कुंडलिनी और षट्चक्र निरूपण
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कुण्डलिनी की तुलना विद्युत शक्ति, ऊर्जा एवं आभा से की गई है।
“तडिल्लता समरुचिर्विद्युल्लेखेव भास्वरा”
सूत्र में उसे बिजली की लता रेखा जैसी ज्योतिर्मय बताया गया है। उसी प्रकार अन्यत्र उसका उल्लेख
“तडिल्लेखा तन्वी तपनशशि वैश्वानारमयी”
के रूप में किया गया है। उसे प्रचण्ड अग्नि शिखा एवं दिव्य वैश्वानर के समतुल्य कहा गया है।
मूलाधारस्य ब्रह्मयात्म तेजो मध्ये व्यवस्थिता। जीव शक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाराय तैजसी॥ -योग कुण्डलल्पुपनिषद्
मूलाधार के मध्य वह आत्म तेज, ब्रह्म तेज रूपी कुण्डलिनी निवास करती है। वही जीव शक्ति,प्राण शक्ति है। वह तेज रूप है।
आधार शक्त्याबधृतः कालाग्निरयमूर्ध्वंगः। तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्ति पदास्पदः॥ -वृहज्जावालोपनिषद्
मूलाधार (चक्र) की शक्ति से धारण की हुई यह कालाग्नि ऊर्ध्वगामी है और उसी प्रकार सोमनिम्नगामी है, जो शिव शक्तिमय कहलाता है।
मूलाधारस्थ वहवयात्म. तेलो मध्ये व्यवस्थिता। जीवशक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी॥ -योग कुँडक उपनिषद्
कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नि तेज के मध्य में अवस्थित है। वह जीव की जीवनीशक्ति है। तेजस और प्राणाकार है।
मूलाधाराभिधं चक्रं प्रथमं समुदीरितम्। तत ध्येयं स्वरूप तु पावकाकारमुच्यते॥
स्वाधिष्ठानाभिधं चक्रं द्वितीय चोपरिस्थितम्। प्रवालाड्.कुर तुल्यं तु तत्र ध्येयं निगद्यते॥
तृतीयं नाभिचक्रे तु ध्येयं रूपं तडिन्निभम्। तुर्यें हृदयचक्रे तु ज्योतिलिंगा कृतीर्यते॥
पन्चमें कण्ठचक्रेतु सुषुम्ना श्वेतवर्णिनी। ध्येय षष्ठे तालुचक्रे शून्यचित्तलयार्थकम्॥
भ्रू चक्रे सप्तमे ध्येयं दीपाड्. गुष्टप्रमाणकम्। आज्ञाचक्रेऽष्टमे ध्येय रूपं धूम्रशिखाकृतिः॥
आकाशचक्रे नवमे परशुः स्वोद्ध्व शक्तिकः। एव क्रमेण चक्राणि ध्येयरूपाणि विद्धिचं॥
अखण्डैकरसत्वेन ध्येयस्यैक्येऽप्युपाधितः। आकारा विविधायुक्ता नोपाधिश्रवेतरः स्वतः॥
विद्याशक्ति विलासेन पावकात् विस्फुलिगंवत्। अकस्मात् ब्रह्मणोऽखण्डात् विविधाकृतयोऽभवन्॥-महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में आत्म ज्योति अग्नि रूप दीखती है। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुर-सी प्रतीतहोती है। मणिपुर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभिचक्र में वह बिजली जैसी चमकती है। हृदयकमल के अनाहत चक्र में वह लिंग आकृति की प्रतीत होती है। कठ चक्र में वह श्वेत वर्ण, तालु चक्रमें शून्याकार एकरस अनुभव में आती है। भू चक्र में अंगूठे के प्रमाण जलती हुई दीप शिखा जैसीभागती है। आज्ञाचक्र में धूम्र शिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते हुए परशु जैसी दीखती है।
यह सभी ज्योतियाँ एक ही है। सभी आत्म ज्योति हैं। सभी परम आनन्ददायिनी हैं। विद्या शक्तिकुण्डलिनी की क्रीड़ा से एक ही अग्नि की अनेक चिनगारियों की तरह यह अनेक तरह की प्रतीतहोती हैं।
अपाने चोर्ध्वगे गाते संप्राप्ते वहृनमण्डले। ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुना हत्ता॥
ततो यातौ वहृनयपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम्। तेनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा॥
तेन कुण्डलिनी सुप्ता संतप्ता सप्रबुध्यते। दन्डाहतभुजंगीव निश्वस्य ऋजुताँ ब्रजेत्॥ -योगकुण्डल्युपनिषद् 1।43,44,45
