:::::::::अघोर पंथ और अघोरी :::::::::
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अघोरियों का नाम सुनते ही अमूमन लोगों के मन में डर बैठ जाता है। अघोरी की कल्पना की जाए तो शमशान में तंत्र क्रिया करने वाले किसी ऐसे साधू की तस्वीर जहन में उभरती है जिसकी वेशभूषा डरावनी होती है। आधी रात के बाद का समय। घोर अंधकार का समय। जिस समय हम सभी गहरी नींद के आगोश में खोए रहते हैं, उस समय घोरी-अघोरी-तांत्रिक श्मशान में जाकर तंत्र-क्रियाएँ करते हैं। घोर साधनाएँ करते हैं।
अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, परन्तु इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। ये भारत के प्राचीनतम धर्म “शैव” (शिव साधक) से संबधित हैं। अघोरियों को इस पृथ्वी पर भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है। शिवजी के पांच रूपों में से एक रूप अघोर रूप है। अघोरी हमेशा से लोगों की जिज्ञासा का विषय रहे हैं। अघोरियों का जीवन जितना कठिन है, उतना ही रहस्यमयी भी। अघोरियों की साधना विधि सबसे ज्यादा रहस्यमयी है। उनकी अपनी शैली, अपना विधान है, अपनी अलग विधियां हैं। अघोरी उसे कहते हैं जो घोर नहीं हो। यानी बहुत सरल और सहज हो। जिसके मन में कोई भेदभाव नहीं हो। अघोरी हर चीज में समान भाव रखते हैं। वे सड़ते जीव के मांस को भी उतना ही स्वाद लेकर खाते हैं, जितना स्वादिष्ट पकवानों को स्वाद लेकर खाया जाता है।
शिव का अघोरी रूप सबसे खूबसूरत माना जाता है. अघोरी शिव के रूप की पूजा आप भी करते हैं. सावन की सोमवारी पूजा हो, शिवरात्रि या आम दिनों की शिव पूजा भांग और धतूरे को शिव की सबसे प्रिय वस्तु मानकर हर शिव-भक्त शिवलिंग पर जरूर चढ़ाता है. पुराणों के अनुसार शिव के इस रूप को औघड़ या अघोरी बोला जाता है, भांग-धतूरे के नशे में मदमस्त रूप.आपको जानकर हैरानी होगी कि शिव का यह रूप आज भी धरती पर मौजूद है. वह हमारे ही बीच लेकिन आम जिंदगी और आम इंसानों से दूरी बनाकर रहता है. मुश्किल से पूरे हिंदुस्तान में 5-6 से ऐसे शिव रूप हैं.
शिव के पांच चेहरे माने जाते हैं जिसके एक चेहरे का नाम ‘अघोर’ है. ‘घोर’ का शाब्दिक अर्थ है ‘घना’ जो अंधेरे का प्रतीक है और ‘अ’ मतलब ‘नहीं’. इस तरह अघोर का अर्थ हुआ जहां कोई अंधेरा नहीं, हर ओर बस प्रकाश ही प्रकाश है. शिव का सबसे चमकीला रूप ‘अघोरी’ कहलाता है. अघोरी मतलब घने अंधेरे को हटाने वाला. अंधेरे का अर्थ भय भी हो सकता है. इस तरह यह अघोर रूप उस भय से मुक्त कराने वाला भी है, अघोरी जो हर घोर (अंधेरे की तरह दिखने वाले भय को हटा दे). शिव का यह अघोरी रूप सबसे खूबसूरत माना जाता है. इस रूप में शिव औघड़ भी कहलाते हैं जो दुनिया से विरक्त, अपनी ही साधना में लीन आत्मा का प्रतीक है.
अघोर विद्या वास्तव में डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप डरावना होता है। अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। और सरल बनना बड़ा ही कठिन है। सरल बनने के लिए ही अघोरी को कठिन साधना करनी पड़ती है। आप तभी सरल बन सकते हैं जब आप अपने से घृणा को निकाल दें। इसलिए अघोर बनने की पहली शर्त यह है कि इसे अपने मन से घृणा को निकला देना होगा। अघोर क्रिया व्यक्त को सहज बनाती है।
मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईष्र्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाए। जो किसी में फ़र्क़ न करे। जो शमशान जैसी डरावनी और घृणित जगह पर भी उसी सहजता से रह ले जैसे लोग घरों में रहते हैं। अघोरी लाशों से सहवास करता है और मानव के मांस का सेवन भी करता है। ऐसा करने के पीछे यही तर्क है कि व्यक्ति के मन से घृणा निकल जाए। जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है।
जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन आदि से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है। अघोर विद्या सबसे कठिन लेकिन तत्काल फलित होने वाली विद्या है। साधना के पूर्व मोह-माया का त्याग जरूरी है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाएं। सभी तरह के वैराग्य को प्राप्त करने के लिए ये साधु श्मशान में कुछ दिन गुजारने के बाद पुन: हिमालय या जंगल में चले जाते हैं।
लाल आंखें, हुक्का पीते हुए, राख से सने, नंगे बदन ये साधु श्मशानों में रहते हैं. इन्हें जीने के लिए किसी सुख-सुविधा की जरूरत नहीं. यहां तक खाने-पीने के लिए कंकाल की खोपड़ी ही इनका प्लेट और कंकाल की खोपड़ी ही इनका ग्लास है. इनका विश्वास होता है कि दुनिया में कोई भी चीज गंदी नहीं हो सकती है क्योंकि हर चीज भगवान ब्रह्मा का बनाया हुआ है उतना ही शुद्ध-स्वच्छ है जितना कोई और चीज.
