अनुलोम विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम
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कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्राण ऊर्जा की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ती है। यहप्रयोजन सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा पूरा होता है। प्राण ऊर्जा का अभिवर्द्धन साधक की भौतिक औरआध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है। यह मस्तिष्क को शुद्ध करता है। वात रोगनिवारक एवं कृमिनाशक है।
जिस आसन में सहजता से १५ मिनट बैठ सकें, उसमें मेरुदण्ड सीधा रख कर बैठिए। स्वयं को तीर्थचेतना, गुरुसत्ता के दिव्य आभामण्डल से घिरा हुआ अनुभव कीजिए। प्राणायाम मुद्रा में बायाँनथुना दबाकर दाहिने नथुने से श्वास खींचना आरम्भ कीजिए। ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणोंजैसा प्रवाह वायु में संमिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपनेशरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग- प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है।श्वास को कुछ देर भीतर रोकिए और ध्यान कीजिए कि श्वास के साथ खींचा हुआ तेज नाभिचक्र मेंएकत्रित हो रहा है। सूर्य चक्र प्रकाशवान् हो रहा है। चमक बढ़ रही है। बाएँ नासिका से श्वास को बाहरनिकालिए, भाव कीजिए कि सूर्यचक्र को धुँधला बनाए रखने वाला कल्मष छोड़ी हुई श्वास के साथपीतवर्ण होकर बाएँ नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है। सहजता से जितनी देर हो सके,फेफड़ों को बिना श्वास के खाली कीजिए। भाव कीजिए नाभिचक्र में एकत्रित प्राणपुत्र् अग्रि शिखाओंकी तरह सुषुम्रा में ऊपर उठकर पेट के ऊर्ध्व भाग, फेफड़े, कण्ठ को प्रकाशित कर रहा है।
इसी क्रम को उलटा कीजिए अर्थात् बाएँ से खींचना, अन्दर रोकना, दाएँ से बाहर निकालना औरबाहर रोक देना। श्वास खींचते समय भाव कीजिए कि सविता का तेज नाभिचक्र में संगृहीत हो रहाहै। अन्तःकुम्भक में ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र सूर्यचक्र तेजस्वी हो रहा है। श्वास निकालते समयभाव कीजिए कि आन्तरिक विकार वायु के साथ बाहर जा रहे हैं। बाह्य कुम्भक के समय ध्यानकीजिए कि सूर्यचक्र का निर्मल तेज सुषुम्रा मार्ग से ऊपर की ओर बढ़ रहा है, भीतरी अवयवों में एकदिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।
दाएँ से खींचकर बाएँ से निकालना, पुनः बाएँ से खींचकर दाएँ से निकालना, अनुलोम विलोमसूर्यवेधन प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ, ऐसे तीन प्राणायाम कीजिए। जो समय शेष रहे, उससमय सहज लयबद्ध श्वास के साथ शान्ति का अनुभव कीजिए। ..............................................................हर-हर महादेव
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