क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में [भाग- ३]
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साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं.|हर साधक की अनुभूतियाँ भिन्न होती हैं |अलग साधक को अलग प्रकार का अनुभव होता है |इन अनुभवों के आधार पर उनकी साधना की प्रकृति और प्रगति मालूम होती है |साधना के विघ्न-बाधाओं का पता चलता है | साधना में ध्यान में होने वाले कुछ अनुभव निम्न प्रकार हो सकते हैं |
कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है.| यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर सेनिकलते हुए २ अन्य शरीर.| तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़भी देता है.| परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है |. एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है.| दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर(मनोमय शरीर) कहलाता है| तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है|. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूलशारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता हैआदि|. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है| यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है.|तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं.| मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एकस्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नयाजन्म होता है.| इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं |
अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों काअनुभव होता ही है |. कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकलकर एक स्थान परएकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है.| उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ कीभांति क्रियाहीन हो जाता है.| इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं.| कभी-कभी ऐसा लगता है किवह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है.| कभी ऐसाभी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया |मतलब जीवात्मा हमारेशरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी. ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्मशरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है.| "स्थूल शरीर मैंही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है.|कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं,| ऐसा उस सूक्ष्म शरीरके द्वारा ही संभव होता है. उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है. |यह सब साधना की बेहद उच्च अवस्था में ही होता
है |साधना अथवा ध्यान के शुरू के चरणों में तो
अधिकतर वही अनुभव होता है जो अलौकिक शक्तियां पेज पर हमने शुरू के दो पोस्टों में
लिखा है |हर साधक के साथ हर अनुभव होता भी नहीं |सबके साथ भिन्न भिन्न अनुभव होते हैं |यहाँ लिखे
जा रहे अनुभव उनकी एक बानगी मात्र हैं |इनसे अलग -भिन्न और अलौकिक अनुभव भी हो सकते हैं |यहाँ के
विभिन्न अनुभव विभिन्न साधकों के विभिन्न अनुभवों पर आधारित हैं जिसे एकत्र कर
अलौकिक शक्तियां पेज पर दिया जा रहा है जिससे सामान्य जानकारी मिल सके |
कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है औरजब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, "अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकरदेखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?" वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है,|साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्रप्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है. इसे दिव्य दर्शन भी कहते हैं. | आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछदिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य कीघटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है. |
सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है.| यह कुण्डलिनी जागने वपरमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है.| उस तेज को सहन करना कठिन होता है.| लगता है कि आँखें चौंधियागईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है. |वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है.| इसको देखने कानित्य अभ्यास करना चाहिए.| समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है.|
साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) वशरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है |. यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है. उस समय हम संसार को पूरी तरहभूल जाते हैं |(ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं).| सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है,| क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है?वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं.| यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है| अतः साधक घबराएं
नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें.| यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है.| वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति
में होता है,| इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है. |इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, |परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास
नहीं है.| इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास
करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं\, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे. साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ.| इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण)नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास
करें.| उसमे बताई गई युक्तियों "जिस प्रकार
समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी
की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है." का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है,| सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है. |
जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरहबहुत हल्का लगने लगता है.| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार,स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक "मैं यह स्थूल शरीर हूँ" ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूलशरीर ही भार से युक्त है|, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से "मैंशरीर हूँ" ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि "मैं सूक्ष्म शरीर हूँ" या "मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ" ऎसी भावनादृढ हो जाती है. |यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है.| दूसरी बात यह हैकि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है|. यह दिव्य शक्ति शरीर मेंअहम् भावना यानी "मैं शरीर हूँ" इस भावना का नाश करती है, |जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम होजाता है. |ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश मेंचलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है,| ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है.|परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए. |................................................................हर-हर महादेव
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