Friday, 14 June 2019

ज्योतिर्लिंग श्री केदार नाथ जी;[Kedarnath Ji]

ज्योतिर्लिंग जय श्री केदार नाथ जी
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उत्तरांचल प्रांत में यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर अवस्थित है l इस चोटी की पूर्व दिशा में कल-कल करती उछलती अलकनंदा नदी के परम पावन तट पर भगवान बद्री विशाल का पवित्र देवालय स्थित है तथा पश्चिम में पुण्य सलिला मंदाकिनी नदी के किनारे भगवान श्री केदारनाथ विराजमान हैं। अलकनन्दा और मंदाकिनी उन दोनों नदियों का पवित्र संगम रूद्र प्रयाद में होता है और वहाँ से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में गंगा से संगम करती हैं। देवप्रयाग में गंगा उत्तराखण्ड के पवित्र तीर्थ गंगोत्री से निकलकर आती है। देवप्रयाग के बाद अलकनन्दा और मंदाकिनी का अस्तित्त्व विलीन होकर गंगा में समाहित हो जाता है तथा वहीं गंगा प्रथम बार हरिद्वार की समतल धरती पर उतरती हैं। भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। 
 इस ज्योतिर्लिंग की कथा के अनुसार --- इसी भूमि पर महा तपस्वी श्री नर और नारायण ने बहुत वर्षों तक भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की l कई हज़ार वर्षों तक वे निराहार रह कर एक पैर पर खड़े होकर शिव नाम का जप करते रहे l अंत में भगवान् शिव उनकी कठिन साधना से प्रसन्न हो उठे l उन्होंने इन ऋषियों को दर्शन दिए l दर्शन पाने के पश्चात् वर मांगने को कहा l इस पर ऋषियों नर व नारायण ने कहा कि कल्याण के लिए आप सदा सर्वदा के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें l उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप वहां वास करना स्वीकार किया, तभी से वहां भगवान् शिव विराजमान हैं | केदारखण्ड में द्वादश ज्योतिर्लिंग में आने वाले केदारनाथ दर्शन के सम्बन्ध में लिखा है कि जो कोई व्यक्ति बिना केदारनाथ भगवान का दर्शन किये यदि बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है, तो उसकी यात्रा निष्फल अर्थात् व्यर्थ हो जाती है|
एक अन्य कथा के अनुसार जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया और पाण्डव विजयी हो गये | युद्ध समाप्त होने के बाद जब पाण्डवों ने उस पर विचार मन्थन किया, तो वे दु:ख से अत्यन्त व्याकुल हो उठे। उन्होंने स्वयं अपने ही हाथों अपने सगे-सम्बन्धियों तथा कुल के लोगों का नाश कर डाला था। पाण्डवों ने आत्मकुल-नाश और गोत्र-हत्या के पाप से पीछा छुड़ाने हेतु अर्थात् मुक्ति प्राप्त करने हेतु वेदव्यास जी से प्रायश्चित का विधान जानना चाहा। व्यास जी ने उन पाण्डवों को बताया कि संसार में सबका भला होता देखा गया है, किन्तु अपने वंश की हत्या करने वाले कुलघाती का कभी कल्याण नहीं होता है। उन्होंने कहा कि यदि तुम लोग इस पाप से मुक्त होना चाहते हो, तो केदार क्षेत्र में जाकर भगवान केदारनाथ का दर्शन और पूजा करो। केदारेश्वर शिवलिंग के दर्शन के बिना तुम लोगों को मुक्ति नहीं मिलेगी। व्यास जी से निर्देश और उपदेश ग्रहण कर प्रसन्नचित्त पाण्डव भगवान शिव के दर्शन हेतु तीर्थयात्रा पर निकल पड़े।
पाण्डव सर्वप्रथम काशी की यात्रा पर श्री विश्वनाथ जी भोलेनाथ का दर्शन करने हेतु पहुँचे, किन्तु इन कुलघाती पापियों को भगवान शिव प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देना चाहते थे। इसलिए पाण्डव निराश होकर श्री व्यास जी द्वारा निर्देशित केदार क्षेत्र की ओर मुड़ गये। इन्हें केदारखण्ड में आते देख भगवान शंकर गुप्तकाशी में जाकर अन्तर्धान हो गये। उसके बाद कुछ दूर और आगे जाकर महादेव जी ने एक भैंसे का रूप धारण किया और विचरण करने लगे। पाण्डव दल को इस प्रकरण का ज्ञान आकाशवाणी के द्वारा हो गया। जब भगवान शिव ने पाण्डवों के मन की बात जान ली, तब वे भैंसा रूपी शिव भूमिगत होने के लिए दलदली धरती में धँसने लगे। महान् बलशाली और पराक्रमी भीम ने भैंसा रूपी शिव की पूँछ पकड़ ली। इसी परिस्थिति में अन्य सभी पाण्डव करुणापूर्वक क्रन्दन करते हुए विविध प्रकार से भगवान भोलेनाथ श्री केदारेश्वर की स्तुति करने लगे।
