नाथ संप्रदाय के यम और नियम
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सिद्ध- योगि , दरसनी योगी या कनफटा योगी के नाम से प्रसिद्ध सभी साधू नाथ सम्प्रदाय से है! योगी का लक्ष्य नाथ या स्वामी होना है ! नाथ योगी यम और नियम के दस प्रकार मानते है:-
यम
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१. अहिंसा – सभी जीवो के लिये ! कर्म से, मन से, वचन से , किसी भी जीव के लिये शत्रुभाव नही ! २.सत्यता – वाणी मे ही नही, विचार और आचार मे भी !
३.चोरी ना करना - क्रिया से ही नही, विचार से और इच्छा से भी नही | दुसरे का किसी भी प्रकार से अनुचित लाभ नही उठाना |
४. सभी प्रकार की विष्यासक्तियो और विशेषत योनेच्छा पर पूर्ण नियंत्र्ण तथा शारीरिक और मानसिक शक्तियो का संचय !
५. क्षमा – दूसरे के दोषो को क्षमा करना ! यदी दुसरे किसी अन्य साधू या साधक के साथ बुरा व्यवहार करते हो तो भी बदले की ना सोचना ! कोई शिकायत नही |
६. धेर्य और सहनशीलता – योगी को कठिन परिस्थिति का अभ्यास होना चाहिये ! कभी भी भ्रम , दुर्बलता और परेशानी की स्थिति मे नही होना चाहिये ! हर समय धेर्य और सहनशीलता बनाये रखे |
७. दया –आपत्ती पर पडे हुए सभी जीवो और व्यक्तियो के प्रती दया भाव ! एक साधक को सभी जीवो के प्रती दया भाव रखना चाहिये | सभी के साथ एकता और सभी की सेवा की इच्छा रखनी चाहिये |
८. जीवन मे सरलता – योगी के जीवन मे बनावट , छल और कुटिलता नही होनी चाहिये ! उसके निवास मे, भोजन मे, वस्त्र मे व्यवहार मे किसी प्रकार की जटिलता नही होनी चाहिये |
९. मिताहार – योगी को सदैव याद रखना चाहिये की भोजन शरीर रक्षा और पोषण के लिये है ना की रसना के स्वाद के लिये और न इच्छाओ की तुष्टी के लिये |
१०. शरीर और मन की पवित्रता – शरीर के विभिन्न अंगो को स्वच्छ रखना, शुद्धवायु, शुद्धजल और शुद्ध भोजन ग्रहण करना चाहिये ! सत्संग करना और स्वस्थ का ध्यान रखना, मन और विचारो की शुद्धता का ध्यान रखना चाहिये |
नियम
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१. तप – आत्मसयम का अभ्यास ! हर प्रकार से अपने को ढाल लेना ! रूखा सूख भोजन , ठंड गर्मी सहना वस्त्र या बिना वस्त्र के रहना सभी सुखो और विषयों पर विजय पा लेना ही तप है ! हर हालत मे प्रसन्न रहना तप है |
२. संतोष – जो प्राप्त हो उसी मे संतोषकरने का अभ्यास ही संतोष है ! हर प्रकार के लोभ, संसारिक वस्तुओ की प्राप्ती की कामना और जो लोग वैभव का भोग कर रहे हो उनसे जलन की भावना से मन को विरक्त रखना चाहिये ! नैतिक और आध्यात्मिक विकास की ओर चलना चाहिये |
३. आस्तिक्य – गुरू पर , वेदो पर , और वर्तमान तथा प्राचीन महत्माओ पर विश्वास का अभ्यास करना चाहिये |
४. दान – यहा दान का मतलब उदारता से है | दयालुता, ह्रदय की विशालता , और सहानभूती की भावना ही दान है ! भौतिक वस्तुये ही आध्यात्मिक मार्ग मे सबसे बडी रुकावटे है |
५. ईश्वर पूजा – शास्त्र विधि से, प्रेम से आदर से भक्ती से उपासना ही ईश्वर पूजा है ! परमात्मा सभी नामो मे है !किसी प्रकार की संकीर्णता हढधर्मी या धार्मिक उन्माद को नाथ कभी प्रोत्साहन नही देता!
