प्राण-विद्या की विशिष्ट साधनाएँ
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प्राण विद्या के अंतर्गत अनेकों साधनाएँ हैं। तीन बन्ध,सात मुद्रायें एवं नौ प्राणायाम प्रमुख माने गयेहैं। वैसे बंधों की संख्या 40, मुद्राओं की संख्या 64 और प्राणायामों की संख्या 54, योग ग्रन्थों मेंउपलब्ध होती हैं। उनमें से आज की परिस्थितियों में सभी तो आवश्यक नहीं हैं, पर उनमें से जोअधिक सरल, हानि रहित एवं उपयोगी हैं उन्हें अगले दश वर्ष में बताया जाता रहेगा। हठ योग केकई प्राणायाम ऐसे भी हैं जो अधिक शक्तिशाली तो है पर उनमें थोड़ी भूल होने से खतरा भी बहुत हैं।ऐसे विधानों को विशेष अधिकारी लोग ही अनुभवी गुरु की पास रहकर सीख सकते हैं । अपनेपरिवार के उन स्वजनों के लिए जो दूर रहने के कारण केवल अखंड-ज्योति द्वारा ही मार्ग-दर्शनप्राप्त करते हैं केवल ऐसी ही साधनाएँ उपयोगी हो सकती हैं जिनमें कोई भूल होने पर भी किसीप्रकार की हानि की संभावना न हो, किन्तु लाभ समुचित मात्रा में प्राप्त होता रहे। ऐसे चुने हुएप्राणायामों में से ही यह उपरोक्त प्राणाकर्षण प्रक्रिया हैं। इससे प्राण तत्त्व की मात्रा साधक में बढ़ेगीऔर वह शरीर एवं मन दोनों ही क्षेत्रों में अधिक वीर, बलिष्ठ, पराक्रमी एवं तेजस्वी बनेगा।
दृढ़ निश्चय और धैर्य
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प्राणमय कोश के विकास के लिए प्राणायाम के साथ ही संकल्प साधना भी आवश्यक हैं। दृढ़ निश्चयऔर धैर्य के अभाव में हमारे कितने ही कार्य आज आरंभ होते और कल समाप्त हो जाते हैं,। जोश मेंआकर कोई काम आरंभ किया, जब तक जोश रहा तब तक बड़े उत्साह से वह काम किया गया, परकुछ दिन में वह आवेश समाप्त हुआ तो मानसिक आलस्य ने आ घेरा और किसी छोटे-मोटे कारणके बहाने वह कार्य भी समाप्त हो गया। बहुधा लोग ऐसी ही बाल क्रीड़ाऐं करते रहते हैं। अध्यात्ममार्ग से तत्काल प्रत्यक्ष लाभ दिखाई नहीं पड़ता उसके सत्परिणाम तो देर में प्राप्त होने वाले तथादूरवर्ती हैं। तब तक ठहरने लायक धैर्य और संकल्प बल होता नहीं इसलिए आध्यात्मिक योजनाएँतो और भी जल्दी समाप्त हो जाती हैं। इस कठिनाई से छुटकारा पाने के लिए हमें संकल्प शक्ति काविकास करना आवश्यक हैं। जो कार्य करना हो उसकी उपयोगिता अनुपयोगिता पर गंभीरतापूर्वकविचार करें। ऐसा निर्णय किसी आवेश में आकर तत्क्षण न करें वरन् देर तक उसे अनेक दृष्टिकोणोंसे परखें। मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को सोचें और उनका जो हल निकल सकता हो उसे परसोचें। अन्त में बहुत सावधानी से ही यह निर्णय करें कि यह कार्य आरंभ करना या नहीं। यदि करनेके पथ में मन झुक रहा हो तो उसे यह भी समझाना चाहिए कि बात को अन्त तक निबाहना पड़ेगा।कार्य को आरंभ करना और जरा-सा आलस या असुविधा आने पर उसे छोड़ बैठना विशुद्ध रूप सेछिछोरापन हैं। हमें छिछोरा नहीं बनना हैं ।वीर पुरुष एक बार निश्चय करते हैं और जो कर लेते हैंउसे अन्त तक निबाहते हैं। अध्यात्म मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है। इस पर चलना हो तो वीर पुरुषों कीभाँति, धुन के धनी महापुरुषों की भाँति की बढ़ना चाहिए। छिछोरपन की उपहासास्पद स्थिति बननेदेना किसी भी भद्रपुरुष के लिए लज्जा और कलंक की बात ही हो सकती हैं।
प्रतिज्ञा का प्राणपण से पालन
