसी भी प्रकार की साधना में ,अपने कर्म पर ,खुद पर ,सम्बंधित शक्ति पर गहन विश्वास के साथ ही आतंरिक श्रद्धा का अति महत्वपूर्ण स्थान होता है |जब आपको खुद पर तथा किसी पर विश्वास होता है तो एक आतंरिक बल का उदय होता है ,जो मानसिक शक्ति प्रदान करने के साथ ही निर्भयता और दृढ़ता उत्पन्न करता है ,इस स्थिति में मष्तिष्क से उत्पन्न होने वाले तरंगों की प्रकृति में बदलाव आता है और जिस प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं वह वातावरण में क्रिया करती हैं और सम्बंधित शक्ति तक पहुचने का प्रयास करती हैं |इनकी शक्ति की तीब्रता से अवरोधक शक्तियों का प्रभाव कम होता है ,फलतः सफलता की उम्मीद बनती है |यह सतत विश्वास कुछ समय में अवचेतन में स्थान ग्रहण कर लेता है और जब इसका स्वरुप -आकृति और गुण निश्चित आकार लेकर स्थायी हो जाता है तब यह जाने -अनजाने ,सोते -जागते कल्पना उत्पन्न करता है ,स्वप्न में क्रिया करता है और बरबस इसका नाम निकलता है |
इसमें जब श्रद्धा का समावेश होता है तो भावना की शक्ति अतिरिक्त रूप से इसमें जुडती हैं ,|इस शक्ति से उत्पन्न तरंगे सम्बंधित शक्ति को आकर्षित करने का काम करती हैं और सफलता का प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है |भाव में डूबा व्यक्ति उस शक्ति के गुणों का चिंतन करता है और तब लगातार मानसिक तरंगों का वातावरण में प्रक्षेपण स्वयमेव होता रहता है |यह अनवरत प्रक्षेपण सामान गुण की शक्ति या ऊर्जा पुंज अर्थात देवता या शक्ति की ऊर्जा तरंगों से सम्पर्क में आ जाता है |दोनों का आपसी जुड़ाव बन जाता है और एक दुसरे की तरफ खिंचाव उत्पन्न होता है |इस परिस्थिति में जब व्यक्ति एकाग्र हो जाता है तब यह शक्ति-ऊर्जा-तरंगे बीच में टूटती नहीं हैं और सम्बंधित शक्ति तक पहुचकर उसे आकर्षण में बाँधने का प्रयत्न करती हैं और वह इनके वशीभूत हो खिंचा चला आता है|व्यक्ति तक आने के बाद ऊर्जा व्यक्ति के आसपास और उसके शरीर में एकत्र होना शुरू होती है |यहाँ मंत्र की शक्ति ,पूजा अवयव की शक्ति अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करते हैं जिससे आ रही ऊर्जा को आधार मिलने लगता है |
जब अवचेतन से पूर्ण क्रियाशीलता शुरू हो जाती है और इस प्रकार जब आप या कोई व्यक्ति साधना करता है किसी शक्ति या ईश्वर की मूर्ती मन में कल्पित कर उस पर एकाग्र हो पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ उसके रूप -गुण -स्वभाव -आकृति में डूबता है ,एकाग्र होता है ,तो मन की भावनाओं- मष्तिष्क की शक्ति- मन्त्र की शक्ति- अवयवो की ऊर्जा से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं वह उस प्रकार के गुण वाली शक्ति की ऊर्जा से जुड़कर उसे आकर्षित करने लगती हैं और उसे अपने आकर्षण में बाँध अपनी और खींचती है जिससे वह शक्ति वशीभूत हो खिची आती है |चूंकि शक्ति कोई व्यक्ति नहीं होता है और उसकी ऊर्जा वातावरण में बिखरी पड़ी होती है अतः यह उर्जायें व्यक्ति के आसपास पहले आकर संघनित होती हैं |यह संघनन या ऊर्जा का एकत्रीकरण व्यक्ति के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर होने लगता है |
उसके आने के साथ ही व्यक्ति के आसपास का वातावरण भी उस शक्ति की ऊर्जा से संघनित होने लगता है |शक्ति के व्यक्ति से जुड़ने के साथ ही शक्ति से सम्बन्धित व्यक्ति का शारीरिक ऊर्जा चक्र जिसे कुंडलिनी चक्र भी कहते हैं ,अधिक सक्रीय हो तीव्र तरंगें उत्पन्न करता है जिससे व्यक्ति का जुड़ाव और अधिक उस शक्ति से हो जाता है और शक्ति की ऊर्जा और तीव्रता से व्यक्ति में तथा आसपास इकठ्ठा होने लगती है |चक्र का जागरण भी इसी समय हो जाता है |एकाग्रता की स्थिति में कुछ समय उपरांत वह शक्ति व्यक्ति के सामने सजीव हो सकती है |यद्यपि इसे केवल वह व्यक्ति ही देख सकता है ,पर अन्य लोग भी यह तो महसूस कर ही पाते हैं की कुछ परिवर्तन हुआ ,पर यह सबकी समझ में नहीं आता की क्या परिवर्तन हुआ |शक्ति का सजीव या प्रत्यक्ष आना ही साक्षात्कार होता है |यह मन से सुनती और मन में ही कहती है |व्यक्ति से बातचीत भी सम्भव है यहाँ और मन ही मन वार्ता भी सम्भव है |किसी अन्य को यह दीखता नहीं पर वातावरण एक विशेष गुण और गंध से भर जाता है जिससे स्थान अलग महसूस होता है |शक्ति की ऊर्जा का संघनन यदि एक बार कहीं हो गया तो वह बहुत दिनों तक उस स्थान पर महसूस किया जा सकता है |साधकों की तपस्या स्थली की उर्जा का यही कारण है |