अघोर विद्या भी व्यक्ति को ऐसी शक्ति देती है जो उसे हर चीज़ के प्रति समान भाव रखने की शक्ति देती है। अघोरी तंत्र को बुरा समझने वाले शायद यह नहीं जानते हैं कि इस विद्या में लोक कल्याण की भावना है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।
आपको शायद एक बार यह सोचकर घिन आए कि ये गाय का मांस छोड़कर सभी कुछ खाते हैं यहां तक कि आदमी का मांस भी. अघोर तंत्र सिद्धि के लिए ये श्मशानों में रहते हैं. इनकी एक साधना है श्मशान में रहना और लाशों पर खड़े रहकर साधना करना. एक अघोरी बनने के लिए लाशों को अपने ऊपर से गुजारना इनके लिए सबसे जरूरी माना जाता है. जो राख ये शरीर पर मलते हैं या जिन राखों को अपने शरीर के ऊपर उड़ेलते हैं वह भी श्मशान में जलाई हुई लाश की राख ही होती है. सड़ी हुई लाश का खुली आग में भूना हुआ मांस खाना भी इनकी साधना का एक हिस्सा है. शराब, भांग पीना इन साधुओं के लिए निषेध नहीं बल्कि जरूरी है. श्मशान में रहते हुए लाशों का मांस खाना और शराब, भांग, गांजा पीना इनकी साधना से जुड़ा हुआ है. पर ये लाशें आती कहां से हैं? किसी का कत्ल तो नहीं करते ये ?
अघोर विद्या या अघोरी डरने के पात्र नहीं होते हैं, उन्हें समझने की दृष्टि चाहिए। अघोर विद्या के जानकारों का मानना है कि जो असली अघोरी होते हैं वे कभी आम दुनिया में सक्रिय भूमिका नहीं रखते, वे केवल अपनी साधना में ही व्यस्त रहते हैं। हां, कई बार ऐसा होता है कि अघोरियों के वेश में कोई ढोंगी, आपको ठग सकता है। अघोरियों की पहचान ही यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है।
अघोरी साधु शिव की साधना करते हैं और दुनिया से दूर वीराने में रहते हैं. .इनके रहने की खास जगह है श्मशान क्योंकि यहां शिव और पार्वती का वास माना जाता है. जिस भी चीज या काम को दुनिया निषेध मानती है अघोरी साधु उसे ही कर ब्रह्मा के हर रूप में भगवान का वास होने, उसके पवित्र होने की बात कहते हैं; जैसे, लाशों को अपने ऊपर से गुजारना, लाशों की राख से नहाना, श्मशान में रहना आदि.शिव की साधना करने वाले ये साधु खुद को शिव का रूप बताते हैं और शिव की कृपा प्राप्त होने की बातें कहकर लोगों को नुकसान पहुंचाने के नाम पर डराते भी हैं. हालांकि यह सच इससे बहुत अलग है.
साधना की एक रहस्यमयी शाखा है अघोरपंथ। उनका अपना विधान है, अपनी अलग विधि है, अपना अलग अंदाज है जीवन को जीने का। अघोरपंथी साधक अघोरी कहलाते हैं। खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं, रोटी मिले रोटी खा लें, खीर मिले खीर खा लें, बकरा मिले तो बकरा, और मानव शव यहां तक कि सड़ते पशु का शव भी बिना किसी वितृष्णा के खा लें। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक। अघोरपंथ में शायद श्मशान साधना का विशेष महत्व है, इसीलिए अघोरी शमशान वास करना ही पंसद करते हैं। श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विध्न पड़ने का कोई प्रश्न नहीं।
आज भी किसी 5 साल से कम उम्र के बच्चे, सांप काटने से मरे हुए लोगों, कई बार धार्मिक कार्य में होने वाले खर्च में पैसे न खर्च कर पाने की स्थिति में होने के कारण गरीबों का, आत्महत्या किए लोगों का शव जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया या गंगा में प्रवाहित कर कर दिया जाता है. पानी में प्रवाहित ये लाश डूबने के बाद हल्के होकर पानी में तैरने लगते हैं. अक्सर अघोरी तांत्रिक इन्हीं शवों को पानी से ढूंढ़कर निकालते और अपनी तंत्र सिद्धि के लिए प्रयोग करते हैं.