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जो निश्चय करना उसे निबाहना इसे नीति का, अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेना चाहिए और यह मानकर कदम उठाना चाहिए कि हर कीमत पर इसे पूरा करना हैं। आलस्य और बहानेबाज़ी को अपने दृढ़ निश्चय के मार्ग में आड़े नहीं आने देना हैं। निश्चय करना हो कि एक या आधा घंटा रोज साधना में लगावेंगे तो फिर उसे उतना ही आवश्यक मान लेना चाहिए जितना कि शौच, स्नान,भोजन, नींद आदि नित्य कर्मों को आवश्यक माना जाता हैं कोई भी कठिनाई क्यों न आवें, कितना ही आलस क्यों न घेरे हम उपरोक्त नित्य कर्मों को कर ही लेते हैं, उनके लिए समय निकल ही
आता है फिर साधना के लिए ही दुनियाँ भर की बहानेबाज़ी प्रस्तुत कर दी जाय, इसमें क्या तुक हैं।जो कार्य आवश्यक और उपयोगी जँचता है उसे मनुष्य प्राथमिकता देता हैं और उसके लिए न फ रताका बहाना करना पड़ता हैं और न समय का अभाव रहता हैं। साधनात्मक आध्यात्मिक कार्यक्रमों कोभी उपयोगी और आवश्यक नित्य कर्म मानकर ही हमें इस दिशा में कोई कदम उठाना चाहिए।मनोबल की कमी के खतरे के कारण कार्यक्रम टूट न जाय इस खतरे को ध्यान में रखते हुए पहले सेही उसे किसी नित्य कर्म के साथ नत्थी कर देना चाहिए। जैसे जब तक साधना न कर लेंगे तब तकभोजन न करेंगे या सोयेंगे नहीं। भोजन या सोने में थोड़ा विलम्ब हो जाय तो उससे कोई विपत्तिनहीं आती। मान लीजिए आज बहुत व्यस्तता रही और साधना के लिए समय न मिल सका तो फिरभोजन को ही साधना से अधिक महत्व क्यों दिया जाय? उसे भी क्यों न स्थगित रखा जाए? दिनभर व्यस्त रहे तो रात को सोने के घंटों में आधा घंटे की कमी करके साधना को सोने से पूर्व पूराकिया जा सकता हैं। प्रतिज्ञा तोड़ने का दंड यदि भोजन न करना और न सोना निश्चित कर लियाजाय तो फिर आलस्य और बहानेबाज़ी की दाल न गलेगी। उन्हें परास्त होना पड़ता और संकल्प-बलदिन-दिन पुष्ट होता जाएगा ।
संकल्प-पूर्ति के लिए व्रत धारण
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कई व्यक्ति किन्हीं विशेष कार्यों की संकल्प-पूर्ति तक कुछ शारीरिक असुविधाओं का वरण कर लेतेहैं, जैसे बाल न बनाना, जमीन पर सोना, ब्रह्मचर्य से रहना, नमक छोड़ देना, थाली के स्थान परपत्तों पर भोजन करना आदि । इस प्रकार के व्रत लेने से अमुक कार्य को पूरा करने के लिए आकांक्षाप्रदीप्त रहती हैं, संकल्प याद रहता हैं और शिथिलता नहीं आने पाती। किसी संकल्प की पूर्ति मेंमानसिक शिथिलता ही प्रधान कारण होती हैं। उस पर नियन्त्रण करने के लिए इस प्रकार के व्रतों काकारण किया जा सकता हैं। एक के बाद एक संकल्प पूर्ण होते रहने से मनुष्य का साहस बढ़ता है औरवह बड़े-बड़े कठिन काम दृढ़ता पूर्वक पूरा कर सकने वाले महापुरुषों की श्रेणी में जा पहुँचता हैं। इसपंचकोशी, साधना का कार्यक्रम जब तक ठीक प्रकार न चलने लगे तब तक भोजन में से नमक छोड़देने या बाल न बनाने जैसी कोई प्रतिज्ञा हम भी ले सकते हैं और तब क्रम यथावत् एक महीने चलनेलगे तो उस व्रत को पूर्ण मानकर समाप्त कर सकते हैं। पर नित्य कर्म को तो सदा के लिए ही भोजनया शयन के साथ जोड़ रखना चाहिए। ताकि वह सदैव नियमित रूप से ठीक प्रकार चलता रहे।मनोमयकोश का विकास मनोबल के साथ सुसम्बद्ध हैं। संकल्प साधना के आधार पर उसे बढ़ायाजाना चाहिए। हमें प्राणायाम के साथ-साथ संकल्प भी सक्रिय रखना है। इसी प्रकार हमारा मानसिकस्तर परिपुष्ट एवं विकसित होगा।..............................................हर-हर महादेव
हर हर महादेव🙏
ReplyDeleteHar hat pasupatinath
ReplyDeleteॐ नमः शिवायः
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