अघोर पंथ एक विशिष्ट शैव पंथ
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अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, परन्तु इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। ये भारत के प्राचीनतम धर्म "शैव" (शिव साधक) से संबधित हैं। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति अपने विचित्र व्यवहार, एकांतप्रियता और रहस्यमय क्रियाओं की वजह से जाने जाते हैं। अघोर संप्रदाय की सामाजिक उदासीनता और निर्लिप्ति के कारण इसे उतना प्रचार नहीं मिला है।
अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
अघोर साधनाएं मुख्यतः श्मशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है। शव साधना एक विशेष क्रिया है जिसके द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव किया जाता है। अघोर विश्वास के अनुसार अघोर शब्द मूलतः दो शब्दों 'अ' और 'घोर' से मिल कर बना है जिसका अर्थ है जो कि घोर न हो अर्थात सहज और सरल हो। प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है। बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता। अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं और इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं।
अघोर संप्रदाय के साधक मृतक के मांस के भक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। मृतक का मांस जहां एक ओर सामान्य जनता में अस्पृश्य होता है वहीं इसे अघोर एक प्राकृतिक पदार्थ के रूप में देखते हैं और इसे उदरस्थ कर एक प्राकृतिक चक्र को संतुलित करने का कार्य करते हैं। मृत मांस भक्षण के पीछे उनकी समदर्शी दृष्टि विकसित करने की भावना भी काम करती है। कुछ प्रमाणों के अनुसार अघोर साधक मृत मांस से शुद्ध शाकाहारी मिठाइयां बनाने की क्षमता भी रखते हैं। लोक मानस में अघोर संप्रदाय के बारे में अनेक भ्रांतिया और रहस्य कथाएं भी प्रचलित हैं। अघोर विज्ञान में इन सब भ्रांतियों को खारिज कर के इन क्रियाओं और विश्वासों को विशुद्ध विज्ञान के रूप में तार्किक ढ़ंग से प्रतिष्ठित किया गया है।......................................................हर हर महादेव
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अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, परन्तु इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। ये भारत के प्राचीनतम धर्म "शैव" (शिव साधक) से संबधित हैं। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति अपने विचित्र व्यवहार, एकांतप्रियता और रहस्यमय क्रियाओं की वजह से जाने जाते हैं। अघोर संप्रदाय की सामाजिक उदासीनता और निर्लिप्ति के कारण इसे उतना प्रचार नहीं मिला है।
अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
अघोर साधनाएं मुख्यतः श्मशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है। शव साधना एक विशेष क्रिया है जिसके द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव किया जाता है। अघोर विश्वास के अनुसार अघोर शब्द मूलतः दो शब्दों 'अ' और 'घोर' से मिल कर बना है जिसका अर्थ है जो कि घोर न हो अर्थात सहज और सरल हो। प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है। बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता। अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं और इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं।
अघोर संप्रदाय के साधक मृतक के मांस के भक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। मृतक का मांस जहां एक ओर सामान्य जनता में अस्पृश्य होता है वहीं इसे अघोर एक प्राकृतिक पदार्थ के रूप में देखते हैं और इसे उदरस्थ कर एक प्राकृतिक चक्र को संतुलित करने का कार्य करते हैं। मृत मांस भक्षण के पीछे उनकी समदर्शी दृष्टि विकसित करने की भावना भी काम करती है। कुछ प्रमाणों के अनुसार अघोर साधक मृत मांस से शुद्ध शाकाहारी मिठाइयां बनाने की क्षमता भी रखते हैं। लोक मानस में अघोर संप्रदाय के बारे में अनेक भ्रांतिया और रहस्य कथाएं भी प्रचलित हैं। अघोर विज्ञान में इन सब भ्रांतियों को खारिज कर के इन क्रियाओं और विश्वासों को विशुद्ध विज्ञान के रूप में तार्किक ढ़ंग से प्रतिष्ठित किया गया है।......................................................हर हर महादेव
*देवों के देव- महादेव, काल के काल- महाकाल, ईश्वर के ईश्वर- महेश्वर*
ReplyDelete*शिव ही परम सत्य हैं, सत्य ही सुन्दर, सुन्दर ही शिव हैं (सत्यम् शिवम् सुंदरम्)*
जीवन की वास्तविकता, जीवन का उद्देश्य, पूर्ण पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को प्राप्त करने, जीवन को सार्थक बनाने एवं परम सत्य को जानने के लिए *ईश्वर गीता (शिव उपदेश)* का अध्ययन अनिवार्य रूप से करें
*सनातन धर्म के 108 गीता उपदेशों में ईश्वर गीता (शिव उपदेश) प्रमुख गीता उपदेश हैं*
त्रेतायुग में सीता-हरण के बाद जब प्रभु श्री राम विचलित हो गए थे तब स्वयं अद्भुतेश्वर सदाशिव रामगिरि पर्वत के तंडकरण्यन वन में गोदावरी नदी के किनारे प्रभु श्री राम को परम-सत्य से अवगत कराते हुए अपने *साकार विश्वरूप* का दर्शन कराए थे सच्चिदानंद सदाशिव जो उपदेश प्रभु श्री राम को अपने मुख दिए थे उसे *ईश्वर गीता (शिव उपदेश)* जिसे *शिव गीता* भी कहा जाता है शिव जी के मुख से परम सत्य को जानने एवं अपने नेत्रों से परम-तत्व सदाशिव के वास्तविक विराट विश्वरूप को देखने के बाद भगवान श्री राम को *दिव्य परम-तत्व ज्ञान* की प्राप्ति हुई थी *दिव्य परम-तत्व ज्ञान* ब्रह्म ज्ञान से भी श्रेष्ठ *सर्वोपरि* हैं
पद्म पुराण के उत्तरा खंड में ईश्वर गीता (शिव गीता) का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है इसके अतिरिक्त भगवान शिव के विराट विश्वरूप का वर्णन कूर्म पुराण में भी मिलता हैं
ईश्वर गीता में कुल 16 अध्याय है ईश्वर गीता के सातवें अध्याय में सर्वेश्वर सदाशिव अपने विराट रूप (विश्वरूप) का दर्शन भगवान श्री राम को कराते हैं जिसके बाद प्रभु श्री राम को दिव्य परमतत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई थी
*ईश्वर गीता (शिव उपदेश)*
*ईश्वर गीता (Shiva Gita hindi audiobook) available in Play store and App store*
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