ध्यान केन्द्र और दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख
==================================
ध्यान केंद्र
----------
शंकर जी से लेकर वर्तमान कालिक जितने भी योगी-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि थे और हैं, चाहे वेयोग-साधना करते हों या मुद्राएँ, प्रत्येक के अन्तर्गत ध्यान एक अत्यन्त आवश्यक योग की क्रिया हैजिसके बिना सृष्टि का कोई साधक-सिद्ध, ऋषि-महर्षि, योगी, अथवा सन्त-महात्मा ही क्यों न होआत्मा को देख ही नहीं सकते अथवा आत्मा का दर्शन या साक्षात्कार हो ही नहीं सकता है। दूसरेशब्दों में योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान का वही स्थान है जो शरीर के अन्तर्गत ‘आँख’ का। जिसप्रकार शरीर या संसार को देखने के लिए सर्वप्रथम आँख का स्थान है उसी प्रकार आत्मा-ईश्वर-ब्रह्मको देखने और पहचानने के लिए ध्यान का स्थान है। ध्यान का केंद्र आज्ञा-चक्र ही होता है। यहीस्थान त्रिकुटि-महल भी है।
योगी-साधकों के आदि प्रणेता श्री शंकर जी कहलाते हैं। योग-साधना की क्रियाओं अथवा मुद्राओं कासर्वप्रथम शोध शंकर जी ने ही किया था। ध्यान आदि मुद्राओं के सर्वप्रथम शोधकर्ता होने के कारणही सोsहं के स्थान पर कुछ योगी-महात्मा शिवोsहं तथा मूलाधार स्थित मूल शिवलिंग और शम्भूभी हंस स्वरूप ही कहलाने लगे।
दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख
------------------------------
दिव्य-दृष्टि वह दृष्टि होती है जिसके द्वारा दिव्य-ज्योति का दर्शन किया जाता है| दिव्य-दृष्टि कोही ध्यान केंद्र भी कहा जाता है। शरीर के अन्तर्गत यह एक प्रकार की तीसरी आँख भी कहलाती है।इसी तीसरे नेत्र वाले होने के कारण शंकर जी का एक नाम त्रिनेत्र भी है। यह दृष्टि ही सामान्य मानवको सिद्ध-योगी, सन्त-महात्मा अथवा ऋषि-महर्षि बना देती है बशर्ते कि वह मानव इस तीसरी दृष्टिसे देखने का भी बराबर अभ्यास करे। योग-साधना आदि क्रियाओं को सक्षम गुरु के निर्देशन के बिनानहीं करनी चाहिए अन्यथा विशेष गड़बड़ी की सम्भावना बनी रहतीहै।...............................................हर-हर महादेव
No comments:
Post a Comment