उस अग्नि मण्डल में जब अपान प्राण जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं।उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुण्डलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिसप्रकार फुफकार कर उठती है वैसे ही यह कुण्डलिनी भी जागृत होती है।
प्राणस्थानं ततो वह्नि प्राणापानौ च सत्वरम्। मिलित्वा कुण्डली यति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः॥
तेनाग्निना च सतप्ता पवनेनैव चालिता। प्रसाय स्वशरीरं तु सुषुम्नाबदनान्तरे॥ -योगकुण्डल्युपनिषद् 1।65,66
अग्नि स्थान में प्राण के पहुँचने से उष्णता से संतप्त कुण्डलिनी अपनी कुण्डली छोड़कर सीधी होजाती है और सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है।
योगिनाँ हृदयाम्भोजे नृत्यन्तौ नित्यमञजसा। आधारे सर्व्वभूतानाँ स्फुरन्ती विद्यदाकृतिः॥ -शारदातिलक
वह कुण्डलिनी शक्ति योगियों के हृदय में नृत्य ही नृत्य करती हैं। बिजली की तरह स्फुरण करती है।वही सम्पूर्ण प्राणियों का आधार है।
मूलाधारे स्मरेद्दिव्यं त्रिकोणं तेजसाँ निधिम्। शिखा आनीय तस्याग्नेरथ त्ध्य व्यवस्थिता॥
तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः। स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराट्॥
स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः। इति कुण्डलिनी ध्यात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ -कलिकोपनिषद्
मूलाधार में दिव्य त्रिकोण तेज-पुंज, ऊर्ध्वगामी तेज-शिखा के मध्य, परब्रह्म अवस्थित है। वह तेजही ब्रह्म, विष्णु, शिव, इन्द्र, अक्षर, काल, अग्नि, चन्द्रमा, प्राण आदि है। ऐसा कुण्डलिनी ध्यानकरना चाहिए।
ध्यात्वैतन्मूलचक्रान्तरविवरलसत्कोटिसूर्यप्रकाशाँ वाचामीशो नरेन्द्रः स भवति सहसासर्वविद्याविनोदी। आरोग्यं तस्य नित्यं निरवधि च महानन्दचित्तान्तरात्मा वाक्यैः काव्यप्रबन्धैःसकलसुरगुरुन् सेवते शुद्धशीलः। -षटचक्र निरूपणम 14
मूलाधार चक्र में कोटि सूर्य जैसे प्रकाश से युक्त कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान करने पर वाणी कीसिद्धि होती है, वह मनुष्यों का नेतृत्व करता है। विद्यावान् बनता है। आरोग्यवान् बनता है। चित्तमें आनन्द रहता है। ऐसा शीलवान साधक देवताओं द्वारा पूजित होता है।
निर्वाणाभ्यन्तरगता वह्निं रूपा निवोधिता। नारोऽव्यक्तस्त दुपरिकोट्यादित्य सन्निमा। अत्रैवकुण्डली शक्ति विहरेत विश्वव्यापिनी॥ -कौलामृत
वह कुण्डलिनी शक्ति अग्नि रूप है। कोटि सूर्य के समान चमकती है। वह परम शक्ति है। विश्व मेंविस्तृत विहार करती है।
मूलाधारे मूल विद्याँ विद्युत्कोटि सम प्रभाम्। -ज्ञानाणंव तन्त्र
मूलाधार चक्र में वह मूल विद्या कोटि विद्युत के समान चमकती है।
कोटि सौदामिनीभासाँ स्वयंभू लिंग वेष्टिनामू। -तन्त्रसार
स्वयंभू लिंग में लिपटी हुई वह कुण्डलिनी शक्ति कोटि विद्युत की तरह चमकती है।
हिमाचल प्रदेश में ज्वालामुखी पर्वत पर निकलने वाली अग्नि शिखा को देव स्थान की शक्ति पीठमाना गया है। वहाँ आराधना, उपासना के लिए दूर-दूर से भक्त जना जाते हैं। अग्नि ज्वाला को दैवीशक्ति मानने के पीछे यह कुण्डलिनी अग्नि का ही तारतम्य है। यज्ञाग्नि में अग्निहोत्र करने, धृतधारा चढ़ाने के पीछे भी अग्नि एवं सोम के संयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन है। ब्रह्माग्नि औरआत्माग्नि के संयोग को कुण्डलिनी साधना कहा गया है।
