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सामान्य रूप से योग मार्ग व्यक्ति को कठोरता से स्व नियंत्रण की बात करता
है अतः इससे कुंडलिनी जागरण पर सामान्य जीवन में कम ही साधक शक्तियों का उपयोग
करते है और उनकी मन स्थिति पहले ही ऐसी बन जाती है की वह समाज से एकाकी होने लगते
हैं |अधिकतर कुंडलिनी शक्ति का उपयोग तंत्र मार्गीय साधक ही भौतिक जीवन में करते
हैं ,क्योंकि तंत्र मार्ग से कुंडलिनी साधना भोग से मोक्ष की ओर की प्रक्रिया पर
आधारित होती है |मूलाधार के जाग्रत हुए बिना कुंडलिनी जागरण नहीं होता और मूलाधार
जागरण ही सबसे कठिन होता है |मूलाधार जागरण से ही सबसे अधिक शक्तियां और सिद्धियाँ
भी मिलती हैं तो सबसे अधिक पतित भी साधक इसी चक्र के प्रभाव से होते हैं |योग में
इस चक्र के जागरण के पूर्व की साधक शरीर और मन को नियंत्रित भी कर चूका होता है और
योग से जागरण धीरे धीरे भी होता है अतः पतन कम होता है किन्तु तंत्र मार्ग में भोग
से साधना होने से काम शक्ति की प्रमुखता होती है अतः कामशक्ति के तीव्र ऊर्जा
प्रवाह से जागरण होने पर मूलाधार का जागरण जल्दी तो होता है किन्तु इसका प्रभाव
इतना तीव्र होता है की व्यक्ति इन सिद्धियों के चक्कर में फंसकर भोग की ओर भागने
लगता है |बहुत ही कम साधक इस तीव्र ऊर्जा प्रवाह को नियंत्रित कर आगे बढ़ पाते हैं
और तब उनकी कुंडलिनी का जागरण योग मार्ग की अपेक्षा बहुत ही कम समय में हो जाता है
|हम आपको अब बताते हैं की कुंडलिनी में मूलाधार के जागरण से क्या -क्या सिद्धियाँ
,क्या क्या उपलब्धियां प्राप्त होती हैं और कैसे व्यक्ति मानव से महामानव बन जाता
है |उसका जीवन कैसे बदलता है ,भौति जीवन में उसे क्या लाभ प्राप्त होते हैं ,वह
क्या -क्या कर सकता है |
मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी महाशक्ति ,शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।मनुष्य में रीढ़ के
नीचे तिकोनी हड्डी और मांस पिंड तो होता है किन्तु भौतिक रूप से कुंडलिनी को वहां
नहीं देखा जा सकता क्योंकि यह सूक्ष्म शरीर में स्थित ऊर्जा है |इसकी कोई भी
क्रिया भौतिक शरीर को तुरंत प्रभावित करती है ,भौतिक शरीर की उर्जा इसे प्रभावित
करती है किन्तु फिर भी इसका भौतिक अस्तित्व नहीं होता ,जैसे कि आपमें प्राण तो
होते हैं किन्तु आप उसे देख नहीं सकते |प्राण को देखन के लिए आपको कुंडलिनी के
किसी चक्र को जगाना होगा |
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है| इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है| इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं ,जबकि यहाँ की मूल शक्ति काली हैं जिनको केवल गणेश की शक्ति से ही
संतुलित किया जा सकता है ,बिना विवेक के यह शक्ति महिसासुर बना देती है । जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है ,और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है,, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है|जागरण की अवस्था में काली का प्रभाव पूर्ण
शक्ति से उदित होता है जिसे यदि नियंत्रित कर लिया गया तभी साधक गणेश की शक्ति से
युक्त हो पाता है ,अन्यथा साधक
पतित हो जाता है |
मनुष्य के मूलाधार चक्र में कुंडलिनी का सम्पर्क तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है । उसके फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है । यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है |मूलाधार चक्र में वीरता और आनन्द भाव का निवास है । मूलाधार का जागरण योग के
अंतर्गत योगासनों ,मुदाओं और ध्यान साधना से की जाती है ,जबकि तंत्र में इसका
जागरण भैरवी तंत्र या कौल तंत्र के अंतर्गत की जाती है जहाँ मनुष्य की जनन शक्ति