अघोरियों के बारे में मान्यता है। कि बड़े ही जिद्दी होते हैं, अगर किसी से कुछ मागेंगे, तो लेकर ही जायेगे। क्रोधित हो जायेंगे तो अपना तांडव दिखाये बिना जायेंगे नहीं। एक अघोरी बाबा की आंखे लाल सुर्ख होती हैं मानों आंखों में प्रचंड क्रोध समाया हुआ हो। आंखों में जितना क्रोध दिखाई देता हैं बातों में उतनी शीतलता होती हैं जैसे आग और पानी का दुर्लभ मेल हो।
कफन के काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी होती है। नरमुंड न हो तो वे प्रतीक रूप में उसी तरह की माला पहनते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध और पूरे शरीर पर राख मलकर रहते हैं ये साधु। ये साधु अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
अघोरी अक्सर श्मशानों में ही अपनी कुटिया बनाते हैं। वहां एक धूनी जलती रहती है। जानवरों में वो सिर्फ कुत्ता पालना पसंद करते हैं। उनके साथ उनके शिष्य रहते हैं। अघोरी अपनी बात के बहुत पक्के होते हैं। वे अगर किसी से कोई बात कह दें तो उसे जरूर पूरा करते हैं।
अघोरी श्मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं - श्मशान साधना, शिव साधना, शव साधना। शव साधना के चरम पर मुर्दा बोल उठता है और आपकी इच्छाएँ पूरी करता है। इस साधना में आम लोगों का प्रवेश वर्जित रहता है। ऐसी साधनाएँ अक्सर तारापीठ के श्मशान, कामाख्या पीठ के श्मशान, त्र्यम्बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्मशान में होती है।
शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। बाकी तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पाँव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है।
शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहाँ प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।
अघोरियों के पास भूतों से बचने के लिए एक खास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप लगाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। ऐसा करके अघोरी अन्य प्रेत-पिशाचों को चिता की आत्मा और खुद को अपनी साधना में विघ्न डालने से रोकता है।
अघोरियों का जीवन बहुत मुश्किल होता है. सभी साधु इस साधना को पूरा नहीं कर पाते. पूरे भारत में ऐसे मात्र 1500 अघोरी साधु हैं. पर वास्तव में ये अघोरी ‘साधु’ नहीं, बल्कि काला जादू करने वाले ‘अघोरी तांत्रिक’ होते हैं. श्मशान में लाशों के ऊपर सिद्धियों की साधना करना दरअसल आत्माओं को वश में करने और काला जादू तंत्र विद्या की साधना होती है. लोगों का ऐसा मानना है कि अघोरी साधु हमेशा गंदे होते हैं पर यह भी गलत है. जरूरी नहीं कि अघोरी साधु गंदे ही हों बल्कि वे साफ-सुथरे होंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा. कहते हैं पूरे भारत में असली अघोरी साधु मात्र 5 से 6 ही हैं लेकिन वे ऐसे कहीं आपको नहीं मिलेंगे क्योंकि वे शिव साधना में हमेशा लीन रहते हैं और श्मशानों से कभी बाहर नहीं निकलते. वे किसी को डराते नहीं. डराने वाले अघोरी साधु वास्तव में अघोरी तांत्रिक हैं..
