दसनामी सम्प्रदाय ,नागा साधू और शंकराचार्य
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दशनामी संन्यासी हिन्दू शैव तपस्वियों का एक सम्प्रदाय है, जिसकी स्थापना आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य द्वारा
की गई थी। इस सम्प्रदाय के संन्यासी विशेष प्रकार
के गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं। दशनामी संन्यासी कट्टर स्वभाव
के होते हैं और प्राय: निर्वसन का जीवन व्यतीत करते हैं। 'दशनामी संन्यासी' शंकराचार्य द्वारा
स्थापित 10 सम्प्रदायों ('दशनाम'- 10 नाम) से संबंधित हैं। 10 सम्प्रदाय निम्नलिखित हैं- अरण्य ,आश्रम ,भारती ,गिरी ,पर्वत ,पूरी ,सरस्वती ,सागर ,तीर्थ ,वन
प्रत्येक सम्प्रदाय शंकराचार्य द्वारा भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम
भाग में स्थापित चार मठों के साथ संबंधित हैं। ये मठ हैं- ज्योति (जोशी) मठ (हरिद्वार के निकत बद्रीनाथ, उत्तरांचल) श्रंगेरी मठ (कर्नाटक) गोवर्धन मठ (पुरी, उड़ीसा) शारदा मठ (द्वारका, गुजरात) मठों के प्रमुखों को 'महंत' कहते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि 'श्रंगेरी मठ' के प्रमुख को 'जगद्गुरु' कहा जाता है। सिद्धांतों के बारे में महंतों से परामर्श किया जाता है और आम हिन्दू तथा उनके अनुयायी तपस्वी उन्हें
सर्वाधिक सम्मान
देते हैं। 'दशनामी संन्यासी' विशेष प्रकार
के गेरुआ वस्त्र पहनते हैं और यदि प्राप्त कर सकें तो अपने कंधे पर बाघ या शेर की खाल का आसन रखते हैं। वह माथे तथा शरीर के अन्य भागों पर श्मशान की राख से तीन धारियों का तिलक लगाते हैं और गले में 108 रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। वे अपनी दाढ़ी बढ़ने देते हैं और बाल खुले रखते हैं, जो कंधों तक आते हैं या उन्हें सिर के ऊपर बांधते हैं।
कुछ कट्टर दशनामी निर्वसन का जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें नागा (नग्न) संन्यासी कहा जाता हैं और वह तपस्वियों में सबसे अधिक उग्र होते हैं। पुराने समय में नागा संन्यासी अन्य मतों, हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के साथ युद्ध में उलझ जाया करते थे। एकदण्डी शंकराचार्य द्वारा स्थापित दस्नामी सन्यासियों में से एक हैं। 'दसनामी सन्न्यासियों' में से प्रथम तीन (तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती) विशेष सम्मानीय माने जाते हैं। दसनामी सन्न्यासियों के प्रथम तीन में केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित हो सकते हैं। शेष सात वर्गों में अन्य वर्णों के लोग भी आ सकते हैं, किन्तु दंड धारण करने के अधिकारी ब्राह्मण ही हैं। इन सन्न्यासियों का दीक्षाव्रत इतना कठिन होता है कि बहुत से लोग दंड के बिना ही रहना पसन्द करते हैं। इन्हीं सन्न्यासियों को 'एकदण्डी' कहा जाता है। एकदण्डी सन्न्यासियों के विरुद्ध श्रीवैष्णव संन्यासी, जिनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित होते हैं, 'त्रिदण्ड' धारण करते हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए इन्हें 'एकदण्डी' तथा 'त्रिदण्डी' नामों से पुकारा जाता है।........................................................हर हर महादेव
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