ध्यान से उपजती है—अतीन्द्रिय संवेदना
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योग साधक की दृष्टि, उसकी संवेदना औरअनुभूतियों का संसार सबसे अलग विशेष व विलक्षणहोता है। वह सामान्य इन्द्रियों से पार व परे देखता है,जानता है, अनुभव करता है। उसके सामने सत्य केव्यापक रूप प्रकट होते हैं। उसकी अन्तर्चेतना मेंअस्तित्व की इन्द्रधनुषी छटा झलकती है। इस छटाकी एक झलक उसकी साधना को तीव्र से तीव्रतर करदेती है। अन्तर्मन के अँधेरे कोनों में उतरी प्रकाश कीपवित्र किरण को निहार कर उसकी साधना और भीनिखर उठती है। यह एक ऐसा अनुभव है, जिसके बारेमें यही कहा जा सकता है- ‘देखो तो जानो’।
वस्तुतः यदि किसी ने पूरी तल्लीनता से प्राणायाम की साधना की है, तो वह अनायास ही ध्यान की साधना काअधिकारी बन जाता है। उसके अपनी चेतनता में योग के रहस्य खुलने लगते हैं। उसकी अतीन्द्रिय संवेदनाओं में साधनाके सत्य व तत्त्व झलकने लगते हैं। जिसे इस अनुभूति की झाँकी मिली है, उसके लिए महर्षि अगला सूत्र कहते हैं-
इस अगले सूत्र में योग साधना को और भी अधिक गहरा करने की उम्मीद व तकनीक है। यह सूत्र है-
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिबन्धनी॥१/३५॥
शब्दार्थ-
विषयवती= विषयवाली; प्रवृत्तिः= प्रवृत्ति; उत्पन्ना= उत्पन्न होकर (वह) वा= भी; मनसः= मन की;स्थितिनिबन्धनी= स्थिति को बांधने वाली हो जाती है।
अर्थात् जब ध्यान के अभ्यास से (दिव्य विषयों का साक्षात् कराने वाली) अतीन्द्रिय संवेदना उत्पन्न होती है, तो मनआत्मविश्वास पाता है और इसके कारण साधना में निरन्तरता बनी रहती है,, महर्षि अपने इस सूत्र में प्रकारान्तर से अभ्यास की महिमा बताते हैं। वह बताते हैं ध्यान की गहराई में होने वालेपहले अनुभवों के बारे में। साधकों की परम्परा में एक कहावत बड़े प्यार से दुहराई जाती है,,और वह कहावत है कि दोआँखें तो सभी की होती हैं, साधक तो वह है जिसकी तीसरी आँख हो।जिसके तीसरी आँख है, वही दृष्टिवान् है, अन्यथावह अन्धा है,,और यह तीसरी आँख है— जाग्रत् मन। इसे ही अतीन्द्रिय संवेदना कहते हैं। यह अतीन्द्रिय संवेदना कोईबहुत ज्यादा बड़ी चीज नहीं है। जो भी योग साधना करते हैं, उन सभी को पहले ही कदम पर अतीन्द्रिय संवेदना काअनुदान मिलता है,,इन्द्रियों के झरोखे से मन पदार्थ जगत् को देखता है; लेकिन अतीन्द्रिय संवेदनाओं के वातायन सेचेतना जगत् की झाँकी मिलती है। ‘आध्यात्मिक अनुभवों की प्रकाश धाराएँ’ अवतरित होती हैं,,ये ऐसे अनुभव है जिसका एक कण- एक क्षण भी मिल जाय, तो साधक की साधना की तीव्रता व सघनता कई गुनीबढ़ जाती है। जिसे अपने ध्यान में अनुभूतियों की यह सम्पदा मिलती है, वह ध्यान किए बिना रह नहीं सकता,,ध्यानउसके जीवन में श्वासों की भाँति घुल जाता है। कई बार गुरु अपनी तप शक्ति से, आध्यात्मिक ऊर्जा से ऐसे दिव्यअनुभव प्रदान कर देते हैं, ताकि शिष्य की साधना में गति आए। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य रामानुज के जीवन की ऐसीही एक कथा का जिक्र किया करते थे। यह कथा सद्गुरु की कृपा से परिपूरित अनुदान की है। आचार्य रामानुज उन दिनोंश्रीरंगम में थे। विशिष्टाद्वैत दर्शन के आचार्य के रूप में उनका यश दिगन्त व्यापी हो चुका था। उनकी महान्आध्यात्मिक शक्ति की कथा, गाथाएँ गाँव- गाँव में कही- सुनी जाती थी।
ऐसे परम पवित्र महान् आचार्य इस श्रीरंगम के पीठ में आसीन थे। श्रीरंगम में मेले की भारी भीड़ थी। दर्शनाॢथयों का ताँतालगा था। इन दर्शनाॢथयों की भीड़ में एक विचित्र व्यक्ति भी था। लोग उसे भय, घृणा और आतंक मिश्रित नजरों से देखरहे थे। इन देखने वालों के मन में बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा था; पर किसी में साहस ही नहीं था कि कोई उससे कुछ कहे।यह दृश्य ही कुछ ऐसा था,,यह विचित्र व्यक्ति उस इलाके का खूंखार दस्यु दुर्दम था,और वह एक महिला के साथ उस परछतरी लगाए जा रहा था,, उसकी नजरों में उस महिला के लिए भारी वासनात्मक आसक्ति थी,प्रभु मन्दिर में भी इसवासना भरे कुत्सित दृश्य को लोग हज़म नहीं कर पा रहे थे। पर कोई कहता भी क्या?
