सात
शरीर :: सनातन अवधारणा और भौतिक जीवन
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मानव शरीर एक
कम्प्यूटर के समान ही रहस्यपूर्ण यन्त्र है ,इसे ठीक से समझने के लिए मानव के
विभिन्न आयामों को समझना आवश्यक है |बाहरी रूप से जो शरीर हमें दिखाई देता है
वास्तव में वह शरीर का केवल दस प्रतिशत भाग होता है |विद्वानों ने शरीर के सात
स्तरों की बात की है -
१- स्थूल शरीर [फिजिकल बाडी] २- आकाश शरीर [ईथरिक बाडी] ३- सूक्ष्म शरीर [एस्ट्रल
बाडी] ४- मनस शरीर [ मेंटल बाडी] ५-
आत्म शरीर [स्पिरिचुअल बाडी] ६- ब्रह्म शरीर [कास्मिक बाडी] और ७- निर्वाण शरीर [बाडिलेस बाडी]
सनातन
सिद्धांत और सोच के अनुसार मनस शास्त्रियों का कहना है की व्यक्तियों के जीवन में
यह सातों स्तर उत्तरोत्तर विकसित होते हैं |सामान्य जन इसे नहीं समझ पाते ,यहाँ तक
की साधक और कुंडलिनी के जानकार भी इसे व्यावहारिक स्तर पर न देखते हुए मात्र साधना
से ही इनकी प्राप्ति और समझने की बात करते हैं |व्यावहारिक दृष्टिकोण की बात करें
तो मनस शास्त्रियों के अनुसार सामान्य योग व्यवहार में रहते हुए एक शरीर का विकास
लगभग सात वर्ष में पूरा हो जाना चाहिए और लगभग ५० वर्ष की आयु होने तक व्यक्ति
सातवें शरीर का विकास करके विदेह [बाडीलेस ]अवस्था में पहुँच जाना चाहिए |इस विदेह
अथवा बाडिलेस अवस्था का अर्थ यह नहीं की व्यक्ति का भौतिक शरीर नहीं रहेगा अथवा
व्यक्ति कोई भौतिक कर्म नहीं करेगा |इसका अर्थ केवल इतना है की वह सारे कार्य इस
ढंग से करना सीख लेगा की उसकी आत्मा पर कोई कर्म का बंधन न लग पाए ,अर्थात आत्मा
निर्लेष रहे |आत्मा प्रायः उस अवस्था में निर्लेष रहती है जब वह शरीर रहित होती है
|यह एक मेटाफिजिकल सिद्धांत है |यह सूत्र हमारे सनातन दर्शन में जीवन के लिए बनाए
गए थे और वैदिक काल में इसका पालन होता था |जीवन का ढंग ऐसा था की इसके अनुसार
जीवन चले |
इस सूत्र के
अनुसार ,जीवन के प्रथम सात वर्ष में बच्चे का स्थूल शरीर पूरा होता है जैसे पशु का
शरीर विकास को प्राप्त होता है |इस अवस्था में व्यक्ति में अनुकरण तथा नकल करने की
प्रवृत्ति रहती है |प्रायः यह प्रवृत्ति पशुओं की भी होती है |कुछ ऐसे व्यक्ति भी
होते हैं जिनकी बुद्धि इस भाव से उपर नहीं उठ पाती और पशुवत जीवन जीते रह जाते हैं
|इसे हम योग की भाषा में कहते हैं की व्यक्ति प्रथम शरीर से उपर नहीं उठा |
द्वितीय शरीर
अर्थात आकाश शरीर में भावनाओं का उदय होता है अतः इसे भाव शरीर भी कहते हैं |प्रेम
और आत्मीयता वाली समझ विकसित होने से व्यक्ति सांसारिक सम्बन्धों को समझने लगता है
|इस आत्मीयता के कारण ही व्यक्ति में पशु प्रवृत्ति कम होकर मनुष्य प्रवृत्ति का
विकास होता है |चौदह वर्ष का होते होते वह सेक्स के भाव को भी समझने लग जाता है