की मुख्य भूमिका होती है और यौनांगों की क्रिया होती है जिससे तीव्र उर्जा उत्पन्न
कर नियंत्रण रखते हुए कुंडलिनी जागरण किया जाता है |एक और मार्ग से मूलाधार का
जागरण होता है और यह मार्ग है महाविद्या साधना |महाविद्या में काली साधना से काली
की सिद्धि होने पर मूलाधार चक्र का जागरण होता है किन्तु पूर्ण कुंडलिनी पर इसका
प्रभाव तभी होता है जब काली का प्रत्यक्षीकरण हो जाय और वह इच्छानुसार क्रिया करने
लगे |इस स्थिति में काली की उर्जा व्यक्ति में इतनी बढती है की उसकी कुंडलिनी
जाग्रत हो जाती है |
मूलाधार चक्र के जाग्रत हो जाने पर जब साधक या सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो, उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है, जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है| परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है| परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है. उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है|
जब प्रयत्नशील योगसाधक जब किसी महापुरूष का सान्निध्य प्राप्त करता है तथा अपने मूलाधार चक्र का ध्यान उसे लगता है तब उसे अनायास ही क्रमशः सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। वह योगी देवताओं द्वारा पूजित होता है तथा अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर वह त्रिलोक में इच्छापूर्वक विचरण कर सकता है। वह मेधावी योगी महावाक्य का श्रवण करते ही आत्मा में स्थिर होकर सर्वदा क्रीड़ा करता है। मूलाधार चक्र का ध्यान करने वाला साधक दादुरी सिद्धि प्राप्त कर अत्यंन्त तेजस्वी बनता है। उसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा सरलता उसका स्वभाव बन जाता है। वह भूत, भविष्य तथा वर्त्तमान का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सभी वस्तुओं के कारण को जान लेता है। जो शास्त्र कभी सुने न हों, पढ़े न हों, उनके रहस्यों का भी ज्ञान होने से उन पर व्याख्यान करने का सामर्थ्य उसे प्राप्त हो जाता है। मानो ऐसे योगी के मुख में देवी सरस्वती निवास करती है। जप करने मात्र से वह मंत्रसिद्धि प्राप्त करता है। उसे अनुपम संकल्प-सामर्थ्य प्राप्त होता है।
जब योगी मूलाधार चक्र में स्थित स्वयंभु लिंग का ध्यान करता है, उसी क्षण उसके पापों का समूह नष्ट हो जाता है। किसी भी वस्तु की इच्छा करने मात्र से उसे वह प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य आत्मदेव को छोड़कर बाह्य देवों की पूजा करते हैं, वे हाथ में रखे हुए फल को छोड़कर अन्य फलों के लिए इधर-उधर भटकते हैं। अतः सुज्ञ सज्जनों को आलस्य छोड़कर शरीरस्थ शिव का ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान परम पूजा है, परम तप है, परम पुरूषार्थ है।
मूलाधार के अभ्यास से छः माह में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इससे सुषुम्णा नाड़ी में वायु प्रवेश करती है। ऐसा साधक मनोजय करके परम शांति का अनुभव करता है। उसके दोनों लोक सुधर-सँवर जाते हैं।योग मार्ग द्वारा सम्यक प्राणायाम ,आसन ,मुद्राओं और एकनिष्ठ ध्यान से ही ६ महीने से एक साल में इसका जागरण
होता है जबकि व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान हो ,योग्य गुरु का मार्गदर्शन हो और शरीर योग
और प्राणायाम से शुद्ध हो चूका हो |शुरूआती चरणों और शरीर शुद्धता तथा योग्य बनने
में ही अधिक समय लगता है जिसमें वर्षों लगते हैं |
तंत्र में इसी चक्र का
महत्व सर्वाधिक होता है ,क्योकि यही चक्र जाग्रत करना सबसे कठिन होता है |इसके
जाग्रत और उर्ध्वमुखी होते ही अन्य चक्र आसानी से क्रियाशील हो सकते हैं किन्तु यह
जाग्रत ही जल्दी नहीं होता |अगर हो भी गया तो सबसे पहले इसका प्रभाव इतना बढ़ता है