अघोरपंथ के लोग चार स्थानों पर ही श्मशान साधना करते हैं। चार स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं। यदि आपको पता चले कि इन स्थानों को छोड़कर अन्य स्थानों पर भी अघोरी साधना करते हैं तो यह कहना होगा कि वे अन्य श्मशान में साधना नहीं करते बल्कि यात्रा प्रवास के दौरान वे वहां विश्राम करने रुकते होंगे या फिर वे ढोंगी होंगे।
बहुत कम लोग जानते हैं कि अघोरियों की साधना में इतना बल होता है कि वो मुर्दे से भी बात कर सकते हैं। ये बातें पढ़ने-सुनने में भले ही अजीब लगें, लेकिन इन्हें पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता। उनकी साधना को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।
- अघोरी अमूमन आम दुनिया से कटे होते हैं। वे अपने-आप में मस्त रहने वाले, दिन में अधिकांश समय सोने वाले और रात में श्मशान में साधना करने वाले होते हैं। वे आम लोगों से कोई संपर्क नहीं रखते। वे अधिकांश समय अपना सिद्ध मंत्र ही जाप करते रहते हैं। आज भी ऐसे अघोरी और तंत्र साधक हैं, जो पराशक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं। दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं, जहां तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम बंगाल), कामाख्या पीठ (असम) का श्मशान, त्र्यम्बेक्शवर (नासिक) और उज्जैन का चक्रतीर्थ श्मशान।
तारापीठ - यह मंदिर पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिला में है। इसे तारा देवी का मंदिर कहते हैं। इस मंदिर में मां काली के एक रूप तारा मां की प्रतिमा स्थापित है। रामपुर हाट से तारापीठ की दूरी 6 किलोमीटर है। यहां स्थित श्मशान में कई साधक आते हैं।
कामाख्या पीठ- असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है। इसका तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमाला पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है।
नासिक - त्र्यम्बेक्श्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर महाराष्ट्र के नासिक जिले में हैं। यहां के ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम होता है। भगवान शिव को तंत्रशास्त्र का देवता माना जाता है। तंत्र और अघोरवाद के जन्मदाता भगवान शिव ही हैं।
उज्जैन - महाकालेश्वर मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव को अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। इस कारण तंत्रशास्त्र में भी शिव के इस शहर को शीघ्र फल देने वाला माना गया है। यहां के श्मशान में दूर-दूर से साधक तंत्र क्रिया करने आते हैं।
अघोर साधना के प्रमुख स्थान
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1. तारापीठ का श्मशान : कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर स्थित तारापीठ धाम की खासियत यहां का महाश्मशान है। वीरभूम की तारापीठ (शक्तिपीठ) अघोर तांत्रिकों का तीर्थ है। यहां आपको हजारों की संख्या में अघोर तांत्रिक मिल जाएंगे। तंत्र साधना के लिए जानी-मानी जगह है तारापीठ, जहां की आराधना पीठ के निकट स्थित श्मशान में हवन किए बगैर पूरी नहीं मानी जाती। कालीघाट को तांत्रिकों का गढ़ माना जाता हैऔर कालीघाट में अघोर तांत्रिक सिद्धियाँ होती हैं |
2 .कामाख्या पीठ के श्मशान : कामाख्या पीठ भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है, जो असम प्रदेश में है। कामाख्या देवी का मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। प्राचीनकाल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र-सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। कालिका पुराण तथा देवीपुराण में 'कामाख्या शक्तिपीठ' को सर्वोत्तम कहा गया है और यह भी तांत्रिकों का गढ़ है |नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमाला पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित ह|
3. रजरप्पा का श्मशान : रजरप्पा में छिन्नमस्ता देवी का स्थान है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है लेकिन जानकारों के अनुसार छिन्नमस्ता 10 महाविद्याओं में एक हैं। उनमें 5 तांत्रिक और 5 वैष्णवी हैं। तांत्रिक महाविद्याओं में कामरूप कामाख्या की षोडशी और तारापीठ की तारा के बाद इनका स्थान आता है।
