समझिये कुण्डलिनी महाशक्ति को [[ भाग - ३ ]]
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जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए सब से प्रथम और सबसे आवश्यक क्रिया चूसने की होतीहै। बच्चे में यह प्रवृत्ति रिफलेक्स-उसे माता का स्तन पान करने की उत्तेजना देता है। यही प्रवृत्तिप्रौढ़ता आने पर यौनेच्छा-सेक्स रिफलेक्स के रूप में विकसित होती है। बिना किसी प्रशिक्षण के यहदोनों ही प्रवृत्तियाँ अपने-अपने ढंग से हर प्राणी में अन्तः प्रेरणा से ही उठती और प्रयोग में आती है।इन जीवनोपयोगी प्रेरणाओं का केन्द्र यही स्थान है जिस कन्द, कुण्ड या काम बीज कहते हैं। कन्दका एक नाम कूर्म भी है। इसे कच्छपावतार का प्रतिनिधि बताया गया है। उसके पैरों को सिकुड़ने,फैलाने वाला बहन को वहाँ से निसृत होने वाली शक्ति धाराओं की ओर संकेत किया गया है। कन्दकी आकृति अण्डे के समान मानी गई है। उसे कछुए की उपमा भी दी गई है। समुद्र मंथन की कथा मेंरई मंदराचल पर्वत बनाई गई थी। उस पर्वत के नीचे भगवान कूर्मावतार के रूप में कच्छप बनकरबैठे थे और उस भार को अपनी पीठ पर उठाया था। यह कर्म या कन्द की ही आलंकारिक व्याख्या है।
नाड़ी गुच्छकों के अतिरिक्त कन्द की व्याख्या मेरुदण्ड की अन्तिम चार अस्थियों ओर उस स्थानपर बिखरे पड़े नाड़ी संस्थानों के रूप में भी की जाती है। इसे समझने के लिए मेरुदण्ड की अस्थिसंरचना को समझना होगा। शरीर विज्ञान के अनुसार मेरुदण्ड छोटे बड़े 33 विरूपस्थि खण्डों याकशेरुओं-कट्रीब्री से मिल कर बना है। आकृति में वह सर्पाकार है। प्रत्येक दो कशेरु के मध्य में एकमाँस निर्मित गद्दी सी रहती है। जिस पर प्रत्येक कशेरु टिका और सूत्रों से कसा हुआ है। इसी कारणयह लचीला है ओर अपनी धुरी पर हर दिशा में धूम सकता है। उसे पाँच भागों में बाँटा जा सकता है। (1) ग्रीवा-सरवाइकल-7 कशेरु (2) पीठ-थारेक्स-12 कशेरु (3) कटिप्रदेश-लम्बर-5 कशेरु (4)वस्ति गह्वर-त्रिक प्रदेश-सेक्रल-5 कशेरु (5) पुच्छिकास्थि-चचु-काकीक्स 4 कसेरु। सब मिला करइन तैंतीस खण्डों की तैंतीस देवता कहा गया है। इनमें से प्रत्येक में सन्निहित दिव्य क्षमता कोदेवोपम माना गया है।
मेरु दण्ड पोला तो है पर ढोल की तरह खोखला नहीं उसमें मस्तिष्कीय मज्जा भरी हुई है। प्रत्येककशेरु के पिछली और दाँए-बाँए अर्ध वृत्ताकार छिद्र होता है जिसमें से छोटे नाड़ी सूत्रों से निर्मित बड़ीनाड़ियाँ बाहर निकलती है। मेरुदण्ड का निचला भाग शंकु के आकार का है जिसे- फाइलम टर्मिनलकहते हैं।
चंचु प्रदेश के कशेरु जितने छोटे हैं, इतने ही चौड़े है। वे अन्दर से पोले भी नहीं है और एक-दूसरे से जुड़े हुए है। ये चार कशेरु मिल कर अण्डे की आकृति वाला अथवा फूल का तद कली के सदृशआकार बनता है। इसे ‘काकीक्स’ कहते हैं। इस गोलक को कुण्डलिनी योग में ‘कन्द’ एवं स्वयं भूलिंग के नाम से पुकारा गया है। कुण्डलिनी शक्ति इसी के इर्द-गिर्द सर्पिणी की तरह लिपटी मानीगई है।