यहाँ यह महत्व नहीं रखता की शक्ति कौन या क्या है ,मूल अर्थ है की भाव क्या है ,गुण क्या है ,एकाग्रता किस भाव में है ,श्रद्धा और भावना क्या है ,उस पर और अपने कर्म पर विशवास कितना है |अगर यह सब संतुलित और प्रबल है तो कोई भी शक्ति आकर्षित की जा सकती है |इनके बल पर ही तो ऐसी ऐसी शक्तियों की परिकल्पना और उनका प्रत्यक्षीकरण नाथ परंपरा के गुरुओं ने करा दिए जिनको पहले कोई जनता तक नहीं था ,जिनका कोई अस्तित्व तक नहीं सुना गया था |यह सब शक्तियों का एकत्रीकरण कर उन्हें प्रत्यक्ष करने के कारण हुआ |यही सूत्र है हमजाद साधना से खुद को प्रत्यक्षित करने का |यही सूत्र हैं विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्रत्यक्षित करने के |शक्तियां रूप तो आपके कल्पना और भाव के अनुसार ग्रहण कर लेती हैं ,पहले से उनका रूप निर्धारित नहीं होता |उनका तो केवल अपना विशिष्ट गुण होता है ,विशिष्ट शक्ति होती है ,विशिष्ट प्रभाव होता है |आकार वह व्यक्ति की कल्पना और भाव के अनुसार ले लेती हैं ,,यह आकार पहले आई हुई शक्ति की ऊर्जा के संघनन से व्यक्ति के भावों और मानसिक कल्पना के बल से निर्मित होता है |
साक्षात्कार आसान भी नहीं और मुश्किल भी नहीं |लोग कहते हैं की वह अमुक शक्ति की साधना कर रहे |यहाँ वह उस शक्ति को नहीं साधते अपितु अपने आपको साधते हैं ताकि वह शक्ति उनमे समाहित हो सके |खुद को न साधा जाए और शक्ति के अनुकूल खुद को न किया जाये तो शक्ति अगर उग्र हुई और आ गयी तो शारीरिक ऊर्जा परिपथ उसकी ऊर्जा को नहीं झेल पाता और टूट जाता है |इस स्थिति में व्यक्ति लकवाग्रस्त हो सकता है ,विकलांग हो सकता है ,गूंगा -बहरा हो सकता है अथवा मृत भी हो सकता है |इसीलिए खुद को साधा आता है |साक्षात्कार के अनुभव अलग साधक के अलग होते हैं और इन्हें यहाँ नहीं लिखा जा सकता |साक्षात्कार के बाद भी तंत्र के अनुसार यह नहीं व्यक्त करना चाहिए की आपको साक्षात्कार हुआ है |साक्षात्कार से दुनिया नहीं बदलती पर दुनियां के लिए व्यक्ति जरुर बदल जाता है |व्यक्ति के गुण ,स्वभाव ,प्रभाव ,रहन -सहन बदल जाते हैं ,उसकी औरा अर्थात प्रभामंडल बदल जाता है |व्यक्ति से निकलने वाली तरंगे बेहद शक्तिशाली हो जाती हैं |उसके पाँव छूने वालों और उसके हाथ का स्नेह पाने वालों को उस शक्ति ,देवता या ऊर्जा का लाभ तुरंत मिलता है |साक्षात्कार के बाद व्यक्ति कितना बदलता है और उसमे कितनी शक्ति आती है यह उसकी शारीरिक ग्राह्यता ,मानसिक एकाग्रता ,मानसिक बल ,भाव की शुद्धता पर निर्भर करता है |यह जरुर होता है की उसका एक विशेष चक्र और क्रियाशील हो जाता है जिससे उसका भाग्य बदल जाता है और ग्रह प्रभाव सीमित हो जाते हैं |
इस स्थिति में आने पर व्यक्ति की मुक्ति भी सुनिश्चित हो जाती है |यदि व्यक्ति मोक्ष का आकांक्षी है तो वह इस शक्ति का उपयोग कर आगे बढ़ता है अथवा अगर वह इसी में डूबता है लगातार तो उसकी मुक्ति होती है और वह उस शक्ति या देवी -देवता के लोक को प्राप्त करता है |कोई माने या न माने पर यदि विश्वास -श्रद्धा -एकाग्रता है तो ईश्वर मिल जाता है ,जरुरत इन्हें बनाये रखने और मजबूत करने की होती है ,इनमे किसी के भी कमी या विचलन से सफलता संदिग्ध हो जाती है |साधना-पूजा-अनुष्ठान तो बहुतेरे करते हैं पर तीनो का संतुलन बड़ी मुश्किल से कोई कोई ही कर पाता है ,इसीलिए सभी सफल नहीं होते |अक्सर मंत्र मुह से निकलते रहते हैं ,मन कहीं और होता है ,मन में भाव होता है कोई और ,,मन कहता है पत नहीं सफलता मिलेगी या नहीं ,अर्थात तीनो में कमी |ऐसे में सफलता नहीं मिल सकती |पूजा पाठ में महत्त्व वस्तुओं का इसलिए होता है की यह सम्बन्धित ऊर्जा के अनुरूप हो आधार देते हैं अतः विपरीत गुण की वस्तुओं को निषिद्ध किया जाता है |……………………………………………………………..हर-हर महादेव
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