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पूजा -पाठ रोज
करोड़ों लोग करते हैं और विश्व परिप्रेक्ष्य में देखें तो अरबों लोग रोज कहीं न
कहीं पूजा आराधना करते हैं भले उनके आराध्य ईश्वर अलग हों |सभी अपने ईश्वर से अपनी
मनोकामना कहते हैं और अधिकतर चाहते हैं की उनकी इच्छा उनका ईश्वर सुने और पूर्ण
करे किन्तु बहुत ही कम लोगों की इच्छाएं पूर्ण होती हैं क्योकि वह लेने की तकनीक
ही नहीं जानते |कुछ लोग ईश्वर को अपने पास बुलाना चाहते हैं और चाहते हैं की
उन्हें उनके आराध्य की शक्ति मिले ,सिद्धि मिले |साधना तो हजारों हजार करते हैं पर
सबको सफलता नहीं मिलती ,केवल कुछ को सफलता मिलती है उनमे भी कुछ को ही वास्तविक
सिद्धि प्राप्त हो पाती है ,अन्य के कुछ काम हो जाते हैं और वह उसी आत्म संतुष्टि
में खुद को सिद्धि का भी कभी कभी स्वामी मान लेता है |सिद्धि का अर्थ है सम्बंधित
विषय से सम्बंधित शक्ति का साधक के नियंत्रण में आ जाना अथवा वशीभूत हो जाना ,यह
बहुत कम होता है और इसकी अपनी एक तकनिकी है |इसका आडम्बर आदि से कोई लेना देना
नहीं होता |इसमें सबसे मुख्य भूमिका मष्तिष्क की होती है ,अवचेतन मन की होती है
,अन्य सभी माध्यम सम्बंधित ऊर्जा उत्पन्न करने अथवा बढाने का काम करते हैं |
आप जब साधना
करें तो यह बात हमेशा याद रखें की आप किसी शक्ति को नहीं साध सकते ,आप तो हाथ जोड़े
खड़े हैं ,कोई भी शक्ति आपसे बड़ी है ,अधिक क्षमता वान है तभी तो आप उसकी साधना कर
रहे हैं ,तो आप उसे कैसे साध सकते हैं |आप उसकी साधना में खुद को साध रहे हैं |खुद
को साधना है आपको और ऐसा बनाना है की वह शक्ति आपमें समाहित हो सके ,आपमें आ सके
तभी आपको सिद्धि मिलेगी ,आपकी साधना सफल होगी और आपको उस शक्ति की शक्ति प्राप्त
हो पाएगी |खुद को साधने के क्रम में खुद को उस शक्ति के गुण ,स्वभाव ,आचरण के
अनुकूल आपको अपने शरीर और भाव को बनाना होता है तभी आप उससे तालमेल बना पाते हैं
और आपके पुकारने पर वह शक्ति जब आपको और आपके शरीर को अपने अनुकूल पाती है तभी वह
आपके पास आती है और आपमें समाहित होती है ,आपका शरीर और आसपास का वातावरण उसकी
ऊर्जा से संतृप्त होता है |आपको अनुकूल न पाने पर या तो वह शक्ति आएगी ही नहीं और
आ भी गयी तो वापस चली जायेगी या उसकी उर्जा एकत्र नही हो पाएगी और बिखर जायेगी
|याद कीजिये कि विष्णु ,सरस्वती की पूजा -उपासना में पवित्रता ,सुचिता ,शुद्धता के
लिए क्यों कहा जाता है ,जबकि कर्ण पिशाचिनी ,श्मशानिक शक्तियों आदि की उपासना में
क्यों तामसिक वातावरण में साधना को निर्देशित किया जाता है |कारण है की जिस तरह की
शक्ति की उपासना कर रहे उसके अनुकूल वातावरण ,पूजा का तरीका ,चढ़ाए जाने वाले सामान
और आपका भाव होना चाहिए तभी वह आ पाएगी और जुड़ पाएगी |विपरीत भाव ,विपरीत वस्तुएं
और विपरीत पद्धति शक्ति को प्रतिकर्षित कर देती है |
किसी एक भाव में डूबिये ,उद्देश्य के
अनुसार भाव बनाइये ,यदि वह किसी देवी-देवता का भाव है |अपने उद्देश्य के अनुसार देवी-देवता का चुनाव करें और खूब अच्छी तरह उसे समझें -जानें ,उसके कर्म-गुण-भाव के अनुसार अपना भाव बनाएं [उग्र शक्ति हेतु उग्र भाव और सौम्य शक्ति