4. चक्रतीर्थ का श्मशान : महाकालेश्वर मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव को अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। इस कारण तंत्रशास्त्र में भी शिव के इस शहर को शीघ्र फल देने वाला माना गया है। यहां के श्मशान में दूर-दूर से साधक तंत्र क्रिया करने आते हैं।मध्यप्रदेश के उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान और गढ़कालिका का स्थान तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। उज्जैन में काल भैरव और विक्रांत भैरव भी तांत्रिकों का मुख्य स्थान माना जाता है.|
5. नासिक - त्र्यम्बेक्श्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर महाराष्ट्र के नासिक जिले में हैं। यहां के ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम होता है। भगवान शिव को तंत्रशास्त्र का देवता माना जाता है। तंत्र और अघोरवाद के जन्मदाता भगवान शिव ही हैं।
6 .काशी - काशी को अघोर साधना में मूर्धन्य स्थान प्राप्त है |एक तो यहाँ ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वर जी जो शैवों के मूल उपास्य हैं ,दूसरा विशालाक्षी का शक्तिपीठ ,तीसरा सतयुगीन हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका महाश्मशान ,चौथा बाबा कीनाराम द्वारा स्थापित क्रीं कुण्ड है |इसलिए यह स्थान अघोर साधना का मुख्या केंद्र हैं जहाँ अघोरी बहुतायत में रहते हैं |बाबा कीनाराम की गद्दी पर आसीन गुरु भी यहाँ हैं और उनका पीठ भी है |..............................................................हर हर महादेव
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अघोरियों का नाम सुनते ही अमूमन लोगों के मन में डर बैठ जाता है। अघोरी की कल्पना की जाए तो शमशान में तंत्र क्रिया करने वाले किसी ऐसे साधू की तस्वीर जहन में उभरती है जिसकी वेशभूषा डरावनी होती है। आधी रात के बाद का समय। घोर अंधकार का समय। जिस समय हम सभी गहरी नींद के आगोश में खोए रहते हैं, उस समय घोरी-अघोरी-तांत्रिक श्मशान में जाकर तंत्र-क्रियाएँ करते हैं। घोर साधनाएँ करते हैं।
अघोर पंथ हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति के काल के बारे में अभी निश्चित प्रमाण नहीं मिले हैं, परन्तु इन्हें कपालिक संप्रदाय के समकक्ष मानते हैं। ये भारत के प्राचीनतम धर्म “शैव” (शिव साधक) से संबधित हैं। अघोरियों को इस पृथ्वी पर भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है। शिवजी के पांच रूपों में से एक रूप अघोर रूप है। अघोरी हमेशा से लोगों की जिज्ञासा का विषय रहे हैं। अघोरियों का जीवन जितना कठिन है, उतना ही रहस्यमयी भी। अघोरियों की साधना विधि सबसे ज्यादा रहस्यमयी है। उनकी अपनी शैली, अपना विधान है, अपनी अलग विधियां हैं। अघोरी उसे कहते हैं जो घोर नहीं हो। यानी बहुत सरल और सहज हो। जिसके मन में कोई भेदभाव नहीं हो। अघोरी हर चीज में समान भाव रखते हैं। वे सड़ते जीव के मांस को भी उतना ही स्वाद लेकर खाते हैं, जितना स्वादिष्ट पकवानों को स्वाद लेकर खाया जाता है।
शिव का अघोरी रूप सबसे खूबसूरत माना जाता है. अघोरी शिव के रूप की पूजा आप भी करते हैं. सावन की सोमवारी पूजा हो, शिवरात्रि या आम दिनों की शिव पूजा भांग और धतूरे को शिव की सबसे प्रिय वस्तु मानकर हर शिव-भक्त शिवलिंग पर जरूर चढ़ाता है. पुराणों के अनुसार शिव के इस रूप को औघड़ या अघोरी बोला जाता है, भांग-धतूरे के नशे में मदमस्त रूप.आपको जानकर हैरानी होगी कि शिव का यह रूप आज भी धरती पर मौजूद है. वह हमारे ही बीच लेकिन आम जिंदगी और आम इंसानों से दूरी बनाकर रहता है. मुश्किल से पूरे हिंदुस्तान में 5-6 से ऐसे शिव रूप हैं.
शिव के पांच चेहरे माने जाते हैं जिसके एक चेहरे का नाम ‘अघोर’ है. ‘घोर’ का शाब्दिक अर्थ है ‘घना’ जो अंधेरे का प्रतीक है और ‘अ’ मतलब ‘नहीं’. इस तरह अघोर का अर्थ हुआ जहां कोई अंधेरा नहीं, हर ओर बस प्रकाश ही प्रकाश है. शिव का सबसे चमकीला रूप ‘अघोरी’ कहलाता है. अघोरी मतलब घने अंधेरे को हटाने वाला. अंधेरे का अर्थ भय भी हो सकता है. इस तरह यह अघोर रूप उस भय से मुक्त कराने वाला भी है, अघोरी जो हर घोर (अंधेरे की तरह दिखने वाले भय को हटा दे). शिव का यह अघोरी रूप सबसे खूबसूरत माना जाता है. इस रूप में शिव औघड़ भी कहलाते हैं जो दुनिया से विरक्त, अपनी ही साधना में लीन आत्मा का प्रतीक है.
