समझिये कुण्डलिनी महाशक्ति को [[भाग - २]]
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मल मूत्र छिद्रों के मध्य स्थान पर मूलाधार बताया गया है। उसे चमड़ी की ऊपरी सतह नहीं मानलेना चाहिए वरन् उस स्थान की सीध में ठीक ऊपर प्रायः तीन तीन अंगुल ऊँचाई पर अवस्थितसमझना चाहिए।
मस्तिष्क में आज्ञाचक्र भी भ्रूमध्य भाग में कहा जाता है पर यह भी ऊपरी सतहपर नहीं तीन अंगुल गहराई पर हैं ब्रह्मरंध्र भी खोपड़ी की ऊपरी सतह पर कहाँ है? वह भीमस्तिष्क के मध्य केन्द्र में है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार को भी मल-मूत्र छिद्रों के मध्य वाली सीधपर अन्तः गह्वर में अवस्थित मानना चाहिए। (यहाँ एक बात हजार बार समझ लेनी चाहिए किआध्यात्म शास्त्र में शरीर विज्ञान विशुद्ध रूप से सूक्ष्म शरीर का वर्णन है। स्थूल शरीर में तो उसकीप्रतीक छाया ही देखी जा सकती है। ) कभी किसी शारीरिक अंग को सूक्ष्म शरीर से नहीं जोड़नाचाहिए। मात्र उसे प्रतीक प्रतिनिधि भर मानना चाहिए। शरीर के किसी भी अवयव विशेष में वहदिव्य शक्तियाँ नहीं है जो आध्यात्मिक शरीर विज्ञान में वर्णन की गई है। स्थूल अंगों से उन सूक्ष्मशक्तियों का आभास मात्र पाया जा सकता है।
मूलाधार शब्द के दो खण्ड है। मूल+आधार। मूल अर्थात् जड़-बेस। आधार अर्थात् सहायक-सपोर्ट। जीवन सत्ता का मूल-भूत आधार होने के कारण उस शक्ति संस्थान को मूलाधार कहा जाता है। वहसूक्ष्म जगत में होने के कारण अदृश्य है। अदृश्य का प्रतीक चिह्न प्रत्यक्ष शरीर में भी रहता है। जैसेदिव्या दृष्टि के आज्ञा चक्र को पिट्यूटरी और पिनीयल रूपी दो आँखों में काम करते हुए देख सकतेहैं। ब्रह्मचक्र के स्थान पर हृदय को गतिशील देखा जा सकता है |नाभिचक्र के स्थान पर योनिआकृति का एक गड्ढा तो मौजूद ही है। मूलाधार सत्ता को मेरुदण्ड के रूप में देखा जा सकता है। अपनी चेतनात्मक विशेषताओं के कारण उसे वह पद, एवं गौरव प्राप्त होना हर दृष्टि से उपयुक्तहै। प्राण का उद्गम मूलाधार पर उसका विस्तार, व्यवहार और वितरण तो मेरुदण्ड माध्यम से हीसम्भव होता है।
मूलाधार के कुछ ऊपर और स्वाधिष्ठान से कुछ नीचे वाले भाग में शरीर शास्त्र के अनुसार ‘प्रास्टेटग्लेण्ड’ है। शुक्र संस्थान यही होता है। इसमें उत्पन्न होने वाली तरंगें काम प्रवृत्ति बन कर उभरतीहैं इससे जो हारमोन उत्पन्न होते हैं, वे वीर्योत्पादन के लिए उत्तरदायी होते हैं स्त्रियों का गर्भाशयभी यही होता है। सुषुम्ना के निचले भाग में लम्बर और सेक्रल प्लैक्सस नाड़ी गुच्छक है।जननेन्द्रियों की मूत्र त्याग तथा कामोत्तेजन दोनों क्रियाओं पर इन्हीं गुच्छकों का नियन्त्रण रहताहै। यहाँ तनिक भी गड़बड़ी उत्पन्न होने पर इनमें से कोई एक अथवा दोनों ही क्रियाएँ अस्त-व्यस्तहो जाती हैं बहुमूत्र, नपुंसकता, अतिकामुकता आदि के कारण प्रायः यही से उत्पन्न होते हैं। गर्भाशय की दीवारों से जुड़े हुए नाड़ी गुच्छक ही गर्भस्थ शिशु को उसके नाभि मार्ग से सभी उपयोगीपदार्थ पहुँचाते रहते हैं इन गुच्छकों को यह पहचान रहती है कि कितनी आयु के भ्रूण को क्या-क्यापोषक तत्त्व चाहिए। गर्भाशय के संवेदनशील नाड़ी गुच्छक उस अनुपात का-मात्रा का-पूरा-पूराध्यान रखते हैं और बिना राई रत्ती व्यतिक्रम किये शिशु की आवश्यकता पूरी करते रहतेहैं|.......................................................................................हर-हर महादेव
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