:::::::::::::कुंडलिनी योग की विशिष्ट मुद्राएँ ::::::::::::::
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कुंडलिनी योग में यद्यपि अनेक मुद्राओं का प्रयोग होता है ,जिनमे कुछ भावना प्रधान तो कुछ शारीरिक क्रिया प्रधान होती हैं |इनके सम्यक तालमेल से ही लक्ष्य प्राप्ति संभव है |इन मुद्राओं में से प्रमुख तीन मुद्राए हैं |
(1) शक्ति − चालिनी मुद्रा
(2) शिथिलीकरण मुद्रा
(3) खेचरी मुद्रा।
इनमें से शक्ति चालिनी का सम्बन्ध मूलाधार से है। कुण्डलिनी का निवास केन्द्र वही है। पौरुष,प्रजनन, उत्साह इसी केन्द्र से सम्बन्धित हैं। शक्ति − चालिनी के आधार पर मूलाधार को जागृत,नियन्त्रित एवं अभीष्ट उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। शिथिलीकरण मुद्रा का सम्बन्धहृदयचक्र से है। उस स्थान पर जीवनीशक्ति , बलिष्ठता एवं तेजस्विता का सम्बन्ध है। भावनाओं कोदिशा देना भी इसी क्षेत्र के प्रयत्नों से बन पड़ता है। तीसरी खेचरी मुद्रा है। इसका सम्बन्ध ब्रह्मरन्ध्र,सहस्रार कमल से है। पुराणों में इसी को क्षीरसागर, कैलाश पर्वत की उपमा दी गई है। यहाँ मन, बुद्धि,चित्त से सम्बन्धित सभी तन्त्र विद्यमान हैं। खेचरी मुद्रा के द्वारा उनमें से किसी को भी, किसी भीप्रयोजन के लिए जागृत एवं तत्पर किया जाता है। मंदता, तनाव से लेकर मनोविकारों तक में इसकेन्द्र की सहायता ली जा सकती है।
अध्यात्म विज्ञान में सूक्ष्म शरीर की तीन रहस्यमयी शक्ति यों का उल्लेख है—(1) ब्रह्म ग्रन्थि (2)विष्णु ग्रन्थि (3)रुद्र ग्रन्थि। ब्रह्म ग्रन्थि खेचरी मुद्रा से, विष्णु ग्रन्थि शिथिलीकरण से और रुद्रग्रन्थि शक्ति चालिनी से सम्बन्धित है। इन तीनों के स्वरूप, कारण, रहस्य, अभ्यास एवं प्रतिफलसाधना ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक बताए गए हैं। उन सबका सार-संक्षेप इतना ही है कि मस्तिष्क, हृदयऔर प्रजनन तन्त्र में वरिष्ठता उत्पन्न करने के लिए उपरोक्त तीन मुद्राओं की साधनाओं का प्रयोगकिया जा सकता है और उनका चमत्कारी प्रतिफल देखा जा सकता है।
तीनों मुद्राओं का परिचय इस प्रकार है—
शक्ति चालिनी मुद्रा
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यह मुद्रा वज्रासन या सुखासन में बैठकर की जाती है। इसमें मल एवं मूत्र संस्थान को संकुचित करकेउन्हें ऊपर की ओर खींचा जाता है। खिंचाव पूरा हो जाने पर उसे धीरे से शिथिल कर देते हैं। प्रारम्भिकस्थिति में दो मिनट व धीरे-धीरे पाँच मिनट तक बढ़ाते हुए यही क्रिया बार-बार दुहराओ । उड्डियानबंध में स्थित आँतों को ऊपर की ओर खींचा जाता है। यह क्रिया स्वतः शक्ति चालिनी मुद्रा के साथधीरे-धीरे होने लगती है। पेट को जितना ऊपर खींचा जा सके, खींच कर पीछे पीठ से चिपका देते हैं।उड्डियान का अर्थ है-उड़ना कुण्डलिनी जागृत करने-चित्तवृत्ति को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी करने कीयह पहली सीढ़ी है। इससे सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है, मूलाधार चक्र में चेतना आती है। इन दोनोंक्रियाओं के द्वारा समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर ऐसा सूक्ष्म विद्युतीय प्रभाव पड़ता है जिससे इस शक्तिस्रोत के जागरण व मेरुदण्ड मार्ग से ऊर्ध्वगमन के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं।