अघोर विद्या वास्तव में डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप डरावना होता है। अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। और सरल बनना बड़ा ही कठिन है। सरल बनने के लिए ही अघोरी को कठिन साधना करनी पड़ती है। आप तभी सरल बन सकते हैं जब आप अपने से घृणा को निकाल दें। इसलिए अघोर बनने की पहली शर्त यह है कि इसे अपने मन से घृणा को निकला देना होगा। अघोर क्रिया व्यक्त को सहज बनाती है।
मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईष्र्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाए। जो किसी में फ़र्क़ न करे। जो शमशान जैसी डरावनी और घृणित जगह पर भी उसी सहजता से रह ले जैसे लोग घरों में रहते हैं। अघोरी लाशों से सहवास करता है और मानव के मांस का सेवन भी करता है। ऐसा करने के पीछे यही तर्क है कि व्यक्ति के मन से घृणा निकल जाए। जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है।
जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन आदि से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है। अघोर विद्या सबसे कठिन लेकिन तत्काल फलित होने वाली विद्या है। साधना के पूर्व मोह-माया का त्याग जरूरी है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाएं। सभी तरह के वैराग्य को प्राप्त करने के लिए ये साधु श्मशान में कुछ दिन गुजारने के बाद पुन: हिमालय या जंगल में चले जाते हैं।
लाल आंखें, हुक्का पीते हुए, राख से सने, नंगे बदन ये साधु श्मशानों में रहते हैं. इन्हें जीने के लिए किसी सुख-सुविधा की जरूरत नहीं. यहां तक खाने-पीने के लिए कंकाल की खोपड़ी ही इनका प्लेट और कंकाल की खोपड़ी ही इनका ग्लास है. इनका विश्वास होता है कि दुनिया में कोई भी चीज गंदी नहीं हो सकती है क्योंकि हर चीज भगवान ब्रह्मा का बनाया हुआ है उतना ही शुद्ध-स्वच्छ है जितना कोई और चीज.
अघोर विद्या भी व्यक्ति को ऐसी शक्ति देती है जो उसे हर चीज़ के प्रति समान भाव रखने की शक्ति देती है। अघोरी तंत्र को बुरा समझने वाले शायद यह नहीं जानते हैं कि इस विद्या में लोक कल्याण की भावना है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।
आपको शायद एक बार यह सोचकर घिन आए कि ये गाय का मांस छोड़कर सभी कुछ खाते हैं यहां तक कि आदमी का मांस भी. अघोर तंत्र सिद्धि के लिए ये श्मशानों में रहते हैं. इनकी एक साधना है श्मशान में रहना और लाशों पर खड़े रहकर साधना करना. एक अघोरी बनने के लिए लाशों को अपने ऊपर से गुजारना इनके लिए सबसे जरूरी माना जाता है. जो राख ये शरीर पर मलते हैं या जिन राखों को अपने शरीर के ऊपर उड़ेलते हैं वह भी श्मशान में जलाई हुई लाश की राख ही होती है. सड़ी हुई लाश का खुली आग में भूना हुआ मांस खाना भी इनकी साधना का एक हिस्सा है. शराब, भांग पीना इन साधुओं के लिए निषेध नहीं बल्कि जरूरी है. श्मशान में रहते हुए लाशों का मांस खाना और शराब, भांग, गांजा पीना इनकी साधना से जुड़ा हुआ है. पर ये लाशें आती कहां से हैं? किसी का कत्ल तो नहीं करते ये ?
अघोर विद्या या अघोरी डरने के पात्र नहीं होते हैं, उन्हें समझने की दृष्टि चाहिए। अघोर विद्या के जानकारों का मानना है कि जो असली अघोरी होते हैं वे कभी आम दुनिया में सक्रिय भूमिका नहीं रखते, वे केवल अपनी साधना में ही व्यस्त रहते हैं। हां, कई बार ऐसा होता है कि अघोरियों के वेश में कोई ढोंगी, आपको ठग सकता है। अघोरियों की पहचान ही यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है।
अघोरी साधु शिव की साधना करते हैं और दुनिया से दूर वीराने में रहते हैं. .इनके रहने की खास जगह है श्मशान क्योंकि यहां शिव और पार्वती का वास माना जाता है. जिस भी चीज या काम को दुनिया निषेध मानती है अघोरी साधु उसे ही कर ब्रह्मा के हर रूप में भगवान का वास होने, उसके पवित्र होने की बात कहते हैं; जैसे, लाशों को अपने ऊपर से गुजारना, लाशों की राख से नहाना, श्मशान में रहना आदि.शिव की साधना करने वाले ये साधु खुद को शिव का रूप बताते हैं और शिव की कृपा प्राप्त होने की बातें कहकर लोगों को नुकसान पहुंचाने के नाम पर डराते भी हैं. हालांकि यह सच इससे बहुत अलग है.
साधना की एक रहस्यमयी शाखा है अघोरपंथ। उनका अपना विधान है, अपनी अलग विधि है, अपना अलग अंदाज है जीवन को जीने का। अघोरपंथी साधक अघोरी कहलाते हैं। खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं, रोटी मिले रोटी खा लें, खीर मिले खीर खा लें, बकरा मिले तो बकरा, और मानव शव यहां तक कि सड़ते पशु का शव भी बिना किसी वितृष्णा के खा लें। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक। अघोरपंथ में शायद श्मशान साधना का विशेष महत्व है, इसीलिए अघोरी शमशान वास करना ही पंसद करते हैं। श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विध्न पड़ने का कोई प्रश्न नहीं।
आज भी किसी 5 साल से कम उम्र के बच्चे, सांप काटने से मरे हुए लोगों, कई बार धार्मिक कार्य में होने वाले खर्च में पैसे न खर्च कर पाने की स्थिति में होने के कारण गरीबों का, आत्महत्या किए लोगों का शव जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया या गंगा में प्रवाहित कर कर दिया जाता है. पानी में प्रवाहित ये लाश डूबने के बाद हल्के होकर पानी में तैरने लगते हैं. अक्सर अघोरी तांत्रिक इन्हीं शवों को पानी से ढूंढ़कर निकालते और अपनी तंत्र सिद्धि के लिए प्रयोग करते हैं.