|बहुत से लोगों के चक्र यहीं तक विकसित हो पाते हैं और वे पूरे जीवन भर घोर संसारी
बने रहते हैं |
तृतीय शरीर
सूक्ष्म शरीर कहलाता है |सामान्यतः इसकी विकास की अवधि २१ वर्ष तक है |इस अवधि में
बुद्धि में विचार और तर्क की क्षमता का विकास हो जाने के कारण व्यक्ति बौद्धिक रूप
से सक्षम हो जाता है और व्यक्ति में सांस्कृतिक गुण विकसित हो जाते हैं |सभ्यता भी
आ जाती है और शिक्षा के आधार पर समझ भी बढ़ जाती है |इस स्तर के लोग जीवन और जन्म
-मृत्यु को ही सब कुछ समझते हैं |
चतुर्थ शरीर
अगले सात वर्ष तक विकसित हो जाना चाहिए |इसे मनस शरीर कहते हैं |इस स्तर पर मन
प्रधान होता है ,अतः व्यक्ति ललित कलाओं ,संगीत ,साहित्य ,चित्र कारिता काव्य आदि
में रूचि लेने लगता है |टेलीपैथी ,सम्मोहन यहाँ तक की कुंडलिनी भी इसी स्तर तक
विकसित हुए व्यक्ति को रास आती है ,चूंकि यह स्तर व्यक्ति को कल्पना करने की ऐसी
शक्ति देता है की वह पशुओं से श्रेष्ठ बन जाता है |स्वर्ग नर्क की कल्पना भी इसी
स्तर में आती है |
पांचवां
शरीर आध्यात्मिक होता है |इस स्तर पर पहुंचे व्यक्ति को आत्मा का अनुभव हो पाता है
|यदि चौथे स्तर पर कुंडलिनी जाग्रत हो जाए तो इस शरीर का अनुभव हो पाता है |यदि
नियम संयम से व्यक्ति का विकास होता रहे तो लगभग 35 वर्ष की आयु तक व्यक्ति इस स्तर पर पहुँच जाता है |यद्यपि आज के आधुनिक
जीवन शैली में सामान्य जन के लिए यह बेहद कठिन है |मोक्ष कका अनुभव इस स्तर पर हो
सकता है ,मुक्ति का अनुभव हो जाता है |
छठवां है
ब्रह्म शरीर |इस स्तर पर व्यक्ति अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव कर पाता है |ऐसी
कास्मिक बाडी सामान्यतः अगले सात वर्श्ह में विकसित हो जानी चाहिए |सातवाँ शरीर
निर्वाण शरीर कहलाता है जो की विदेह अवस्था है |भगवान् बुद्ध ने इस स्थिति को ही
निर्वाण कहा है |यहाँ अहं और ब्रह्म दोनों ही मिट जाते हैं |मैं और तू दोनों के ही
न रहने से यह स्थिति परम शून्य की बन जाती है |
इन
सातों शरीरों का क्रमिक विकास बहुत से लोगों में जन्म जन्म चलता रहता है |कोई
प्रथम शरीर के साथ जन्म लेता है तो कोई चौथे स्तर के साथ |करोड़ों में कोई एक छठवें
स्तर के साथ जन्म लेता है जो जन्म से ही विरक्त हो जाता है |जैसे स्तर के साथ
व्यक्ति का जन्म होता है वह चौदह वर्ष का होते होते व्यक्ति में प्रकट होने लगता
है |उसकी सोच ,संसार को देखने का दृष्टिकोण ,व्यवहार ,समझ आदि में सामान्य व्यक्ति
की अपेक्षा अंतर देखने को मिलता है |[[क्रमशः - अपने ब्लॉग Tantra Marg और पेज पाठकों के लिए - पंडित जितेन्द्र मिश्र
]].......................................................हर हर महादेव
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