नाथ के लिये शिव योग साधना का द्वार है, गुरू है, वही परम व्यक्तित्व है पर हर धर्म के लिये समभाव है |
६. वाक्य मनन – शास्त्रो का क्रमपूर्ण अध्ययन ही मनन है | गुरू से सत्य समझना और पूर्ण प्रकाश की ओर बडना चाहिये | पूर्वाग्रह , बूरी धारणा , संकीर्णता , अंधविश्वास तथा साम्प्रदायिक हठधर्मिता को मन से निकाल देना और शिव , सत्य, सुन्दर का अनुसन्धान सच्चे दिल से करना चाहिये |
७. ह्रीं- मतलब की किसी बुरे या दुषित कार्य करने से, नैतिक मर्ग से हटने , मन मे बुरे विचार, भावना या इच्छा बनाये रखने से, असत्य, हानीप्रद या हिंसात्मक शब्द कथन से होने वाले पश्चाताप और लज्जा से है | किसी के चरित्र पर गलत प्रभाव डालने वाली वस्तू से घोर घ्रिणा की भावना के जगने का अभ्यास भी ह्री है
८. मुक्ति – का ईशारा कुशाग्र बुद्धी गहन बोध और रूची और जीवन मे आध्यात्मिक मुल्य के प्रती विवेक पूर्ण झुकाव से है ! साफ मन , विमल , विचारशील और सत्य को समाने के लिय मुक्त होना चाहिये ।।
९. जप – भक्ती और श्रद्धा से लगातार भगवान के नाम को लेना ही जप है ! भगवान का नाम ईश्वर का जीवित शाब्दिक प्रतीक होना चाहिये ! जप से ही भक्त भगवान से सम्बन्ध बना कर रखता है ! प्रयत्न होना चाहिये की गूरू से कोई पवित्र नाम मिले ! गूरू द्वारा प्राप्त नाम शक्ती युक्त होता है।।
१०. होम – साधक द्वारा भक्ती भावना पूर्वकभोजन , जल तथा मुल्यवान वस्तुये भगवान को अर्पित करना ही होम है ! यह नित्य प्रती का समर्पण है ! पहले ईश्वर को समर्पित करना चाहिये फिर उसी समग्री को प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिय |.................................................................हर-हर महादेव
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सिद्ध- योगि , दरसनी योगी या कनफटा योगी के नाम से प्रसिद्ध सभी साधू नाथ सम्प्रदाय से है! योगी का लक्ष्य नाथ या स्वामी होना है ! नाथ योगी यम और नियम के दस प्रकार मानते है:-
यम
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१. अहिंसा – सभी जीवो के लिये ! कर्म से, मन से, वचन से , किसी भी जीव के लिये शत्रुभाव नही ! २.सत्यता – वाणी मे ही नही, विचार और आचार मे भी !
३.चोरी ना करना - क्रिया से ही नही, विचार से और इच्छा से भी नही | दुसरे का किसी भी प्रकार से अनुचित लाभ नही उठाना |
४. सभी प्रकार की विष्यासक्तियो और विशेषत योनेच्छा पर पूर्ण नियंत्र्ण तथा शारीरिक और मानसिक शक्तियो का संचय !