उनकी श्रद्धा-भक्ति और स्तुति से आशुतोष भगवान शिव प्रभावित होकर उन पर प्रसन्न हो गये। उन पाण्डवों की प्रार्थना पर भैंसा के पृष्ठभाग (पीठ) के यप में सर्वदा के लिए शंकर जी वहीं स्थित हो गये, जिनकी पूजा पाण्डवों ने विधिपूर्वक की। वहाँ पर भी पाण्डवों को नभ वाणी सुनाई पड़ी– 'पाण्डवों! मेरी इस पूजा से तुम्हारे सकल मनोरथ सिद्ध हो जाएँगें।' शिव को भैंसा के पृष्ठ के रूप में पूजन कर पाण्डव गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हो गये। इसी कथा के आधार पर केदार घाटी में पाँच स्थानों पर पाँच केदार का दर्शन-पूजन करने का प्रचलन है। भैंसा रूपी शिव के अंगों के आधार पर ये केदार-स्थान इस प्रकार हैं -केदारनाथ प्रमुख तीर्थ में भैंसा की पीठ के रूप में।मध्य महेश्वर में उसकी नाभि के यप में।तुंगनाथ में उसकी भुजाएँ और ह्रदय के रूप में।रुद्रनाथ में मुख के रूप में औरकल्पेश्वर में जटाओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
केदारेश्वर (केदारनाथ) ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मन्दिर का निर्माण पांडवों ने कराया था, जो पर्वत की 11750 फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। पौराणिक प्रमाण के अनुसार ‘केदार’ महिष अर्थात् भैंसे का पिछला अंग (भाग) है। केदारनाथ मन्दिर की ऊँचाई 80 फुट है, जो एक विशाल चौकोर चबूतरे पर खड़ा है। इस मन्दिर के निर्माण में भूरे रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है। सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि, यह भव्य मन्दिर प्राचीन काल में यान्त्रिक साधनों के अभाव में ऐसे दुर्गम स्थल पर उन विशाल पत्थरों को लाकर कैसे स्थापित किया गया होगा? यह भव्य मन्दिर पाण्डवों की शिव भक्ति, उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति तथा उनके बाहुबल का जीता जागता प्रमाण है।इस मन्दिर में उत्तम प्रकार की कारीगरी की गई है। मन्दिर के ऊपर स्तम्भों में सहारे लकड़ी की छतरी निर्मित है, जिसके ऊपर तांबा मढ़ा गया है। मन्दिर का शिखर भी ताँबे का ही है, किन्तु उसके ऊपर सोने की पॉलिश की गयी है। मन्दिर के गर्भ गृह में केदारनाथ का स्वयंमभू ज्योतिर्लिंग है, जो अनगढ़ पत्थर का है। यह लिंगमूर्ति चार हाथ लम्बी तथा डेढ़ हाथ मोटी है, जिसका स्वरूप भैंसे की पीठ के समान दिखाई पड़ता है। इसके आस-पास सँकरी परिक्रमा बनी हुई है, जिसमें श्रद्धालु भक्तगण प्रदक्षिणा करते हैं। इस ज्योतिर्लिंग के सामने जल, फूल , बिल्वपत्र आदि को चढ़ाया जाता है और इसके दूसरे भाग में यात्रीगण घी पोतते हैं। भक्त लोग इस लिंगमूर्ति को अपनी बाँहों में भरकर भगवान से मिलते भी हैं।
केदारनाथ का आसमान पहले धुला हुआ चटख नीला हुआ करता था लेकिन आजकल ये आसमान मटमैला या घूसर नजर आ रहा है। जैसे नीचे जमीन का अक्स आसमान पर पड़ने लगा है। जमीन पर चारों तरफ मटमैला रंग है, स्लेटी रंग की चट्टानें हैं- मिट्टी है और मौत। एक हजार साल पुराना ये मंदिर न जाने कितने बदलाव देख चुका है। मंदिर की 150 साल पुरानी तस्वीरें बताती हैं कि किस तरह इंसान ने कुदरत को मुंह चिढ़ाया, कैसे भक्ति के नाम पर, आस्था के नाम पर केदारनाथ में लालच की गंगा बहा दी, ऐसी अति की कि विनाश हो गया।........[ अगला अंक - छठा ज्योतिर्लिंग - श्री भीमेश्वर जी ].......................................................हर-हर महादेव 

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