कुण्डलिनी में षठ चक्र और उनका भेदन [भाग -२]
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आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरामस्तिष्क का-दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायःइसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने केलिए नियोजित किये जाते हैं । साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं । झाड़ू झाड़न से कमरे की सफाईहोती है । इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करनेके लिए है । इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होताहै ।
इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोद का गड्डा करते हैं, इसके बाद ही दीवार चुनने केकाम में लग जाते हैं । इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और सृजन का दुहरा काम करते हैं । जोआवश्यक है उसे विकसित करने में वे कुशल माली की भूमिका निभाते हैं । यों आरंभ में जमीन जोतनेजैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिएहोता है ।
माली भूमि खोदने, खर-पतवार उखाड़ने, पौधे की काट-छाँट करने का काम करते समय ध्वंस मेंसंलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने, रखवाली करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी उपयोगहोता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचारक्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है ।
मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है ।इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है। ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यहसात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । लम्बी मंजिलेंपूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता । बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं । रेलगाड़ीगन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती-कोयला, पानी लेती चलती है । इन विराम स्थलों को'चक्र ' कहा गया है ।
चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत मेंचक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने सेवह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रोंमें फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप मेंभी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है ।
रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपने क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था । उन्होंने सात ताड़वृक्षों का एक बाण से वेधकर दिखाया था । इसे चक्रवेधन की उपमा दी जा सकती है । भागवत माहात्यमें धुन्धकारी प्रेत के बाँस की सात गाँठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथाहै । इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है ।
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं ।उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आनेपर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधनमिलने पर तो अनर्थ ही होता है । कुसंस्कारी संताने उत्तराधिकारी में मिली बहुमूल्य सम्पदा सेदुर्व्यसन अपनानी और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती हैं । छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेबर पहना देने सेउनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है ।
धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाईकरनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोधइसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके । मेरुदण्ड मेंअवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिएनितान्त आवश्यकता रहती है ।.......[क्रमशः ].....................................हर-हर महादेव
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