:::::::::::::::::::::: अलौकिक खेचरी मुद्रा :::::::::::::::::::::[[
भाग - १ ]]
=====================================
शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीर सागर माना गया है। मनुष्य सत्ताऔर ब्रह्म लोकव्यापी समष्टि सत्ता का आदान-प्रदान ब्रह्मरन्ध्र मार्ग से होता है। यह मस्तिष्क का मध्य बिन्दु है, जीवसत्ता का नाभिक है, यही सहस्रार कमल है। मस्तिष्क मज्जा रूपी क्षीरसागर मेंविराजमान् विष्णु सत्ता के सान्निध्य और अनुग्रह का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा की साधना कीजाती है। ध्यान मुद्रा में शाँत चित्त से बैठकर जिह्वा भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सहलानेजैसे मन्द-मन्द स्पन्दन किये जाते हैं। इस उत्तेजना से सहस्रदल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति मेंबदलती है। बन्द छिद्र खुलते हैं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वा भाग के माध्यम सेअन्तःचेतना को अनुभव होता है। यही खेचरी मुद्रा है। तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है औरजीभ के अगले भाग से उसे सहलाना-सोमपान पय कहलाता है। इस क्रिया से आध्यात्मिक आनन्दकी उल्लास की अनुभूति होती है। यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है।देवलोक से सोमरस की वर्षा होती है। अमृत कलश से प्राप्त अनुदान आत्मा को अमरता की अनुभूतिदेते हैं।
खेचरी मुद्रा का भावपक्ष ही वस्तुतः उस प्रक्रिया का प्राण है। मस्तिष्क मध्य को-ब्रह्मरंध्रअवस्थित सहस्रार को-अमृत-कलश माना गया है और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने का उल्लेख है।जिव्हा को जितना सरलतापूर्वक पीछे तालु से सटाकर जितना पीछे ले जा सकना सम्भव हो उतनापीछे ले जाना चाहिए। ‘काक चंचु’ से बिलकुल न सट सके कुछ फासले पर रह जावे तो भी हर्ज नहीं है।तालु और जिव्हा को इस प्रकार सटाने के उपरान्त ध्यान किया जाना चाहिए कि तालु छिद्र से सोमअमृत का-सूक्ष्म स्राव टपकता है और जिव्हा इन्द्रिय के गहन अन्तराल में रहने वाली रस तन्मात्राद्वारा उसका पान किया जा रहा है। इसी सम्वेदना को अमृत पान पर सोमरस पास की अनुभूति कहतेहैं। प्रत्यक्षतः कोई मीठी वस्तु खाने आदि जैसा कोई स्वाद तो नहीं आता, पर कई प्रकार के दिव्यरसास्वादन उस अवसर पर हो सकते हैं। यह इन्द्रिय अनुभूतियाँ मिलती हों तो हर्ज नहीं, पर वेआवश्यक या अनिवार्य नहीं है। मुख्य तो वह भावपक्ष है जो इस आस्वादन के बहाने गहन रससम्वेदना से सिक्त रहता है। यही आनन्द और उल्लास की अनुभूति खेचरी मुद्रा की मूल उपलब्धि है। देवी भागवत् पुराण में महाशक्ति की वन्दना करते हुए उसे कुण्डलिनी और खेचरी मुद्रा से सम्बन्धितबताया गया है-
तालुस्था त्वं सदाधारा विंदुस्था विंदुमालिनी।
मूले कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा॥
-देवी भागवत्
अमृतधारा सोम स्राविनी खेचरी रूप तालु में, भ्रू मध्य भाग आज्ञाचक्र में बिन्दु माला औरमूलाधार चक्र में कुण्डलिनी बनकर आप ही निवास करती है और प्रत्येक रोम कूप में विद्यमान् है। शिव संहिता में प्रसुप्त कुंडलिनी का जागरण करने के लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास आवश्यक बतातेहुए कहा गया है-
तस्मार्त्सवप्रयत्नेन प्रबोधपितुमीश्वरीम्।
ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्ताँ मुद्राभ्यासं समाचरेत्-शिव संहिता
इसलिए साधक को ब्रह्मरन्ध्र के मुख में रास्ता रोके सोती पड़ी कुण्डलिनी को जागृत करने के लिएसर्व प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए और खेचरी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। कभी कभी खेचरी मुद्राके अभ्यास काल में कई प्रकार के रसों के आस्वादन जैसी झलक भी मिलती है। कई बार रोमांच जैसाहोने लगता है, पर यह सब आवश्यक या अनिवार्य नहीं। मूल उद्देश्य तो भावानुभूति ही है।
अमृतास्वादनं
पश्चाज्जिव्हाग्रं संप्रवर्तते।
रोमाँचश्च तथानन्दः प्रकर्षेणोपजायते-योग रसायनम् 255