५. क्षमा – दूसरे के दोषो को क्षमा करना ! यदी दुसरे किसी अन्य साधू या साधक के साथ बुरा व्यवहार करते हो तो भी बदले की ना सोचना ! कोई शिकायत नही |
६. धेर्य और सहनशीलता – योगी को कठिन परिस्थिति का अभ्यास होना चाहिये ! कभी भी भ्रम , दुर्बलता और परेशानी की स्थिति मे नही होना चाहिये ! हर समय धेर्य और सहनशीलता बनाये रखे |
७. दया –आपत्ती पर पडे हुए सभी जीवो और व्यक्तियो के प्रती दया भाव ! एक साधक को सभी जीवो के प्रती दया भाव रखना चाहिये | सभी के साथ एकता और सभी की सेवा की इच्छा रखनी चाहिये |
८. जीवन मे सरलता – योगी के जीवन मे बनावट , छल और कुटिलता नही होनी चाहिये ! उसके निवास मे, भोजन मे, वस्त्र मे व्यवहार मे किसी प्रकार की जटिलता नही होनी चाहिये |
९. मिताहार – योगी को सदैव याद रखना चाहिये की भोजन शरीर रक्षा और पोषण के लिये है ना की रसना के स्वाद के लिये और न इच्छाओ की तुष्टी के लिये |
१०. शरीर और मन की पवित्रता – शरीर के विभिन्न अंगो को स्वच्छ रखना, शुद्धवायु, शुद्धजल और शुद्ध भोजन ग्रहण करना चाहिये ! सत्संग करना और स्वस्थ का ध्यान रखना, मन और विचारो की शुद्धता का ध्यान रखना चाहिये |
नियम
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१. तप – आत्मसयम का अभ्यास ! हर प्रकार से अपने को ढाल लेना ! रूखा सूख भोजन , ठंड गर्मी सहना वस्त्र या बिना वस्त्र के रहना सभी सुखो और विषयों पर विजय पा लेना ही तप है ! हर हालत मे प्रसन्न रहना तप है |
२. संतोष – जो प्राप्त हो उसी मे संतोषकरने का अभ्यास ही संतोष है ! हर प्रकार के लोभ, संसारिक वस्तुओ की प्राप्ती की कामना और जो लोग वैभव का भोग कर रहे हो उनसे जलन की भावना से मन को विरक्त रखना चाहिये ! नैतिक और आध्यात्मिक विकास की ओर चलना चाहिये |
३. आस्तिक्य – गुरू पर , वेदो पर , और वर्तमान तथा प्राचीन महत्माओ पर विश्वास का अभ्यास करना चाहिये |
४. दान – यहा दान का मतलब उदारता से है | दयालुता, ह्रदय की विशालता , और सहानभूती की भावना ही दान है ! भौतिक वस्तुये ही आध्यात्मिक मार्ग मे सबसे बडी रुकावटे है |
५. ईश्वर पूजा – शास्त्र विधि से, प्रेम से आदर से भक्ती से उपासना ही ईश्वर पूजा है ! परमात्मा सभी नामो मे है !किसी प्रकार की संकीर्णता हढधर्मी या धार्मिक उन्माद को नाथ कभी प्रोत्साहन नही देता!
नाथ के लिये शिव योग साधना का द्वार है, गुरू है, वही परम व्यक्तित्व है पर हर धर्म के लिये समभाव है |
६. वाक्य मनन – शास्त्रो का क्रमपूर्ण अध्ययन ही मनन है | गुरू से सत्य समझना और पूर्ण प्रकाश की ओर बडना चाहिये | पूर्वाग्रह , बूरी धारणा , संकीर्णता , अंधविश्वास तथा साम्प्रदायिक हठधर्मिता को मन से निकाल देना और शिव , सत्य, सुन्दर का अनुसन्धान सच्चे दिल से करना चाहिये |
७. ह्रीं- मतलब की किसी बुरे या दुषित कार्य करने से, नैतिक मर्ग से हटने , मन मे बुरे विचार, भावना या इच्छा बनाये रखने से, असत्य, हानीप्रद या हिंसात्मक शब्द कथन से होने वाले पश्चाताप और लज्जा से है | किसी के चरित्र पर गलत प्रभाव डालने वाली वस्तू से घोर घ्रिणा की भावना के जगने का अभ्यास भी ह्री है
८. मुक्ति – का ईशारा कुशाग्र बुद्धी गहन बोध और रूची और जीवन मे आध्यात्मिक मुल्य के प्रती विवेक पूर्ण झुकाव से है ! साफ मन , विमल , विचारशील और सत्य को समाने के लिय मुक्त होना चाहिये ।।
९. जप – भक्ती और श्रद्धा से लगातार भगवान के नाम को लेना ही जप है ! भगवान का नाम ईश्वर का जीवित शाब्दिक प्रतीक होना चाहिये ! जप से ही भक्त भगवान से सम्बन्ध बना कर रखता है ! प्रयत्न होना चाहिये की गूरू से कोई पवित्र नाम मिले ! गूरू द्वारा प्राप्त नाम शक्ती युक्त होता है।।
१०. होम – साधक द्वारा भक्ती भावना पूर्वकभोजन , जल तथा मुल्यवान वस्तुये भगवान को अर्पित करना ही होम है ! यह नित्य प्रती का समर्पण है ! पहले ईश्वर को समर्पित करना चाहिये फिर उसी समग्री को प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिय |.................................................................हर-हर महादेव
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