नाड़ी गुच्छकों एवं मेरुदण्ड के निम्न भाग के अस्थि समूहों के ऊपर एक सूक्ष्म शक्ति छाई हुई हैउसी को मूलाधार का, नाभिक-न्यूक्लियस समझा जाना चाहिए। उसी के प्रभाव से उस क्षेत्र में बिखरेपड़े अनेक संस्थान अपना-अपना काम करते और एक से एक बढ़े-चढ़े प्रभाव उत्पन्न करते देखे जासकते हैं। कमर से लेकर पेडू और जननेन्द्रिय मूल तक का पूरा क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य मानागया है और वहाँ किसी भी क्षेत्र में जो कुछ होता है उस सब पर मूलाधार का प्रभाव आँका जा सकताहै। नाभि, गुर्दे, मूत्राशय, यौन संस्थान, पौरुष ग्रन्थियाँ आदि की समस्त गतिविधियों को-प्रजननप्रक्रिया को उसी दिव्य केन्द्र को अनुदान एवं चमत्कार कह सकते हैं। जीवनी-शक्ति का, क्रियाशक्तिका उमंग उत्साह का, केन्द्र इसी को कहा गया है। कन्द के स्वरूप और महत्त्व का वर्णन अध्यात्मशास्त्रों में इस प्रकार हुआ है-
कन्दौध्वें कुण्डलीशक्ति शुभमोक्षप्रदायिनी।
बन्धनाय च मूढ़ाना यस्ताँ वेत्ति स वेद्वित्॥ -गोरक्ष पद्वति
मंगलमय मोक्ष प्रदायिनी कुण्डलिनी शक्ति ‘कन्द’ के उर्ध्व भाग में अवस्थित है। वही प्रसुप्त होनेपर मूढ़ मति लोगों को बन्धन में बाँधे हुए है। इस मर्म को जो जानता है वही वास्तविकता को जाननेवाला ज्ञानवान है।
शिव संहिता
गुदाद्वय गुलतश्चोर्ध्व मेढैकाँगुलस्त्वधः।
एव चास्ति समं कन्दं समता चतुरंगुलम्॥
तन्मध्ये लिगडरूपी द्रतुकनककलाकोमलः पश्चिमास्यो।
ज्ञानध्यानप्रकाशः प्रथम, किसलयाकाररूपः स्वयम्भुः।
विद्युत्पूणेन्दुबिम्बुप्रकरचयम्निग्धसन्तानहासी काशो।
वासी विलासी विलसति,सरिदावत्त रुर्प प्रकारः।
तस्योर्द्धंवे विसतन्तुसोदरलसत्सुक्ष्मा जगन्मोहिनी
ब्रह्मद्वारमुख मुखेन मधुरं,सछादयन्ती स्वयम्।
शखाँवर्त्त निभा नवीनचपला-मालाविलासास्पदा
सुप्ता सर्पसमा शिवोपरि,लसत्सार्द्धत्रिवृत्ताकृतिः॥
अर्थात्-
गुदा एवं शिश्न के मध्य में जो योनि है वह पश्चिमाभिमुखी अर्थात् पीछे का मुख है उसी स्थान में‘कन्द’है और इसी स्थान में सर्वदा कुण्डलिनी स्थित है। ”त्रिकोण के भीतर स्वयंभू लिंग है जिसकावर्ण स्वर्ण के समान है और जिसका सिर नीचे की ओर है। उसे नूतन किसलय के समान देव काप्रकाश ज्ञान-ध्यान द्वारा ही सम्भव है। विद्युत और पूर्ण चन्द्रमा के समान ही वह स्निग्ध सौंदर्ययुक्त है। इस स्वयंभू लिंग पर कमल-तन्तु के समान अति सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति सो रही है। वहजगत को मोहित करने वाली है और ब्रह्मद्वार के मुख को अपने मुख से ढके हुए है। शंख कीचक्रवत रेखाओं के समान उसकी चमकीली सर्पाकार आकृति शिव लिंग के चारों ओर साढ़े तीन फेरेलिये हुए है।..........................................................................हर-हर महादेव
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