भैरवी चक्र की उत्पत्ति
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सदाशिव या परमात्मा ही परम तत्व है |इनकी इच्छा से ही सृष्टि होती है |परम तत्व की इच्छा होने पर परमतत्व के अनंत फैलाव में किसी एक बिंदु पर विकोचन होता है और चक्रवात की भाँती एक अत्यंत सूक्ष्म भंवर बनता है |इसे शास्त्रों में परानाद कहा जाता है |यह क्रिया ठीक चक्रवात जैसी होती है |यह बिंदु ऊपर उठता है और उसे भरने के लिए तत्व की धाराएं दौड़ती हैं और एक भंवर चक्र बन जाता है जिसकी आकृति शंक्वाकार प्याले जैसी होती है |यह तीब्र गति से नाच रहा होता है |इससे इसके ऊपर आवेश उत्पन्न होता है |यही वह योनिरूपा महाकाली है ,जिसकी महत्ता वाममार्ग में सर्वाधिक है |यह आदिमाया ,आदिरूपा ,आदिशक्ति के रूप में उत्पन्न होती है ,क्योकि इसके बाद ही कोई उत्पत्ति होती है |इस शक्ति का रूप योनी रूपा है ,इसमें अन्य कोई आकृति नहीं होती |इस आकृति की प्रतिक्रया में इसके ऊपर एक इसी की उलटी संरचना उत्पन्न होती है [विपरीत आवेश के खिचाव से ],जिस पर भिन्न प्रकार के [विपरीत] आवेश होते हैं |यह वह शिवलिंग है ,जो योनी के आकर्षण में उत्पन्न होता है |विपरीत आवेश के कारण दोनों एक दुसरे में समा जाते हैं और एक जीव की उत्पत्ति होती है |दोनों आवेशों के एक दुसरे में समाने से जो आकृति बनती है यही भैरवी चक्र है |अर्थात जो परिपथ उस सदाशिव के अनंत फैलाव में उत्पन्न होता है ,यही भैरवी चक्र है और इसी चक्र से महामाया प्रकृति की उत्पत्ति होती है और यही चक्र समस्त सृष्टि के अस्तित्व ,क्रिया ,विकास ,और इसके अन्दर उत्पन्न होने वाली समस्त इकाइयों की उत्पत्ति ,क्रिया और विकास का जनक है |इसके एक छोर पर काली ,दुसरे छोर पर पार्वती ,बीच में भौतिक राज राजेश्वर शिव एवं ऊपर शीर्ष पर सती होती हैं |इसके अन्दर एक नाभिक ,दो अलग अलग ध्रुवों पर दो अलग अलग ऊर्जा बिंदु धन और ऋण होती हैं ,धन बिंदु के ऊपर एक प्रभा होती है |यह मूल भैरवी चक्र है |इसमें ऊर्जा धाराएं चलती हैं और इसकी एक व्यवस्था होती है |इसी से सृष्टि की उत्पत्ति होती है और यह समस्त सृष्टि के अन्दर पायी जाती है |सभी देवी-देवता ,यक्ष ,किन्नर ,जीव-जंतु ,तारे ,नक्षत्र ,ग्रह ,उपग्रह और यह ब्रह्माण्ड एवं इसकी सभी उत्पत्तियां इस चक्र में इसी चक्र की आकृति में होती है |इसलिए दो त्रिकोनों के इस मेल को माँ कहा जाता है |यह आदि जननी का संकेत सूत्र है |यही भैरवी चक्र है |इसी को श्री विद्या या श्री चक्र भी कहा जाता है |सभी यंत्रों के मूल में त्रिकोण एक ऊर्जा धारा [आवेश ] को व्यक्त करता है ,जो आदि रूपा उत्पन्न होने वाली महामाया अथवा महाकाली का संकेत देता है |जबकि दो त्रिकोण एक दुसरे में समाये हुए उसकी पूर्णता और उससे उत्पत्ति को व्यक्त करतें हैं |सभी शक्ति यंत्रों में भैरवी चक्र होते है , त्रिकोण होते हैं |यह मूल शक्ति के संकेतक हैं |अन्य दल अथवा आवरण आदि चित्र उससे जुडी भिन्न शक्तियों अथवा गुणों को व्यक्त करते हैं |
भैरवी चक्र की पूजा किसी न किसी रूप में तंत्र मार्ग में होती है ,क्योकि यही शक्ति है ,इसी से सृष्टि की उत्पत्ति है |परम तत्व तो निर्लिप्त रहता है |उसमे सृष्टि की ईच्छा होने पर ,उसमे स्थित [समाहित ]शक्ति उसी से एक भंवर उत्पन्न करती है अपने आवेश के साथ ,फिर उसी तत्त्व से विपरीत आवेश का भंवर उससे आकर्षित हो बनता है ,जो एक दुसरे में समा जाते है और तीसरे बिंदु नाभिक के साथ एक मूल परिपथ के साथ सृष्टि प्रारम्भ होती है |इसीलिए सभी में मूल रूप से शुरू से ही यह तीनो बिंदु से ही रचना प्रारम्भ होती है |इसे व्यक्त करने के लिए एक त्रिभुज में दुसरे त्रिभुज को दर्शाया जाता है ,जबकि यह दोनों ही त्रिभुज शंक्वाकार एक दुसरे में समाये होते हैं और क्रिया करते हैं |इसी भैरवी चक्र की पूजा को तंत्र में सर्वाधिक महत्व दिया जाता है |इसकी पूजा में स्त्री और पुरुष के दो गुणों के संयोग से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जाता है ,माध्यम बनाया जाता है सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति अर्थात काम भाव को |अर्थात तंत्र में सृष्टि उत्पन्न करने वाली शक्ति से ही सृष्टि के नियंता तक पहुचने का मार्ग बनाया जाता है |परम शक्तिशाली जनन क्षमता को ही मुक्ति का माध्यम बनाया जाता है |मनुष्य की सृष्टि करने वाली शक्ति को ही मुक्ति की शक्ति बना दिया जाता है अर्थात उस शक्ति को मुक्ति मार्ग के लिए उपयोग किया जाता है |यह स्वाभाविक और प्राकृतिक क्रिया शीघ्र शक्ति प्राप्ति का ,सिद्धि का ,मुक्ति का माध्यम बन जाती है |.........................................................................हर-हर महादेव
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