अघोरियों के बारे में मान्यता है। कि बड़े ही जिद्दी होते हैं, अगर किसी से कुछ मागेंगे, तो लेकर ही जायेगे। क्रोधित हो जायेंगे तो अपना तांडव दिखाये बिना जायेंगे नहीं। एक अघोरी बाबा की आंखे लाल सुर्ख होती हैं मानों आंखों में प्रचंड क्रोध समाया हुआ हो। आंखों में जितना क्रोध दिखाई देता हैं बातों में उतनी शीतलता होती हैं जैसे आग और पानी का दुर्लभ मेल हो।
कफन के काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी होती है। नरमुंड न हो तो वे प्रतीक रूप में उसी तरह की माला पहनते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध और पूरे शरीर पर राख मलकर रहते हैं ये साधु। ये साधु अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
अघोरी अक्सर श्मशानों में ही अपनी कुटिया बनाते हैं। वहां एक धूनी जलती रहती है। जानवरों में वो सिर्फ कुत्ता पालना पसंद करते हैं। उनके साथ उनके शिष्य रहते हैं। अघोरी अपनी बात के बहुत पक्के होते हैं। वे अगर किसी से कोई बात कह दें तो उसे जरूर पूरा करते हैं।
अघोरी श्मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं - श्मशान साधना, शिव साधना, शव साधना। शव साधना के चरम पर मुर्दा बोल उठता है और आपकी इच्छाएँ पूरी करता है। इस साधना में आम लोगों का प्रवेश वर्जित रहता है। ऐसी साधनाएँ अक्सर तारापीठ के श्मशान, कामाख्या पीठ के श्मशान, त्र्यम्बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्मशान में होती है।
शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। बाकी तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पाँव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है।
शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहाँ प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।
अघोरियों के पास भूतों से बचने के लिए एक खास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप लगाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। ऐसा करके अघोरी अन्य प्रेत-पिशाचों को चिता की आत्मा और खुद को अपनी साधना में विघ्न डालने से रोकता है।
अघोरियों का जीवन बहुत मुश्किल होता है. सभी साधु इस साधना को पूरा नहीं कर पाते. पूरे भारत में ऐसे मात्र 1500 अघोरी साधु हैं. पर वास्तव में ये अघोरी ‘साधु’ नहीं, बल्कि काला जादू करने वाले ‘अघोरी तांत्रिक’ होते हैं. श्मशान में लाशों के ऊपर सिद्धियों की साधना करना दरअसल आत्माओं को वश में करने और काला जादू तंत्र विद्या की साधना होती है. लोगों का ऐसा मानना है कि अघोरी साधु हमेशा गंदे होते हैं पर यह भी गलत है. जरूरी नहीं कि अघोरी साधु गंदे ही हों बल्कि वे साफ-सुथरे होंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा. कहते हैं पूरे भारत में असली अघोरी साधु मात्र 5 से 6 ही हैं लेकिन वे ऐसे कहीं आपको नहीं मिलेंगे क्योंकि वे शिव साधना में हमेशा लीन रहते हैं और श्मशानों से कभी बाहर नहीं निकलते. वे किसी को डराते नहीं. डराने वाले अघोरी साधु वास्तव में अघोरी तांत्रिक हैं..
