पाशुपत शैव सम्प्रदाय [Pashuapat Shaiva]
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पाशुपत सम्प्रदाय शैव धर्म की एक शाखा है। यह सम्प्रदाय शिव को सर्वोच्च शक्ति मानकर उपासना करने वाला सबसे पहला हिन्दू सम्प्रदाय है। बाद में इसने असंख्य उपसम्प्रदायों को जन्म दिया, जो गुजरात और महाराष्ट्र में कम से कम 12वीं शताब्दी तक फला-फूला तथा जावा और कंबोडिया भी पहुंचा। पाशुपत सम्प्रदाय ने पाशुपत नाम शिव की एक उपाधि पशुपति से लिया है, जिसका अर्थ है 'पशुओं के देवता', इसका अर्थ बाद में विस्तृत होकर 'प्राणियों के देवता' हो गया। सम्पूर्ण जैव जगत् के स्वामी के रूप में शिव की कल्पना इस सम्प्रदाय की विशेषता है। यह कहना कठिन है कि, सगुण उपासना का शैव रूप अधिक प्राचीन है अथवा वैष्णव |विष्णु एवं रूद्र दोनों वैदिक देवता हैं। परन्तु दशोपनिषदों में परब्रह्म का तादात्म्य विष्णु के साथ दिखाई पड़ता है। श्वेताश्वतर उपनिषद में यह तादात्म्य शंकर के साथ पाया जाता है। श्रीमद्भागवत गीता में भी 'रुद्राणां शंकर श्चास्मि' वचन है। यह निर्विवाद है कि वेदों से ही परमेश्वर के रूप में शंकर की उपासना आरम्भ हुई। यजुर्वेद में रुद्र की विशेष स्तुति है। यह यज्ञसम्बन्धी वेद है और यह मान्यता है कि क्षत्रियों में इस वेद का आदर विशेष है। धनुर्वेद यजुर्वेद का उपागं है। श्वेताश्वतर उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की है। अर्थात् यह स्पष्ट है कि क्षत्रियों में यजुर्वेद और शंकर की विशेष उपासना प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने के योग्य है कि क्षत्रिय युद्धादि कठोर कर्म किया करते थे, इस कारण उनमें शंकर की भक्ति रुढ़ हो गई। महाभारत काल में पांचरात्र मत के समान तत्त्वज्ञान में भी पाशुपत मत को प्रमुख स्थान मिल गया।
महाभारत में पाशुपत
सम्प्रदाय का उल्लेख है। शिव को ही इस व्यवस्था का प्रथम गुरु माना गया है। बाद के साहित्य, जैसे वायु पुराण और लिंग पुराण में वर्णित
जनश्रुतिओं के अनुसार शिव ने स्वयं यह रहस्योद्घाटन किया था की विष्णु के वासुदेव कृष्ण के रूप में अवतरण के दौरान वह भी प्रकट होंगे।
शिव ने संकेत दिया कि वह एक मृत शरीर में प्रविष्ट होंगे और लकुलिन (या नकुलिन अथवा लकुलिश, लकुल का अर्थ है गदा) के रूप में अवतार लेंगे। 10वीं तथा 13वीं शताब्दी के अभिलेख इस जनश्रुति का समर्थन
करते प्रतीत
होते हैं, चूंकि उनमें लकुलिन
नामक एक उपदेशक का उल्लेख
मिलता है, जिनके अनुयायी उन्हें
शिव का एक अवतार मानते थे।
पाशुपत तत्त्वज्ञान शान्तिपर्व के 249वें अध्याय में वर्णित है। महाभारत में विष्णु
की स्तुति
के बाद बहुधा शीघ्र ही शंकर की स्तुति
आती है। इस नियम के अनुसार नारायणीय उपाख्यान के समान पाशुपत मत का सविस्तार वर्णन महाभारत, शान्तिपर्व के 280 वें अध्याय में आया है। 284 वें अध्याय में विष्णु स्तुति के पश्चात् दक्ष द्वारा शंकर की स्तुति की गई है। इस समय शंकर ने दक्ष को 'पाशुपतव्रत' बतलाया है। इस वर्णन से पाशुपतमत की कल्पना की गई है। इस मत में पशुपति सब देवों में मुख्य हैं। वे ही सारी सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं। पशु का अर्थ समस्त सृष्टि है, अर्थात् ब्रह्मा से स्थावर तक सब पदार्थ। उनकी सगुण भक्ति करने वालों में कार्तिकेय स्वामी, पार्वती और नन्दीश्वर भी सम्मिलित किये जाते हैं। शंकर अष्टमूर्ति हैं, उनकी मूर्तियाँ हैं-पंच महाभूत, सूर्य , चन्द्र और पुरुष। अनुशासन पर्व में उपमन्युचरित्र के साथ इस मत के विकास का थोड़ा सा आख्यान
दृष्टिगोचर होता है।
पाशुपत तथा पाचंरात्र मत में अति सामीप्य है। दोनों के मुख्य दार्शनिक आधार संख्या