की व्यक्ति के पतित होने की ही संभावना अधिक होती है |तंत्र इसीलिए पृथ्वी का सबसे
कठिन साधना मार्ग है की यह सबसे पहले इस मूलाधार के महिसासुर को ही नियंत्रित करता
है जिससे बाद के देवता स्वतः अनुकूल होने लगते हैं |इसे ही तंत्र जगाकर नियंत्रित
करता है जबकि योग मार्ग इस पर ध्यान लगाकर इसे क्रियाशील करता है |यह सभी भौतिक
,लौकिक ,तामसिक सिद्धियों का केंद्र है जिस पर नियंत्रण से भैरव ,काली ,डाकिनी
,शाकिनी ,भूत ,पिशाच ,यक्षिणी ,अप्सरा ,जैसी समस्त शक्तियां नियंत्रण में आने लगती
हैं |इनकी साधना विशेष रूप से करने की आवश्यकता नहीं होती अपितु थोड़े प्रयास से
,थोड़ी तकनीकियों का प्रयोग से ,थोड़े से साधना से इन शक्तियों की सिद्धि होने लगती
है |यह कुछ ऐसा ही होता है जैसे अतिथि दरवाजे पर आये जिसकी आवभगत करके घर में
बैठाना होता है |मूलाधार के जागरण से व्यक्ति भूत -प्रेत -ब्रह्म -पिशाच बाधा हटा
सकता है ,भूत -भविष्य जान सकता है ,किसी के रोग -कष्ट दूर कर सकता है ,नकारात्मकता
हटा सकता है ,शरीर का ऊर्जा प्रवाह सुधार सकता है |उसके आशीर्वाद और श्राप फलित
होने लगते हैं |मूलाधार के जाग्रत होने का अर्थ है भगवती काली की शक्तियों का
जागना ,क्योंकि मूलाधार के केंद्र में ही काली का डाकिनी स्वरुप होता है और यह
स्वरुप बेहद उग्र है |सम्पूर्ण मूलाधार में काली की ही शक्तियाँ स्थित होती हैं
,अतः चाहे योगी हो अथवा तांत्रिक मूलाधार जागरण पर उग्रता ,तामसिकता ,भौतिकता
,विलासिता ,कामुकता के भाव एक बार उभरते जरुर हैं और इन्हें ही नियंत्रित रखते हुए
सतत साधना रत रह कुंडलिनी शक्ति को स्वाधिष्ठान तक उठाया जाता है जहाँ यह सब
महिसासुर वाले भावों का वहां दुर्गा संहार कर देती हैं और व्यक्ति इन भावों पर विजय
पा लेता है |
मूलाधार के जागरण से शरीर का आभामंडल अर्थात औरा
बदल जाती है ,शरीर तेज युक्त हो जाता है ,आँखों का तेज ऐसा हो जाता है की सामने
वाला सहन नहीं कर पाता |यहाँ की शक्तियाँ मष्तिष्क के तरंगों के साथ क्रिया करते
हुए व्यक्ति के सोचने की दिशा से उस लक्ष्य तक पहुँच क्रिया करने लगती हैं जहाँ
व्यक्ति सोच रहा होता है ,इससे व्यक्ति के कोई कार्य करने के पहले ही सफलता की
दिशा में कार्य होने का वातावरण बनने लगता है |व्यक्ति किसी को भी थोड़े एकाग्रता
के साथ कोई भी संदेश दे सकता है और वह व्यक्ति इसे स्वप्न अथवा अचेतन के विचार के
रूप में सुन लेगा |मूलाधार चक्र जाग्रत व्यक्ति जहाँ भी जाता है एक दबंग और उग्र
व्यक्ति का उसका प्रभाव लोगों पर पड़ता है भले वह उग्रता न दिखाए किन्तु अनजाना भय
लोगों में उत्पन्न होता ही है |ऐसे व्यक्ति पर की गयी कोई तांत्रिक क्रिया
प्रभावहीन हो जाती है अथवा पलटकर करने वाले का ही नुकसान करती है |व्यक्ति का साहस
,आत्मबल ,आत्मविश्वास ,कर्मठता ,क्षमता ,प्रभावशालिता बहुत बढ़ जाती है जिससे उसकी
सफलता कई गुना बढ़ जाती है तथा उसके आय के अनेक स्रोत अपने आप बनते जाते हैं |वह
ऐसा हो जाता है की लोग उससे मदद मांगते हैं और उसे किसी के मदद की जरूरत नहीं होती
|समृद्धि ,सम्पत्ति ,भौतिक सुखों से व्यक्ति परिपूर्ण तो होता ही है ,अत्यंत उच्च
कोटि की आध्यात्मिक शक्ति भी उसमे होती है |इसी प्रकार ऐसे हजारों लाभ हैं जो
मूलाधार के जागरण पर प्राप्त होते हैं ,,जिन्हें लिखने या बताने में कई पोस्ट कम
पड़ जायेंगे |यदि आप भौतिक जीवन में सुखी रहते हुए आध्यात्मिक उन्नति चाहते हैं तो
कुंडलिनी और मूलाधार जागरण का प्रयास करें |गुरु तलाश करें और साधना में भी थोडा
समय दें तो आपका बहुविध कल्याण होगा |धन्यवाद ........................................................हर-हर
महादेव
अति सुन्दर
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