अघोरपंथ के लोग चार स्थानों पर ही श्मशान साधना करते हैं। चार स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं। यदि आपको पता चले कि इन स्थानों को छोड़कर अन्य स्थानों पर भी अघोरी साधना करते हैं तो यह कहना होगा कि वे अन्य श्मशान में साधना नहीं करते बल्कि यात्रा प्रवास के दौरान वे वहां विश्राम करने रुकते होंगे या फिर वे ढोंगी होंगे।
बहुत कम लोग जानते हैं कि अघोरियों की साधना में इतना बल होता है कि वो मुर्दे से भी बात कर सकते हैं। ये बातें पढ़ने-सुनने में भले ही अजीब लगें, लेकिन इन्हें पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता। उनकी साधना को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।
- अघोरी अमूमन आम दुनिया से कटे होते हैं। वे अपने-आप में मस्त रहने वाले, दिन में अधिकांश समय सोने वाले और रात में श्मशान में साधना करने वाले होते हैं। वे आम लोगों से कोई संपर्क नहीं रखते। वे अधिकांश समय अपना सिद्ध मंत्र ही जाप करते रहते हैं। आज भी ऐसे अघोरी और तंत्र साधक हैं, जो पराशक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं। दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं, जहां तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है। ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम बंगाल), कामाख्या पीठ (असम) का श्मशान, त्र्यम्बेक्शवर (नासिक) और उज्जैन का चक्रतीर्थ श्मशान।
तारापीठ - यह मंदिर पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिला में है। इसे तारा देवी का मंदिर कहते हैं। इस मंदिर में मां काली के एक रूप तारा मां की प्रतिमा स्थापित है। रामपुर हाट से तारापीठ की दूरी 6 किलोमीटर है। यहां स्थित श्मशान में कई साधक आते हैं।
कामाख्या पीठ- असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है। इसका तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमाला पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है।
नासिक - त्र्यम्बेक्श्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर महाराष्ट्र के नासिक जिले में हैं। यहां के ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम होता है। भगवान शिव को तंत्रशास्त्र का देवता माना जाता है। तंत्र और अघोरवाद के जन्मदाता भगवान शिव ही हैं।
उज्जैन - महाकालेश्वर मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव को अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। इस कारण तंत्रशास्त्र में भी शिव के इस शहर को शीघ्र फल देने वाला माना गया है। यहां के श्मशान में दूर-दूर से साधक तंत्र क्रिया करने आते हैं।
अघोर साधना के प्रमुख स्थान
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1. तारापीठ का श्मशान : कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर स्थित तारापीठ धाम की खासियत यहां का महाश्मशान है। वीरभूम की तारापीठ (शक्तिपीठ) अघोर तांत्रिकों का तीर्थ है। यहां आपको हजारों की संख्या में अघोर तांत्रिक मिल जाएंगे। तंत्र साधना के लिए जानी-मानी जगह है तारापीठ, जहां की आराधना पीठ के निकट स्थित श्मशान में हवन किए बगैर पूरी नहीं मानी जाती। कालीघाट को तांत्रिकों का गढ़ माना जाता हैऔर कालीघाट में अघोर तांत्रिक सिद्धियाँ होती हैं |
2 .कामाख्या पीठ के श्मशान : कामाख्या पीठ भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है, जो असम प्रदेश में है। कामाख्या देवी का मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। प्राचीनकाल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र-सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। कालिका पुराण तथा देवीपुराण में 'कामाख्या शक्तिपीठ' को सर्वोत्तम कहा गया है और यह भी तांत्रिकों का गढ़ है |नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमाला पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित ह|
3. रजरप्पा का श्मशान : रजरप्पा में छिन्नमस्ता देवी का स्थान है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है लेकिन जानकारों के अनुसार छिन्नमस्ता 10 महाविद्याओं में एक हैं। उनमें 5 तांत्रिक और 5 वैष्णवी हैं। तांत्रिक महाविद्याओं में कामरूप कामाख्या की षोडशी और तारापीठ की तारा के बाद इनका स्थान आता है।
4. चक्रतीर्थ का श्मशान : महाकालेश्वर मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव को अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। इस कारण तंत्रशास्त्र में भी शिव के इस शहर को शीघ्र फल देने वाला माना गया है। यहां के श्मशान में दूर-दूर से साधक तंत्र क्रिया करने आते हैं।मध्यप्रदेश के उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान और गढ़कालिका का स्थान तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। उज्जैन में काल भैरव और विक्रांत भैरव भी तांत्रिकों का मुख्य स्थान माना जाता है.|
5. नासिक - त्र्यम्बेक्श्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर महाराष्ट्र के नासिक जिले में हैं। यहां के ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम होता है। भगवान शिव को तंत्रशास्त्र का देवता माना जाता है। तंत्र और अघोरवाद के जन्मदाता भगवान शिव ही हैं।
6 .काशी - काशी को अघोर साधना में मूर्धन्य स्थान प्राप्त है |एक तो यहाँ ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वर जी जो शैवों के मूल उपास्य हैं ,दूसरा विशालाक्षी का शक्तिपीठ ,तीसरा सतयुगीन हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका महाश्मशान ,चौथा बाबा कीनाराम द्वारा स्थापित क्रीं कुण्ड है |इसलिए यह स्थान अघोर साधना का मुख्या केंद्र हैं जहाँ अघोरी बहुतायत में रहते हैं |बाबा कीनाराम की गद्दी पर आसीन गुरु भी यहाँ हैं और उनका पीठ भी है |..............................................................हर हर महादेव
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