जिव्हा में अमृत-सा सुस्वाद अनुभव होता है और रोमांच तथा आनन्द उत्पन्न होता है।
प्रथमं लवण पश्चात् क्षारं क्षीरोपमं ततः।
द्राक्षारससमं पश्चात् सुधासारमयं ततः-योग रसायनम्
खेचरी मुद्रा के समय उस रस का स्वाद पहले लवण जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिरद्राक्षारस जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा, रस-सा अनुभव होता है।
आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्त कषायकम्।
नवनीतं धृत क्षीर दधित क्रम धूनि च।
द्राक्षा रसं च पीयूषं जप्यते रसनोदकम-पेरण्ड संहिता
खेचरी मुद्रा में जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, धृत, दूध, दही, द्राक्षारस,पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है।
अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात्।
जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले-योग रसायनम्
भावनात्मक अमृतोपम स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है और वह रोग तथा जीर्णता से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है।
एक योग सूत्र में खेचरी मुद्रा से अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति का उल्लेख है-
तालु मूलोर्ध्वभागे
महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद् अणिमादि सिद्धिः।
तालु के ऊर्ध्व भाग में महा ज्योति स्थित है, उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
ब्रह्मरन्ध्र साधना की खेचरी मुद्रा प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में शिव संहिता में इस प्रकार उल्लेख मिलताहै-
ब्रह्मरंध्रे
मनोदत्वा क्षणार्ध मदि तिष्ठति ।
सर्व पाप विनिर्युक्त स याति परमाँ गतिम्॥
अस्मिल्लीन मनोयस्य स योगी मयि लीयते।
अणिमादि गुणान् भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः॥
एतद् रन्ध्रज्ञान
मात्रेण मर्त्यः स्सारेऽस्मिन् बल्लभो के भवेत् सः।
पपान् जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयेदद्भुतं वै॥
अर्थात्-ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी मुद्रा की साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है।पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है। इस साधना में मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन होजाता है और अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है।
धेरण्ड संहिता में खेचरी मुद्रा का प्रतिफल इस प्रकार बताया गया है-
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैव लस्यं प्रजायते।
न च रोगो जरा मृत्युर्देव देहः स जायते॥
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा, तृष्णा, आलस्य, रोग, जरा, मृत्यु का भय नहींरहता।
लवण्यं च भवेद्गात्रे
समाधि जयिते ध्रुवम।
कपाल वक्त्र संयोगे रसना रस माप्नुयात-धेरण्ड
शरीर सौंदर्यवान बनता है। समाधि का आनन्द मिलता है। रसों की अनुभूति होती है। खेचरी मुद्रा का प्रकार श्रेयस्कर है।
ज्रामृत्युगदध्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले।
ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यास प्रयोगतः॥
तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्वा समाश्रयेत्-योगकुन्डल्युपनिषद
जो महापुरुष ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास प्रयोग से इस जरा मृत्यु व्याधि-निवारक खेचरी विद्याको जानने वाला है, उसी गुरु के पास सर्वभाव से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करनाचाहिए।
खेचरी मुद्रा से अनेकों शारीरिक, मानसिक, साँसारिक एवं आध्यात्मिक लाभों के उपलब्ध होने काशास्त्रों में वर्णन है। इससे सामान्य दीखने वाली इस महान् साधना का महत्त्व समझा जा सकता है।स्मरणीय इतना ही है कि इस मुद्रा के साथ साथ भाव सम्वेदनाओं की अनुभूति अधिकतम गहरी एवंश्रद्धा सिक्त होनी चाहिए।.........................................................हर-हर महादेव
No comments:
Post a Comment