Sunday, 7 October 2018

भैरवी विद्या और रति सिद्धांत [Bhairavi Vidya and fusion]


भैरवी विद्या :: बिना रति के कोई सृष्टि नहीं होती 
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रति का नाम सुनते ही सामान्यतया हर किसी के मष्तिष्क में मानव या जंतु रति की बात दिमाग में आती है |किन्तु यह केवल इन्ही में नहीं होती यह समस्त सृष्टि के प्रत्येक उत्पत्ति के पूर्व होती है |अध्यात्म-धर्म के क्षेत्र में तो इसका नाम सुनते ही बहुतेरे नाक-भौ सिकोड़ने लगते हैं ,जबकि इसके बिना तो कुछ संभव ही नहीं |उन नाक भौ सिकोड़ने वालों तक की उत्पत्ति संभव ही नहीं ,फिर इससे इतनी अस्पृश्यता क्यों |बिना रति के तो यह जीवन ही संभव नहीं |रति केवल जीवन या जीव उत्पत्ति को ही नहीं कहते |किसी भी प्रकार के उत्पादन में होने वाली आपसी क्रिया रति है |चाहे वह ऊर्जा उत्पादन ही क्यों हो |रति तो समस्त सृष्टि में चल रही है |रति से ही तो सृष्टि उत्पन्न हुई है |समस्त सृष्टि रति संलग्न है |मूल देवता अर्थात मूल राज राजेश्वर शिव या विष्णु ब्रह्माण्ड के नाभिक के केंद्र में रति संलग्न हैं |इससे ही आत्मा नामक सूक्ष्मतम परमाणु सृष्टि बीज के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में बर्फ के फुहार की भांति विकरित हो रहा है |इसकी रति से ही ब्रह्माण्ड के नया ऊर्जा केन्द्रों की रति चल रही है |हमारा सूर्य भी इसी के कारण रति संलग्न है और ऊर्जा उत्पादित कर रहा है और हमारे ग्रह भी |हमारा नाभिक भी रति संलग्न है ,हमारे अन्य ऊर्जा केंद्र भी |इस रति से ही हमारा जीवन ,हमारी क्रिया ,हमारी समस्त प्रवृत्तियाँ एवं गुणों का अस्तित्व है |जैसे ही यह रति रुकेगी हम मृत हो जायेंगे |इस रति से ही हमें वह अमृत प्राप्त होता है ,जो जीवन के लिए आवश्यक है |धनात्मक और ऋणात्मक ऊर्जा धाराओं के मध्य जब आपसी क्रिया होती है तो ऊर्जा फुहार निकलती है ,जिससे खाली हुए स्थान को भरने के लिए ब्रह्माण्ड से अमृत तत्व या परम तत्व की ऊर्जा आती है |उसी से जीवन चलता है |आपसी क्रिया बंद ,तो परम तत्व की ऊर्जा आणि बंद और जीवन समाप्त |परमाणुओं के मध्य आपसी संयोग रति है जिससे नया पदार्थ बनता है |रति ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का ,सृष्टि की उत्पत्ति का ,जीवन की उत्पत्ति का कारण है |इसी से सृष्टि हो रही है अन्यथा तो कुछ बन रहा है , नष्ट हो रहा है |मूल तो बस परम तत्व है ,बस वह स्वरुप बदलता रहता है |इसी रति को भैरवी चक्र के माध्यम से व्यक्त किया जाता है |दो शंक्वाकार [त्रिभुज] ऊर्जा धाराएं जिनपर भिन्न आवेश है एक दुसरे के आकर्षण में आपस में समाकर एक नए की सृष्टि कर देते हैं |इनके आपस में मिलने पर नाभिक या मध्य केंद्र उत्पन्न होता है जिसमे परम तत्व ही अपने सगुण रूप राज राजेश्वर शिव या विष्णु के रूप में स्थापित हो उस इकाई का संचालन करता है |इसी ऊर्जा की अभिव्यक्ति भैरवी चक्र है |भैरवी चक्र की साधनाओं में लिंग एवं योनी की पूजा की जाती है |इसकी तकनिकी और साधनाएं आश्चर्यजनक हैं |यदि कोई कुछ भी कामना करता है ,तो इसकी विधियों से वह वर्षों का काम सप्ताहों में पूर्ण कर लेता है |यही कारण है की तंत्र मार्ग में सर्वाधिक महत्व इन्ही साधनाओं को प्राप्त है |कहा गया है की एक वीराचारी साधक हजार तपस्वियों के बराबर होता है |लिंग और योनी पूजा का तात्विक अर्थ है |यद्यपि यह पूजा स्थूल रूप से भी होती है ,किन्तु तात्विक अर्थ यही होता है की धनात्मक ऊर्जा धारां ,ऋणात्मक ऊर्जा धारा के प्रतिक्रिया स्वरुप उत्पन्न होती है और ऋणात्मक के आवेश से आकर्षित हो उसमे समाकर एक नई सृष्टि करती है |लिंग-योनी पूजा दो प्रक्रितोयों की पूजा है ,दो गुणों की पूजा है जिनके कारण सृष्टि उत्पन्न होती है |यह प्रकृति अथवा ब्रह्माण्ड की मूल शक्तियों की सांकेतिक पूजा या सगुण स्थूल और सामान्य उपलब्ध पूजा है |यह यह भी संकेत करता है की परम तत्व के दोनो विपरीत गुण जिनसे सृष्टि की ,जीव की उत्पत्ति होती है हममे है ,उसे कहीं अन्य खोजने की जरुरत नहीं है ,प्रकारांतर से यह परम तत्व के दोनों गुणों की पूजा है |भैरवी साधना में मनुष्य के सृष्टि क्षमता को ही परम तत्व या परमात्मा की प्राप्ति का माध्यम बनाया जाता है ,जिसमे प्रथम लक्ष्य दोनों गुणों के मध्य स्थित राज राजेश्वर शिव या अर्ध नारीश्वर की प्राप्ति होती है |इनके बिना परम तत्व तक पहुचना संभव नहीं होता |..................................................................हर-हर महादेव

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