अग्नि की उत्पत्ति का स्कन्द पुराण में एक मनोरंजक उपाख्यान आता है। सनत्कुमार कीअग्निजन्य जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि व्यास कहते हैं-प्रजापति ने सृष्टि के आदि मेंदिव्य शत वर्षों की अवधि तक महान तप किया। इसमें ‘भूः भुवः स्वः शब्द उत्पन्न हुआ। इसकामन के साथ समावेश होने से अग्नि उत्पन्न हुई। वह नीचे गिरा तो भूमि जलने लगी, ऊपर उठी तोआकाश जलने लगा। वह शब्द रूप स्फुल्लिंगों से युक्त, स्वर्णिम आभा वाला परम दिव्य था।
अग्नि ने ब्रह्माजी से कहा-’मैं भूख से स्वयं जला जा रहा हूँ। मुझे आहार दीजिए।’ ब्रह्माजी ने अपनेशरीर के एक-एक करके सभी अवयव उसे खिला दिये। तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई और भूखा-भूखाही चिल्लाता रहा। कोई और उपाय न देखकर ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा-जो व्यक्ति कामुकता सेअभिभूत हो तो उनकी देह में घुस जा और उनकी समस्त धातुओं का भक्षण किया कर।
रोरुयमणि चाग्नौ तु पुनर्ब्रह्मा कृपान्वितः आह कामाभि भूतानाँ भुक्ष्व त्वं देह धातवः। ते काले लब्धकामस्य सावृत्तिः सम्प्रकल्पिता। -स्कन्द पुराण
रुदन करते हुए अग्नि से ब्रह्माजी ने कृपा पूर्वक कहा तू कामुकों के शरीर में घुल कर उनके धातुसंस्थान को खालिमा कर।
अग्नि ऐसा ही करने लगा किन्तु तो भी उसकी तृप्ति न हुई। इस पर ब्रह्माजी ने उसे मुनियों औरदेवताओं के अन्तःकरण में प्रवेश करने के लिए कहा। तब कहीं अग्नि की तृप्ति हुई और शान्तिमिली।
ब्रह्मातमाहत्वमपि यथेष्टाँ वृत्तिमाश्रय। देवमध्ये वहिर्वापि मुनीनामश्रयेष च। इत्येव मुक्त स्तेनाशुवृत्ति मेताम रोचयेत्॥
तब ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा- तू ऋषियों के आश्रम में रह। देवों के भीतर और बाहर निवास कर।इस आदेश को प्राप्त कर अग्नि प्रसन्न हुआ और सन्तोष पूर्व रहने लगा।
यही जीवन सत्ता में ओत-प्रोत प्राण शक्ति-कालाग्नि एवं कामाग्नि है। इसको अधोगामी बनाने सेमनुष्य जलता और गलता है। किन्तु यदि उसे ऊर्ध्वगामी बना लिया जाय तो वही ब्रह्म तेजस् बनकर योगाग्नि एवं प्राणाग्नि बनकर प्रज्वलित होती है। जीव को परम तेजस्वी बनाती है उसे लौकिक,भौतिक एवं आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न बनाती है। महाशक्ति कुण्डलिनी का स्तवन करते हुएशक्ति उपासक तत्त्ववेत्ता की अभिव्यक्ति हैं-
मेरुदण्डे वह्निना शब्दात् पदं तेजोमयोति च। सिद्धिः प्राप्ति पदात् सिद्धिः सर्वकाम पदात् पुनः।सर्वेशा परिपूरेति चक्र स्वामिनीति च। अबु्रवन् परुषं किचद् असतोऽनर्चयंस्तथा॥
सर्व मन्त्रमयीत्युक्ता सर्व द्वन्द्व क्षयकारी। सर्व सौभग्यदाचेति सर्व विघ्न निवारिणी।सर्वज्ञानमयो त्युक्तत्त्वा सर्व व्याधि विनाशिनी। सर्व नन्दमयी देवि, सर्व रक्षा स्वरूपिणी। महाशक्तेमहागुप्ते ततश्रवैव महा-महा। कुल कुण्डलिनी देवि, कन्दे मूले निव सिनी। -स्तोत्र समुच्चय
मेरुदण्ड में अग्नि रूप, शब्द पद, तेजोमयी, सिद्धि प्रदान करने वाली, काम पद, सर्वव्यापक, चक्रसंस्थानों की स्वामिनी, गुप्त योनि, काम शक्ति, अनग मेखला, समस्त मन्त्रों की शक्ति युक्त,समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाली, आनन्दमयी संरक्षक, महाशक्ति, रहस्यमयी, महानतम कुलकुण्डलिनी देवी, कन्द मूल में निवास करती है।..............................................हर-हर महादेव
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