ध्यान :: ध्यान की प्रक्रिया और ध्यान के लाभ -२
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साधना के अवधि में ध्यानस्थ हो जाना एक साथारण बात मानी जाती है ,ऐसी स्थिति अगर किसी साधक में नहीं आती तो उसे
सफलता मिलती मुश्किल मानी जाती है |चाहे योग साधना हो ,तंत्र साधना हो अथवा वैदिक साधना पद्धति ,ध्यान सबका
अनिवार्य अंग है |यही वह सूत्र है जो किसी साधक को सफलता दिलाता
है |सभी पद्धतियों ,मार्गों में
उनके तदनुकूल अनुभव भी होता है |साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलगप्रकार के अनुभव होते हैं.|हर साधक की अनुभूतियाँ भिन्न होती हैं |अलग साधक को अलग प्रकार का अनुभव होता है |इनके अलग -अलग अनुभवों का कारण इनका अवचेतन मन ,वहां संगृहीत स्मृतियाँ ,किसी घटना या दृश्य
या ध्वनि आदि को विश्लेषित करने का भिन्न दृष्टिकोण ,भिन्न प्रकार की पूर्व अनुभूतियाँ ,भिन्न मार्ग और
भिन्न शक्ति का अनुसरण ,अलग तरह की ऊर्जा का संघनन /प्रभाव आदि होता है ,,
जबकि कभी कभी सामान अनुभव भी
होते हैं क्योकि प्रकृति मूल रूप से सबके लिए समान होती है और ब्रह्माण्ड की
क्रिया सभी आत्माओं के साथ समान होती है |इन अनुभवों के आधार
पर उनकी साधना की प्रकृति और प्रगति मालूम होती है |साधना के
विघ्न-बाधाओं का पता चलता है | साधना में ध्यान में होने वाले कुछ अनुभव निम्न प्रकार हो सकते हैं |
ध्यानावस्था की उच्चता पर अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्याकर रहा है (दु:खी है, रो रहा है, आनंद मना रहा है, हमें याद कर रहा है, कही जा रहा है या आ रहा है वगैरह) इसका आभासहो जाना और सत्यता जांचने के लिए उस व्यक्ति से उस समय बात करने पर उस आभास का सही निकलना हो सकता है , यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त/म को जोड़ देने पर होता है.|यद्यपि यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला हैक्र्योकि दूसरों के द्वारा इस प्रकार साधक का मन अपनी और खींचा जाता है और ईश्वर प्राप्ति के अभ्यास के लिए कमसमय मिलता है और अभ्यास कम हो पाता है जिससे साधना धीरे -धीरे क्षीण हो जाती है. इसलिए इससे बचना चाहिए ,फिर भी ध्यान की
विशेषता है की ऐसा अनुभव हो सकता है | दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें. अपनी साधना कीऔर ध्यान दें. इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बढती है. |
ध्यानावस्था की गहन अवस्था में कुंडलिनी जागरण भी हो सकता है ,और साधक को कुंडलिनी जागरण का अनुभव भी हो सकताहै | कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है| जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिरपरमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है.| यह कुंडलिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरेलेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है.| जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हमसांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं|. परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोईसर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुड़ा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमताहुआ ऊपर उठ रहा है|. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है.| यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.|जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है|. यह स्पंदन लगभगवैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है.| फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र परजाकर रुक जाती है.,जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है,| यानिउनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है.| इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों सेविरक्त भी हो सकते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग सकता है.| इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कईगुना बढ जाती है|. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.|कुंडलिनी
जागरण के साथ ही अतीन्द्रिय शक्ति का उदय हो जाता है ,इसलिए ऐसे समय खुद पर नियंत्रण और शक्ति के दुरुपयोग से भी बचना चाहिए |तंत्र साधकों में ऐसे समय में तीब्र भावनात्मक उभार हो सकता है जिससे उनमे
काम -क्रोध ,मोह ,माया बढ़ भी सकता है और उन्हें भौतिकता अपनी ओर खींच सकत है अगर उन्होंने
खुद को नियंत्रित नहीं किया |क्योकि योग साधकों से अधिक तंत्र साधकों में
ऊर्जा उत्पन्न होती है कुंडलिनी में और इसलिए उनके नियंत्रण न कर पाने पर पतन की
भी संभावना अधिक होती है |
कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षणोंमें ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना | गेंद कीतरह एक ही स्थान पर फुदकना,| गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना,| सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र परचींटियाँ चलने जैसा लगना,| कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना,| मुंह का पूरा खुलना और चेहरे कीमांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है ,आदि हो सकते हैं | इस स्थिति में घबराहट पर नियंत्रण अति आवश्यक
होता है ,क्योकि यह स्थितियां एकदम अलग अनुभव दिलाती हैं और भौतिक रूप से अनुभूत हो
सकती हैं जिससे साधक डर सकता है अथवा घबरा सकता है किन्तु यह आनंद के साथ
नियंत्रित रहने का समय होता है |अक्सर ऐसे समय में
ध्यान भंग हो सकता है क्योकि एकाग्रता पर असर पड़ सकता है |
ध्यान में कभी ऐसे लगता है जैसे पूरी पृथ्वी गोद में रखी हुई है या शरीर की लम्बाई बदती जा रही है और अनंत हो गई है,या शरीर के नीचे का हिस्सा लम्बा होता जा रहा है और पूरी पृथ्वी में व्याप्त हो गया है, शरीर के कुछ अंग जैसे गर्दन कापूरा पीछे की और घूम जाना, शरीर का रूई की तरह हल्का लगना, ये सब ध्यान के समय कुण्डलिनी जागरण के कारणअलग-अलग चक्रों की प्रतिभाएं प्रकट होने के कारण होता है. परन्तु साधक को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए, केवलपरमात्मा की प्राप्ति को ही लक्ष्य मानकर ध्यान करते रहना चाहिए. इन प्रतिभाओं पर ध्यान न देने से ये पुनः अंतर्मुखीहो जाती हैं |.वास्तव में यह भौतिक शरीर की क्रिया न होकर सूक्ष्म शरीर की क्रियाएं होती
हैं किन्तु चूंकि सूक्ष्म और भौतिक जुड़े होते हैं अतः
साधक को लगता है की भौतिक शरीर के साथ ही ऐसा हो रहा है |
कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास लेजाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है,| उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झनझन) का साअनुभव होता है. साधक आश्चर्यचकित होकर बार बार इसे करके देखता है,| वह परीक्षण करने लगता है कि देखेंकि यहदुबारा भी होता है क्या. और फिर वही घटना घटित होती है.| तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्यघटना उसके साथ घटित हो रही है. |वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि सेउत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है.| वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तबइस प्रकार की घटना घटित हो जाती है. |
साकार साधना अथवा तंत्र साधना में ध्यान के अवस्था
में साधक को अपने सामने अपने ईष्ट के खड़े हो जाने और खुद के उनमे भाव लीं हो जाने
का अनुभव हो सकता है |अक्सर यह
एकाग्रता से ध्यान करने पर शुरुआत में भी हो सकता है |उस समय महसूस हो सकता है की जैसे वह किसी और लोक में हो |ख़ुशी और भय के मिश्रित अनुभव हो सकते हैं |भय लग सकता है की उसका शरीर से नाता टूट तो नहीं
गया या वह शरीर से अलग हो कहीं और तो नहीं आ गया अथवा उसे महसूस हो सकता है की वह
अपने ईष्ट के चरणों में उनके लोक में पहुँच गया है और उसका लक्ष्य पूरा हुआ |इस स्थिति में ईष्ट से वार्तालाप भी गंभीर
अवस्था में संभव है और अनुभव होता है की वह सचामुव्ह भौतिक शरीर में है और ईष्ट से
बात कर रहा है |यही वह दुर्लभ अनुभव
है जिसकी हर साकार साधना करने वाला कल्पना करता है |यह अवस्था हर बार अथवा हर रोज आनी मुश्किल होती है और इसी अवस्था में
गंभीर समाधि की अवस्था भी आ सकती है |योग में सबकुछ नियंत्रित करके चला जाता है किन्तु तंत्र का ऊर्जा प्रवाह
इतना तीब्र होता है की कभी भी कोई भी घटना संभावित होती है |
कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तकहाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है. तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं.| वास्तव में यह साधक केशरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है.| रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना.,साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है.| मंत्र शक्ति वरेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करनेकी तीव्र भावना करना.|जिसे किसी उच्च शक्ति के मंत्र सिद्ध हैं अथवा
जो ध्यानावस्था की एकाग्रता की स्थिति प्राप्त कर चूकाहै,वह अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग परबिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें. फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करेंऔर ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है.| कुछ ही देर में आपको कुछ झनझन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा. इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं. यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है.| .....[स्वयं के तंत्र अनुभव और साधकों के अनुभव पर
आधारित ]............[क्रमशः ].........................................................हर-हर महादेव
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