हेतु सौम्य भाव ],उसके प्रति अपने मन में भाव उत्पन्न करें की आप किस रूप में उस
शक्ति का अपने लिए आह्वान कर रहे हैं |अब उस भाव में डूबकर विधिवत निश्चित समय
,दिशा ,सामग्री ,हवन समिधा आदि के द्वारा विधि पूर्वक प्रत्येक तकनिकी और पूजा
पद्धति को अपनाकर उसी में लींन हो जाएँ ,डूब जाएँ |५ मिनट की स्मृति विहीनता
प्राप्त हो जाए तो आप कोई भी देवता ,कोई भी मंत्र सरलता से सिद्ध कर सकते हैं |यह
ठीक उसी प्रकार है ,जैसा बस के ड्राइवर को ट्रक ड्राइविंग का अभ्यास करना पड़े |यह
केवल वाहन बदलना है और उसकी तीब्रता को नियंत्रित करने जैसा है |हां इसके लिए पहले
तो आपको बस चलाना ,उसके पहले हलके वाहन और उसके पहले छोटा वाहन चलाना आना ही चाहिए
,|अचानक तो बस या ट्रक जान ले लेगा |अतः सर्व प्रथम तो एकाग्रता का अभ्यास ही होना
चाहिए और छोटी-छोटी क्रियाएं ,तकनीकियाँ आनी चाहिए |
वाम मार्ग की
तकनीकियों में संयम की कठोरता इतनी नहीं है |इसमें साधक के लिए ,साधना के समय संयम
रखने के लिए केवल काली ,भैरव आदि की साधना में विशेष आवश्यकता पड़ती है |इसमें
तकनिकी ,तंत्र -सामग्री ,शरीर के अंगों आदि का महत्व है ,जिन्हें अभ्यासित करना
पड़ता है |इससे शक्ति उत्पन्न होती है |साधक को उस शक्ति को नियंत्रित करने भर का
अभ्यास करना होता है |इस नियंत्रण के लिए ही तंत्र साधना की जाती है ,खुद को साधा
जाता है |जैसे काम भाव जाग्रत कीजिये पर स्खलन किये बिना समाधिस्थ हो जाइए |इसमें
पहले रीढ़ की हड्डी से होकर ऊर्जा उपर खींचा जाता है |यह सब तकनीकियाँ हैं |इन्ही
तकनीकियों के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है |कैसे क्या क्रिया करनी चाहिए ,यह जाने
बिना सफलता नहीं मिल सकती |इसीलिए तंत्र साधना बिना गुरु के नहीं हो सकती |
सिद्धि की
विधि कोई हो ,मार्ग कोई हो ,यदि सफलता चाहिए तो मानसिक शक्ति की तीब्रता ,दृढ़ता
,भाव को स्थिर किये रहने की क्षमता का विकास ही उद्देश्य होता है |जिसने इसे
प्राप्त कर लिया उसके लिए सभी सिद्धियाँ आसान हैं |विधि और मार्ग के अनुसार केवल
कुछ तकनीकियाँ बदलती हैं मूल सूत्र यथावत रहते हैं |मानसिक एकाग्रता और भाव के
बिना कोई सिद्धि या साधना सफल नहीं हो सकती |तकनिकी और सामग्री ऊर्जा उत्पन्न करते
या बढाते हैं और उसे नियंत्रित करने का तरीका बताते हैं पर मूल शक्ति का आकर्षण और
नियंत्रण मानसिक बल से ही होता है |मानसिक बल ,आत्मबल ,साहस ,धैर्य ,अट्टू निष्ठां
और खुद पर विश्वास के साथ जब भाव गहन हो ,एकाग्रता हो तो कोई भी शक्ति सिद्ध की जा
सकती है ,इन गुणों को विकसित करना ही तो खुद को साधना है जो आप साधते हैं |इनके बल
पर ही शक्तियाँ आती हैं और वशीभूत ,आकर्षित होती हैं ,उनकी ऊर्जा आपमें और आसपास
संघनित होती है |मानसिक बल से से ,मानसिक तरंगों की क्रिया से ही यह उर्जा काम
करती है जिसे सिद्धि कहते हैं |.............................................................हर हर महादेव
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