समझिये कुण्डलिनी महाशक्ति को [[ भाग -१ ]]
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कुण्डलिनी महाशक्ति का परिचय,स्थान ओर स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है। कि वहमूलाधार चक्र के अग्नि कुण्ड में निवास करती है। अग्नि स्वरूप है। सुप्त-सर्पिणी की तरह सोई पड़ीहैं। स्वयंभू महालिंग से शिवलिंग से लिपटी पड़ी हैं। इसी स्थिति की झाँकी शिव प्रतिमाओं में कराईजाती है। योनि क्षेत्र में एक सर्पिणी शिव लिंग से लिपटी हुई प्रदर्शित की जाती हैं। शिव पूजा में इसप्रतिमा पर जल धार चढ़ाने का विधान है। रुद्राभिषेक में जल कलश के पेंदे में छिद्र करके उसे तीनटाँग की तिपाई पर स्थापित करते हैं। और उसमें से एक-एक बूँद पानी शिव लिंग पर टपकता रहताहै। यह कुण्डलिनी का ही समग्र स्वरूप हैं। सहस्रार चक्र को अमृत कलश कहा गया है। उससेसोमरस टपकने का उल्लेख हैं। खेचरी मुद्रा में इसे ‘अमृत स्राव’ बताया गया है। यह स्राव अधोमुखहैं। नीचे की दिशा में रिसता टपकता रहता है। कुण्डलिनी मूल तक जाता है। कुण्डलिनी महाशक्तिको ऊर्ध्वगामी बनाने और अमृत सोम का आस्वादन कराने का लाभ ब्राह्मी एकता के माध्यम से हीसम्भव हैं। यही कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है।
सुप्त सर्पिणी अग्नि कुण्ड में पड़ी-पड़ी विष उगलती रहती है और उससे जलन ही जलन उत्पन्नहोती हैं। वासना की अग्नि शान्त नहीं हो सकती, वह शरीर और मन की दिव्य सम्पदाओं का विनाशही करती रहती है। इसका समाधान अमृत रस को पान करने सोम संपर्क से ही सम्भव होता है। यहतथ्य जन-साधारण को समझाने के लिए तीन टाँग की तिपाही पर कलश स्थापित करके शिव लिंगपर अनवरत जल धार चढ़ाने की व्यवस्था की जाती हैं और इस आध्यात्मिक आवश्यकता कापरिचय कराया जा सकता है कि जलन का समाधान मानसिक एवं आत्मिक अमृत रस पीने सेबौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कृष्टता का रसास्वादन करने से ही सम्भव हो सकता है।
रुद्राभिषेक में जल कलश के नीचे तीन टाँग की तिपाई रखी जाती है वह इड़ा, पिंगला और सुषुम्नाका प्रतीक हैं। इन्हीं तीन आधारों के सहारे कुण्डलिनी जागरण की पुण्य प्रक्रिया सम्पन्न होती हैं। अग्नि और सोम के मिलन की आवश्यकता और उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले देवत्व का हीप्रत्यक्षीकरण रुद्राभिषेक के कर्मकाण्डों में किया जाता है।
कुण्डलिनी परिजप में स्नान-स्नान पर स्वयंभू लिंग की चर्चा हैं। बहुत स्थानों पर उसे कन्द’ भी कहागया है। यह क्या है? इसे जानने के लिए स्थूल शरीर से सम्बन्धित शरीर शास्त्र और सूक्ष्म शरीरसे सम्बन्धित अध्यात्म शास्त्र का पर्यवेक्षण किया जा सकता है। शरीर में यह घटक सुषुम्ना का-मेरुदण्ड का-नीचे वाला अन्तिम छोर है। प्रत्यक्ष हलचलों की दृष्टि से इस संस्थान का इतना विद्युतशक्ति का जो इस समूचे क्षेत्र के अति महत्त्वपूर्ण संस्थानों को प्रभावित एवं अनुप्राणित करती हैं। कंद का स्थूल शरीर में प्रतीक प्रतिनिधि तलाश करना हो तो दृष्टि “कार्डा इक्वाइना” पर जाकरटिकती हैं। मेरुदण्ड मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर चेचु की अन्तिम कशेरुका तक जाती हैं ओर उसकेबाद रेशमी धागों की भाँति शुण्डाकृति हो जाती हैं उसके अन्त में अगणित पतले -पतले धागे से पैदाहो जाते हैं, जिससे नाड़ी तन्तुओं का एक सघन गुच्छा तैयार हो जाता है। इसी गुच्छक को “कार्डाइक्वाँइना”कहते हैं। सूक्ष्म शरीर के ‘कन्द’ का इसे प्रतिनिधि कहा जा सकता है। शरीर शास्त्र कीदृष्टि से वही स्वयंभू लिंग है। मूलाधार चक्र में ‘आधार’ शब्द इसी स्थान के लिए व्यवहृत हुआ है। रीढ़ की अन्तिम चार अस्थियों के सम्मिलित समुच्चय को भी कई मनीषियों ने ‘कन्द’ बताया है। ................................................................................हर-हर महादेव
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