दर्शन तथा योग दर्शन हैं। शैव धर्म के सम्बन्ध में एक बात और ध्यान देने योग्य है, कि पाशुपत ग्रन्थों में लिंग को अति अर्चनीय बतलाया गया है। आज भी शैव लिंग पूरक हैं। ऋग्वेद के शिश्नदेव शब्द से इसके प्रचार
की झलक मिलती है। सम्भवत: भारत के आदिवासियों में प्रचलित धर्म से इसका प्रारम्भ माना जा सकता है। हिन्दुओं के द्वारा
लिंगार्चन मूर्तियों और मन्दिरों में पहले से ही प्रवर्तित था, किन्तु ब्राह्मणों द्वारा
इसे ई. सन् के बाद मान्यता प्राप्त हुई। पाशुपत मत के गठन के समय तक लिंगपूजा को मान्यता मिल चुकी थी। अथर्वशिरस-उपनिषद
में पाशुपत
प्रकरण का समकालीन ही है। रुद्र पशुपति को इसमें सभी पदार्थों का प्रथम तत्त्व बताया गया है तथा वे ही अन्तिम लक्ष्य
हैं। यहाँ पर पति, पशु और पाश तीनों का उल्लेख
है तथा 'ओम्' के उच्चारण के साथ योग साधना को श्रेष्ठ बताया गया है। इसी समय की तीन और पाशुपत उपनिषदें हैं-'अथर्वशरस्', 'नीलरुद्र' तथा 'कैवल्य'।
पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्त संक्षेप में इस प्रकार से हैं-जीव की संज्ञा 'पशु' है। अर्थात् जो केवल जैव स्तर पर इन्द्रियभोगों में लिप्त रहता है, वह पशु है। भगवान शिव पशुपति
हैं। उन्होंने बिना किसी बाहरी कारण, साधन अथवा सहायता
के इस संसार का निर्माण किया है। वे जगत् के स्वतंत्र कर्ता हैं। हमारे कार्यों के भी मूल कर्ता शिव ही हैं। वे समस्त कार्यों के कारण हैं। संसार के मल-विषय आदि पाश हैं, जिनमें जीव बंधा रहता है। इस पाश अथवा बन्धन से मुक्ति शिव की कृपा से ही प्राप्त होती है। मुक्ति दो प्रकार की है, सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमैश्वर्य की प्राप्ति। द्वितीय भी दो प्रकार की हैं, दृक्-शक्तिप्राप्ति और क्रिया-शक्तिप्राप्ति। दृक्-शक्ति से सर्वज्ञता प्राप्त होती है। क्रियाशक्ति से वांछित पदार्थ तुरन्त
प्राप्त होते हैं। इन दोनों शक्तियों की प्राप्ति ही परमैश्वर्य है। केवल भगवद्दासत्व की प्राप्ति मुक्ति नहीं बन्धन है।
पाशुपत द्वारा अंगीकृत की गई योग प्रथाओं में दिन में तीन बार शरीर पर राख मलना, ध्यान लगाना और शक्तिशाली शब्द ‘ओम’ का जाप करना शामिल है। इस विचारधारा की ख्याति को तब धक्का लगा, जब कुछ रहस्यवादी प्रथाओं में अति की जाने लगी। पाशुपत सिद्धांत से दो अतिवादी विचारधाराएं, कालमुख और कापलिक
के साथ-साथ एक मध्यम सम्प्रदाय, शैव (जो सिद्धांत विचारधारा भी कहलाता
है), का विकास हुआ। अधिक तार्किक तथा स्वीकार्य शैव से, जिसके विकास से आधुनिक शैववाद का उदय हुआ, भिन्न विशिष्टता बनाए रखने के लिए पाशुपत तथा अतिवादी सम्प्रदाय अतिमार्गिक (मार्ग से भटकी हुई विचारधारा) कहलाती है।
पशुपति दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम तीन प्रमाण माने जाते हैं। धर्मार्थसाधक व्यापार को विधि कहते हैं। विधि दो प्रकार की होती है-व्रत और द्वार। भस्मस्नान, भस्मशयन, जप, प्रदक्षिणा , उपवास आदि व्रत हैं। शिव का नाम लेकर हहाकर हँसना, गाल बजाना, गाना, नाचना, जप करना आदि उपहार हैं। व्रत एकान्त में रहना चाहिए। 'द्वार' के अंतर्गत क्राथन (जगते हुए भी शयनमुद्रा), स्पन्दन (वायु के झोंके के समान हिलना), मन्दन (उन्मत्तवत् व्यवहार करना), श्रृंगारण (कामार्त न होते हुए भी कामातुर के समान व्यवहार करना), अवित्करण (अविवेकियों की तरह निषिद्ध व्यवहार करना) और अविदभाषण (अर्थहीन और व्याहत शब्दों का उच्चारण), ये छ: क्रियाएँ सम्मिलित हैं।..............................................................हर हर महादेव
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