(2) शिथिलीकरण मुद्रा योगनिद्रा
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इस मुद्रा का अभ्यास शवासन में लेट कर अथवा आराम कुर्सी पर शरीर ढीला छोड़कर किया जाता है।यह क्रिया शरीर मन, बुद्धि का तनाव से मुक्त करके नयी चेतना से अनुप्राणित कर देती है। साधक कोशरीर से भिन्न अपनी स्वयं की सत्ता की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।
कोलाहल मुक्त वातावरण में शवासन में लेटकर पहले शरीर शिथिलीकरण के स्वयं को निर्देश दियेजाते है। शरीर के निचले अंगों से आरम्भ करके शनैः-शनैः यह क्रम ऊपर तक चलाते हैं। हर अंग कोएक स्वतन्त्र सत्ता मानकर उसे विश्राम का स्नेह भरा निर्देश देते हैं। कुछ देर उस स्थिति में छोड़ करधीरे से श्वास तीव्र करके शरीर को कड़ा और फिर ढीला होने का निर्देश दिया जाता है। धीरे-धीरेशारीरिक शिथिलीकरण सधने पर क्रमशः मानसिक शिथिलीकरण एवं दृश्य रूप में शरीर पड़ा रहतेदेखने, चेतन सत्ता के सरोवर में ईश्वर को समर्पित कर देने की भावना की जाती है।
शिथिलीकरण योगनिद्रा का प्रथम चरण है। अचेतन को विश्राम देने-नयी स्फूर्ति दिलाने तथाअन्तराल के विकास-आत्मशक्ति के उद्भव का पथ-प्रशस्त करने की यह प्रारम्भिक क्रिया है।
(3)खेचरी मुद्रा
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शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीर सागर माना गया है। मनुष्य सत्ता और ब्रह्मलोकव्यापी समष्टि सत्ता का आदान-प्रदान ब्रह्मरन्ध्र मार्ग से होता है। यह मस्तिष्क का मध्य बिन्दुहै, जीवसत्ता का नाभिक है, यही सहस्रार कमल है। मस्तिष्क मज्जा रूपी क्षीरसागर में विराजमान्विष्णु सत्ता के सान्निध्य और अनुग्रह का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा की साधना की जाती है।ध्यान मुद्रा में शाँत चित्त से बैठकर जिह्वा भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सहलाने जैसेमन्द-मन्द स्पन्दन किये जाते हैं। इस उत्तेजना से सहस्रदल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति मेंबदलती है। बन्द छिद्र खुलते हैं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वा भाग के माध्यम सेअन्तःचेतना को अनुभव होता है। यही खेचरी मुद्रा है।
तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जीभ के अगले भाग से उसे सहलाना-सोमपान पयकहलाता है। इस क्रिया से आध्यात्मिक आनन्द की उल्लास की अनुभूति होती है। यह दिव्यलोक सेआत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है। देवलोक से सोमरस की वर्षा होती है। अमृत कलशसे प्राप्त अनुदान आत्मा को अमरता की अनुभूति देते हैं।
तीनों ही मुद्राएँ भावना प्रधान हैं। चिन्तन के साथ भाव-सम्वेदनाएँ जितनी प्रगाढ़ होंगी उतनी हीक्रिया प्राणवान बनेंगी। कृत्य को ही सब कुछ मानने वालों को इस मूलभूत तथ्य को सर्वप्रथमहृदयंगम कर लेना चाहिए।...........................................................................हर-हर महादेव
🔱हर हर महादेव🔱 🙏🙏🙏
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