Sunday, 20 May 2018

कुण्डलिनी में षठ चक्र और उनका भेदन [भाग -४]


कुण्डलिनी में षठ चक्र और उनका भेदन [भाग -]
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चक्रों की जागृति मनुष्य के गुणकर्मस्वभाव को प्रभावित करती है  स्वाधिष्ठान की जागृति सेमनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार हुआ अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है  श्रममें उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है  मणिपूर चक्र से साहस औरउत्साह की मात्रा बढ़ जाती है  संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं  मनोविकारस्वयंमेव घटते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है 
अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं  हृदय स्थान पर गुलाबसे फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक 'आईचीनकनक कमल मानते हैं ।भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है  कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमलसंवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है  बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता कहते हैं  आत्मीयता काविस्तार सहानुभूति एवं उदार सेवा सहाकारिता  तत्त्व इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं
कण्ठ में विशुद्ध चक्र है  इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं  दोष वदुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है  शरीरशास्त्र मेंथाइराइड ग्रंथि और उससे स्रवित होने वाले हार्मोन के संतुलन-असंतुलन से उत्पन्न लाभ-हानि कीचर्चा की जाती है  अध्यात्मशास्त्र द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान तो यहीं हैपर वह होतासूक्ष्म शरीर में है  उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं  लघु मस्तिष्क सिर के पिछलेभाग में है  अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी स्थान पर मानी जाती हैं 
मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र इस चित्त संस्थान को प्रभावित करता है ।तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकनेसूत्र हाथ में  जाते हैं  नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँविकसित होने लगती हैं 
सहस्रार की मस्तिष्क के मध्य भाग में है  शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियोंसे सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है  वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाहउभरता है  वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं  इसमें से छोटी-छोटीचिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं  उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकतीपर वे हैंहजारों  इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रारशब्द प्रयोग में लाया जाता है  सहस्रार चक्रका नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है 
यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र याब्रह्मलोक भी कहते हैं  रेडियो एरियल की तहर हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखाते औरउसे सिर रूपी दुर्ग पर आत्मा सिद्धान्तों को स्वीकृत किये जाने की विजय पताका बताते हैं  आज्ञाचक्रको सहस्रार का उत्पादन केन्द्र कह सकते हैं 
सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित हैं तो भी वे समूचे नाड़ी मण्डल को प्रभावित करते हैं ।स्वचालित और एच्छिक दोनों की संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है  अस्तु शरीर संस्थानके अवयवों के चक्रों द्वारा र्निदेश पहुँचाये जा सकते हैं  साधारणतया यह कार्य अचेतन मन करता हैऔर उस पर अचेतन मस्तिष्क का कोई बस नहीं चलता है  रोकने की इच्छा करने पर भी रक्त संचाररुकता नहीं और तेज करने की इच्छा होने पर भी उसमें सफलता नहीं मिलती  अचेतन बड़ा दुराग्रहीहै अचेतन की बात सुनने की उसे फुर्सत नहीं  उसकी मन मर्जी ही चलती है ऐसी दशा में मनुष्य हाथ-पैर चलाने जैसे छोटे-मोटे काम ही इच्छानुसार कर पाता है 
शरीर की अनैतिच्छक क्रिया पद्धति के सम्बन्ध में वह लाचार बना रहता है  इसी प्रकार अपनी आदत,प्रकृति रुचिदिशा को बदलने के मन्सूबे भी एक कोने पर रखे रह जाते हैं  ढर्रा अपने क्रम से चलतारहता है  ऐसी दशा में व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली और शरीर तथा मनः संस्थान में अभीष्टपरिवर्तन करने वाली आकांक्षा प्रायः अपूर्ण एवं निष्फल रहती है 
चक्र संस्थान को यदि जाग्रत तथा नियंतरित किया जा सके तो आत्म जगत् पर अपना अधिकार होजाता है  यह आत्म विजय अपने ढंग की अद्भूत सफलता है  इसका महत्व तत्त्वदर्शियों ने विश्वविजय से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया है 
विश्व विजय कर लेने पर दूरवर्ती क्षेत्रों से समुचित लाभ उठाना सम्भव नहीं हो सकताउसकी सम्पदाका उपभोगउपयोग कर सकने की अपने में सामर्थ्य भी कहाँ है  किन्तु आत्म विजय के सम्बन्ध मेंऐसी बात नहीं है  उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है  उस आधार पर बहिरंग और क्षेत्रों कीसम्पदा का प्रचुर लाभ अपने आप को मिल सकता है ..........[क्रमशः ]..................................................हर हर महादेव 

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