::::::::::::::::::महामुद्रा :: [Mahamudra]:::::::::::::::::
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म्रत्यु को जीते ,विष को अमृत करे ,कुंडलिनी जगाये
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यह मुद्रा समस्त प्रकार के रोगों का नाश करती है और कुंडलिनी जागरण में अत्यंत सहयोगी है |विशेष रूप से पाचन तंत्र को सुव्यवस्थित करती है |प्रायः समस्त योग ग्रंथों में इसका वर्णन मिलता है |इस मुद्रा के साथ विधिपूर्वक किया गया प्राणायाम अत्यंत लाभकारी होता है |
मूलबंध लगाकर अर्थात कंठ को सिकोड़कर कुम्भक द्वारा वायु को रोकें |दाहिनी एड़ी से कंद(मलद्वार और जननांग का मध्य भाग) को दबाएँ। बाएँ पैर को सीधा रखें। अथवा बाएं पैर की एडी से योनी स्थान को दबाकर दायें पैर को सामने सीधा फैलाएं |आगे की ओर झुककर बाएँ पैर के अँगूठे को दोनों हाथों से पकड़े।अर्थात फैले हुए पैर के तलवों या अंगूठे को हाथों से पकडे | सिर को नीचे झुका कर बाएँ घुटने का स्पर्श कराएँ। इस स्थिति को जानुशिरासन भी कहते हैं चित्त को चैतन्य रूप परमात्मा की तरफ प्रेरित करके कुम्भक प्राणायाम द्वारा वायु को धारण करे |[इस प्रयास में फैले पैर का घुटना मुड़ने न पाए |इसके अभ्यास से डंडे द्वारा पीटे गए सर्प की भाँती कुंडलिनी दंड के समान सहसा खड़ी हो जाती है |दोनों नासापुटों से प्राणायाम की साम्यावस्था हो जाए तब वायु को शनैः शनैः निकाल दें |यह महामुद्रा कहलाती है |
गोरक्ष संहिता में इस मुद्रा में किये जाने वाले प्राणायाम का विधान उपलब्ध है |यथा ह्रदय में ठोढ़ी को दृढ़ता से स्थापित करें |बाएं पैर की एडी को योनिस्थान में दृढ़ता से लगाएं व् दायें पैर को सामने फैलाकर दोनों हाथों से उसका तलवा पकड़ लें |फिर पूरक द्वारा उदार में वायु को भरकर कुम्भक करें |बाद में शनैः शनैः रेचक करें |यह रोगों का नाश करने वाली श्रेष्ठ महामुद्रा कही जाती है |इसका अभ्यास प्रथम चन्द्र नाडी से और फिर सूर्य नाडी से करना चाहिए |इस प्रकार दोनों नथुनों से प्राणायाम समान मात्रा में पूर्ण हो जाने पर यह मुद्रा छोड़ दें |
महामुद्रा में जानुशिरासन के साथ-साथ, बंध और प्राणायाम, किया जाता है। श्वास लीजिए। श्वास रोकते हुए जालंधर बंध करें (ठुड्डी को छाती के साथ दबाकर रखें)। श्वास छोड़ते हुए उड्डीयान बंध(नाभी को पीठ में सटाना) करें। इसे जितनी देर तक कर सकें करें।यह गोरक्ष संहिता से विधि है ,जबकि घेरंड संहिता ध्यान पर अधिक जोर देती है |
घेरंड ऋषि ने महामुद्रा में प्राणायाम के स्थान पर ध्यान को अधिक महत्वपूर्ण माना है |दाहिने पैर को सीधा रखते हुए बाई एड़ी से कंद को दबाकर इसी क्रिया को पुन: करें। आज्ञाचक्र पर ध्यान करें। भ्रू मध्य दृष्टि रखें। इसके अतिरिक्त सुषुम्ना में कुंडलिनी शक्ति के प्रवाह पर भी ध्यान कर सकते हैं।
जितनी देर तक आप इस मुद्रा को कर सकें उतनी देर तक करें। इसके पश्चात महाबंध और महाभेद का अभ्यास करें। महामुद्रा, महाबंध और महाभेद को एक दूसरे के बाद करना चाहिए।
लाभ : हठयोग प्रदीपिका के अनुसार यह मुद्रा महान सिद्धियों की कुँजी है।इस मुद्रा से देह की साड़ी नाड़ियाँ चलने लगती हैं |जीवनी शक्ति स्वरुप शुक्र स्तंभित हो जाता है |सारे रोग मिट जाते हैं |शरीर पर निर्मल लावण्य छा जाता है |बुढापा और अकाल मृत्यु का आक्रमण नहीं होने पाता और मनुष्य जितेन्द्रिय होकर भवसागर से पार हो जाता है |
यह प्राण-अपान के सम्मिलित रूप को सुषुम्ना में प्रवाहित कर सुप्त कुंडलिनी जाग्रत करती है। इससे रक्त शुद्ध होता है। यदि समुचित आहार के साथ इसका अभ्यास किया जाय तो यह सुनबहरी जैसे असाध्य रोगों को भी ठीक कर सकती है। बवासीर, कब्ज, अम्लता और शरीर की अन्य दुष्कर व्याधियाँ इस के अभ्यास से दूर की जा सकती हैं। इसके अभ्यास से पाचन क्रिया तीव्र होती है तथा तंत्रिकातंत्र स्वस्थ और संतुलित बनता है।इसके अभ्यास से महक्लेश [अविद्या ,राग ,द्वेष ,अस्मिता तथा अभिनिवेश ]आदि दोष एवं जन्म -मरण आदि [आवागमन चक्र ]नष्ट होते हैं |अर्थात अभ्यास सिद्ध हो जाने पर यह मुद्रा मोक्षदायक तथा आत्मबोध कराने वाली है |इसीलिए इसे महामुद्रा कहा गया है |
शाण्डिल्योपनिषद ने इसके अतिरिक्त अन्य फल भी कहे हैं |इससे सभी क्लेशों का नाश होता है |विष भी अमृत के सामान पाच जाता है |क्षय ,गुल्म ,गुदावर्त ,पुराने चर्मरोग नष्ट होते हैं [अर्थात यह रक्तशोधक होता है ]|प्राण को जीतने वाला यह मुद्रा सर्व मृत्यु नाशक है |
गोरक्ष संहिता के अनुसार महामुद्रा के अभ्यास के दृढ हो जाने पर पथ्य ,अपथ्य ,रसीले या नीरस आदि का कुछ भी विचार शेष नहीं रहता |यदि घोर विष का भी पान कर लिया जाए तो वह भी अमृततुल्य हो जाता है |.................................................................हर-हर महादेव
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