हमारा शरीर अतीन्द्रिय ज्ञान का स्रोत है
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जब मन में तरंग उठती है तो आदमी बेभान हो जाता है। उसे भान ही नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है, क्या करना है? विचार की तरंग का प्रभाव विचित्र होता है।
एकाग्रता बहुत बड़ी शक्ति है। जिस व्यक्ति में एकाग्रता की शक्ति विकसित हो जाती है, उसकी सारी शक्ति केन्द्रित हो जाती है और वह केन्द्रित शक्ति विस्फोट करती है। जैसे किसी शिलाखंड को निकालने के लिए बारूद का विस्फोट किया जाता है, वैसे ही शक्ति के आवरण को हटाने के लिए यह विस्फोट होता है।
एकाग्रता की शक्ति
अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना के अनेक उपाय हैं। उनमें दो हैं- इन्द्रिय का संयम और स्थिरीकरण तथा एकाग्रता। स्थिरीकरण मन का भी होता है और वाणी तथा शरीर का भी होता है। यह एकाग्रता है। जब मन, वाणी और शरीर की चंचलताएं समाप्त होती हैं, तब बाधाएं दूर हट जाती हैं। चंचलता सबसे बड़ी बाधा है। हिलते हुए दर्पण में मुंह दिखाई नहीं देता। स्थिर दर्पण में ही मुंह देखा जा सकता है। जब चेतना स्थिर होती है, तब इसमें बहुत चीजें देखी जा सकती है। जब चेतना चंचल होती है, तब उसमें कुछ भी दिखाई नहीं देता।
तीसरा उपाय है- निर्विकल्प होना। निर्विकल्प का अर्थ है- विचारों का तांता टूट जाए। एकाग्रता और निर्विकल्पता में बहुत बड़ा अन्तर है। एकाग्रता का अर्थ है- किसी एक बिन्दु पर टिक जाना। यह भी एक प्रकार की चंचलता तो है ही। हम अहं या ओम् पर स्थिर हो गए, फिर भी यह चंचलता है। वहां न कोई विकल्प होता है, न शब्द, न चर्चिन और मनन। निर्विकल्पता अतीन्द्रियी ज्ञान का सशक्त माध्यम है। निर्विकल्प अवस्था का अभ्यास बहुत बड़ी साधना है। इसमें न स्फूर्ति रहती है, न कल्पना रहती है। बाहर का कोई भान नहीं होता। इसमें केवल अंतर्मुखता, केवल आत्मानुभूति, गहराई में डुबकियां लेना होता है। इस स्थिति में आवरण बहुत जल्दी टूटता है। आवरण को बल मिलता है विकल्पों के द्वारा। विकल्प-विकल्प को जन्म देता है। तरंग-तरंग को पैदा करती है। जब विकल्प समाप्त हो जाता है, तब आवरण को पोषण नहीं मिल पाता। वह स्वत: क्षीण होता जाता है। आहार के अभाव में जैसे शरीर क्षीण होता जाता है, वैसे ही पोषण के अभाव में आवरण क्षीण होता जाता है।
जिन लोगों ने एकाग्रता साधी है, निर्विकल्पता और समता साधी है, उन्हें ही अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति हुई है। अतीन्द्रिय ज्ञान के तीन प्रकार हैं। अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इन सबकी प्राप्ति के लिए समता की साधना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता के द्वंद्व में आदमी उलझा रहता है, तब तक आवरण को पोषण मिलता रहता है। जब समता सध जाती है, तब आवरण पुष्ट नहीं होता। आवरण की क्षीणता में ही अतीन्द्रिय चेतना जागती है।
भगवान महावीर, महात्मा बुध्द, ईसामसीह, मोहम्मद साहब आदि जितने भी विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं और जिन-जिन को विशिष्ट ज्ञान या बोधि की प्राप्ति हुई है, वह साधना के द्वारा ही हुई है। उस विशिष्ट साधना का एक महत्वपूर्ण अंग है समता।
समय की साधना
समता की साधना का अर्थ है इन्द्रिय संयम की साधना। इसके अन्तर्गत आहार-संयम की बात स्वत: प्राप्त हो जाती है। आहार-संयम शक्ति जागरण में सहायक होता है। एक व्यक्ति यदि छह महीने तक आयंबिल तप करता है अर्थात् एक ही धान खाता है, उसमें ऐसी शक्ति जाग जाती है कि वह भूमि के अन्तर्गत रहने वाली वस्तुओं का जान-देख सकता है। इसका तात्पर्य है कि आहार संयम के द्वारा मलों का शुध्दिकरण होता है, आवरण हटता है। भोजन से आवरण बढ़ता है, ज्ञान केन्द्र अवरुध्द होते हैं। आहार शरीर-पोषण के लिए आवश्यक है तो आहार-संयम ज्ञान के स्रोतों को प्रवाहित करने के लिए अनिवार्य है। भोजन से मैल जनमता है और वह इतना सघन हो जाता है कि अतीन्द्रिय चेतना के जागरण की बात दूर रह जाती है, इन्द्रिय चेतना भी अस्त-व्यस्त हो जाती है। आहार-असंयम से पांचों इन्द्रियों का काम अनियमित और न्यून हो जाता है। आंख की ज्योति कम हो जाती है। सुनने की शक्ति कम हो जाती है। त्वचा का संवेदन भी न्यून हो जाता है। अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना करने वाले को सबसे पहले आहार-संयम पर ध्यान देना चाहिए। जितना आहार संयम होगा, उतना ही बल मिलेगा अतीन्द्रिय साधना में। बिना साधनों के भी उसकी प्राप्ति होती है,।
हमारा शरीर अतीन्द्रिय ज्ञान का स्रोत है। कभी-कभी अचानक कोई घटना घटती है और वे स्रोत उद्धटित हो जाते हैं तब आदमी को अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति का अनुभव होने लग जाता है। एक आदमी ऊपर की मंजिल से गिरा। अचानक मस्तिष्क पर प्रहार हुआ और ज्ञान का स्रोत खुल गया। उसे अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि हो गई। ऐसी एक नहीं, अनेक घटनाएं घटित हुई हैं। ये बिना किसी साधन या साधना से होने वाले अतीन्द्रिय ज्ञान की घटनाएं हैं।
साधना और आकस्मिकता ये दोनों अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं। साधना की अपनी विशेषता है,क्योंकि उसकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है। आकस्मिकता कभी-कभार होती है। साधना के विषय में हमने अनेक बातें जानीं पर वे पर्याप्त नहीं हैं। जानने से ही ज्ञान नहीं मिलता। उन साधनों की क्रियान्विति महत्वपूर्ण होती है। यदि हम उन साधनों का प्रयोग करते हैं तो अतीन्द्रिय ज्ञान-प्राप्ति के क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं। ...............................................................हर-हर महादेव
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