आचार्य रामानुज ने भी यह विचित्र दृश्य देखा,,उन्हें भी कुछ अटपटा लगा,,असमंजस भरे स्वर में उन्होंने अपने एकशिष्य से पूछा भगवान् श्रीरंगम के पवित्र स्थान में यह कौन है? शिष्य ने डाकू दुर्दम की कथा, उसके अत्याचारों केवीभत्स विवरणों के साथ सुना डाली,,आचार्य शिष्य की सारी बातें सुनते रहे,,इन बातों में उस महिला का जिक्र भी कईबार आया, जिसके पीछे यह डाकू छतरी लगाए जा रहा था,,सारी कथा सुनने के बाद आचार्य ने अपने इस शिष्य से कहा-तुम जाकर उसे बुला लाओ। पर क्यों भगवन्! शिष्य ने लगभग सहमते हुए कहा। प्रश्र न करो वत्स! बस तुम उसे बुला दो।भगवान् उस पर कृपा करना चाहते हैं।
आचार्य की रहस्य वाणी शिष्य की समझ में न आयी। फिर भी उसने आदेश का पालन किया। डाकू दुर्दम भी इसअप्रत्याशित बुलावे के लिए तैयार न था। वह भी आचार्य की आध्यात्मिक विभूतियों की कथाएँ सुन चुका था। सो इसबुलावे पर उसे भी थोड़ा डर लगा। क्योंकि अपने मन के किसी कोने में उसे अपने पापों का बोध था। इसलिए अनजाने भयके पाश में बँधकर आचार्य के समीप जा पहुँचा। आचार्य ने उसे देखा। उनकी इस दृष्टि में उसके लिए करुणापूरितवात्सल्य था। बड़े प्यार से उन्होंने उससे पूछा- तुम्हारे साथ में जो देवी हैं, वे कौन हैं वत्स? इस सवाल के उत्तर में दुर्दम नेलज्जा से अपना सिर झुका लिया। वैसे भी आचार्य की अतीन्द्रिय संवेदनाओं से भला क्या छुपता?
आचार्य ने फिर से टटोलने वाली नजरों से उसे देखते हुए दुर्दम से पुनः सवाल किया- वत्स, इस स्त्री में तुम्हें क्याअच्छा लगता है? डाकू दुर्दम ने अबकी बार थोड़ा झिझकते हुए उत्तर दिया- भगवन् मैं इसके रूप और सौन्दर्य से मोहितहूँ। और यदि इससे भी श्रेष्ठ सौन्दर्य की झलक तुम्हें मिल जाय तो? तब तो मैं इसे छोड़ दूँगा, दुर्दम ने उत्तर दिया।आचार्य उसके इस उत्तर पर मुस्कराए और बोले- नहीं तुम इसे छोड़ना मत। इससे विवाह करना और एक सद्गृहस्थ कीभाँति रहना। ऐसा कहते हुए आचार्य ने उसके सिर पर धीरे-धीरे हाथ फेरा। लगभग तीन पल वे ऐसा ही करते रहे। बाद मेंउन्होंने उसे तीन थपकियाँ दीं। इतना करते ही दुर्दम जैसे चेतना शून्य हो गया। बस वह निस्पन्द बैठा रहा। उसकी आँखोंसे आँसू झरते रहे। काफी देर बाद उसकी चेतनता बाह्य जगत् में लौटी। अब तो बस उसकी एक ही रट थी, मुझे वही दृश्य,वही अनुभूति बार-बार चाहिए। मुझे प्रभु का वही सौन्दर्य सतत निहारना है।
शान्त स्वर में आचार्य ने कहा- इसके लिए तुम ध्यान करो वत्स! तुमने जो अनुभव किया- वह सब ध्यान का अनुभवथा। हाँ बस बात इतनी है कि यह ध्यान तुम्हें मेरे प्रयास से लगा। आगे तुम्हें स्वयं प्रयास करने होंगे। ध्यान करते-करतेअतीन्द्रिय संवेदना के जागरण से ये अनुभव तुम्हें नित्य होंगे। आचार्य के वचन दुर्दम के लिए प्रेरणा बन गए और उनकीकृपा से हुए आध्यात्मिक अनुभव उसके लिए ऊर्जा का स्रोत। अतीन्द्रिय संवेदनों से हुई अनुभूति ने डाकू दुर्दम को महान्सन्त में बदल दिया। .........................................................हर-हर महादेव
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